व्यक्ति का समाज के प्रति वही दायित्व है जो अंगों का सम्पूर्ण शरीर के प्रति। यदि शरीर के विविध अंग किसी प्रकार स्वार्थी अथवा आत्मास्तित्व तक ही सीमित हो जायें, तो निश्चय ही सारे शरीर के लिए एक खतरा पैदा हो जाए। हाथ, पैर, मुंह, दांत, आँख, आमाशय आंत आदि कई अंगों के समन्वित कार्य से शरीर के अन्य सभी अंगांगों को पोषण मिलता है। शरीर से जुड़े प्रत्येक कार्य में यह समन्वय दिखाई पड़ता है। इसे ही अंगांगी भाव कहा जाता है।
व्यक्ति की स्वार्थपरता सामाजिक जीवन के लिए विष के समान घातक है। जो व्यक्ति सामूहिक दृष्टि से न सोच कर केवल अपने स्वार्थ, अपने व्यक्तिवाद में लगे रहते हैं, वे सम्पूर्ण समाज को एक प्रकार से विष देने का पाप करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा कभी भी शांत और सुखी नहीं रह सकती। शीघ्र ही उसका लोक तो बिगड़ ही जाता है, परलोक बिगड़ने की भूमिका भी तैयार हो जाती है। समाज में व्यक्तिगत भाव का कोई स्थान नहीं है। जिसने शक्ति, समृद्धि, सम्पन्नता अथवा पद प्रतिष्ठा के क्षेत्र में उन्नति तो कर ली है, किन्तु अपनी इन सारी उपलब्धियों को रखता अपने तक ही सीमित है, किसी भी रूप में समाज को उसका लाभ नहीं पहुँचता, तो उसकी सारी उपलब्धियां, समृद्धियाँ और सफलताएँ हेय हैं। कालान्तर में ऐसे संकीर्ण एवं स्वार्थपरायण व्यक्ति ही समाज के शोषक, शत्रु और अहित-चिन्तक बन जाते हैं। वे अपने साधनों के बल पर समाज का अधिकाधिक शोषण करते हैं और इससे गरीबी, द्वेष, ईर्ष्या और कुत्सा का विष फैलता है। ऐसे व्यक्ति समाज के अस्वस्थ अंग होते हैं जो अपने दोष से सारे समाज के स्वास्थ्य और सुख चैन पर घातक आघात किया करते हैं। जिस प्रकार स्वस्थ एवं सबल राष्ट्र के निर्माण के लिए उसके विभिन्न समाजों में भी अंगांगी भाव होना चाहिए, उसी प्रकार स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए उसके अनुवर्तियों में अंगांगी भाव का होना पहली शर्त है। इसके लिए समाज के हर व्यक्ति में दूसरे व्यक्ति के प्रति भातृभाव का, बन्धुत्व का दृष्टिकोण विकसित करना होगा।
स्वामी विवेकानंद ने 12 वर्षों तक भारत भ्रमण के दौरान तत्कालीन समाज में आई विकृतियों को उन्होंने निकट से समझा। उन्होंने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों की आवश्यकता प्रतिपादित की। उनमें से पहली शिक्षा की और दूसरी सेवा की। उन्होंने कहा कि“ यदि यह जाति बची रही तो तुम्हारे और हमारे जैसे हजारों आदमियों के भूखों मरने से भी क्या हानि है? यह जाति डूब रही है। लाखों प्राणियों का श्राप हमारे सर पर है, सदा ही अजस्त्र जलधार वाली नदी के समीप रहने के बाद भी हमने उन्हें नाबदान का पानी दिया। उन अगणित लाखों मनुष्यों का, जिनके सामने भोजन के भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला, जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्व तो सुनाया, पर तीव्र घृणा भी की। जिनके विरोध में हमने लोकाचार का आविष्कार किया। सब बराबर हैं, सबमें एक ही ब्रह्म है – यह मौखिक तो कहते रहे – पर इस उक्ति को व्यवहार में लाने का रंच मात्र भी प्रयत्न नहीं किया। हरे! हरे! अपने चरित्र का यह दाग मिटा दो। उठो, जागो। समय बीता जा रहा है और व्यर्थ के वितंडावाद से हमारी सम्पूर्ण शक्ति का क्षय होता जा रहा है।
उठो, जागो, छोटे-छोटे विषयों और मतमतान्तरों को लेकर व्यर्थ का विवाद मत करो। तुम्हारे सामने सबसे महान कार्य पड़ा हुआ है – लाखों आदमी डूब रहे हैं, उनका उद्धार करो। हमें अध्यात्म की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अद्वैतवाद को थोड़ा कार्य रूप में परिणीत करने की। गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं। हमारे दो दोष बड़े प्रबल हैं। पहला दोष हमारी दुर्बलता है और दूसरा है घृणा करना, हृदयहीनता। लाखों मतमतान्तरों की बात कर सकते हो, करोड़ों सम्प्रदाय संगठित कर सकते हो, परन्तु जब तक उनके दुःख को अपने हृदय में अनुभव नहीं करते, तब तक कुछ नहीं होगा। वैदिक उपदेशों के अनुसार जब तक स्वयं नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं, तब तक कुछ न होगा। जब तक तुम और वेदृ धनी और दरिद्र, साधु और असाधु सभी उस अनंत पूर्ण के, जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ न होगा।
“समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वतंत्रता, समता और बंधुता इन तीन तत्वों के साध्य तक हम पहुंच सकते हैं। गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुंच न पा रहे हों तो शिक्षा उनके तक पहुंचना चाहिए। दुर्बलों की सेवा यही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा याने ‘‘शिव भावे जीव सेवा’’।
लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इन सभी की आवश्यकता है। इन गुणों के बल पर मुट्ठीभर लोग भी यदि काम करने में जुट गये, तो सारी दुनिया में क्रांति हो जायेगी।