होलिका का पावन पर्व प्राचीन काल में नवान्नेष्टि पर्व के नाम से मनाया जाता था। नवान्नेष्टि की संधि विच्छेद करने से नव+अन्न+इष्टि ये तीन श4द हमें प्राप्त होते हैं। इनका अभिप्राय है कि यह पर्व नये अन्न का यज्ञ है। जब इस पर्व को यज्ञ के साथ इस रूप में मनाते हैं तो इसकी पवित्रता और पावनता और भी अधिक बढ़ जाती है। नवान्नेष्टि पर्व प्राचीन काल से ही वर्ष का अंतिम पर्व होता आया है। इसलिए इस पर्व पर लोग विशाल सामूहिक यज्ञों का आयोजन किया करते थे। सामूहिक यज्ञों का आयोजन इसलिए करते थे कि वर्ष भर के किसी मनोमालिन्य को भी उस यज्ञ में समाप्त किया जा सके और साफ दिल से एक दूसरे को गले लगाकर नये वर्ष को नये हर्ष के साथ मनाने का संकल्प लिया जाता था। गले मिलने या गले लगाने का अर्थ यही है।
इस पर्व पर नया अन्न तैयार हो जाता है और नये कच्चे अन्न की बालों को भूनकर खाने से कफ-पित्त (जो इन दिनों में ज्यादा बढ़े होते हैं) जैसे रोग शांत होते हैं। चरक ऋषि ने इस प्रकार के कच्चे अन्न को भूनकर खाने को ‘होलक’ कहा है। देहात में इस पर्व को ‘होला’ भी कहा जाता है। कालान्तर में होलक से होलिका और होला से होली शब्द बन गया।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व होली वस्तुत: रंगों का त्यौहार है। प्रकृति में जैसे हमारे मनोभाव और भावनाओं के अनेक रंग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति रंगों का फुहारा है, जो बदलता रहता है। अग्नि के जैसे आपकी भावनाएं आपको भस्म कर देती हैं। परन्तु जब वे रंगों के फुहारे के जैसी होती हैं, तो वे आपके जीवन मे आनंद ले आती है। यह संसार रंगभरा है। प्रकृति की तरह ही रंगों का प्रभाव हमारी भावनाओं और संवेदनाओं पर पड़ता है। जैसे क्रोध का लाल, ईष्र्या का हरा, आनंद और जीवंतता का पीला, प्रेम का गुलाबी, विस्तार के लिए नीला, शांति के लिए सफेद, त्याग के लिए केसरिया और ज्ञान के लिए जामुनी।
अग्नि की प्रज्ज्वलता यूँ तो स्वत: ही मन के अंधियारे को दूर कर देती है। गोबर के उपले और सूखी काष्ठ में उठती अग्नि की लपटें एक विशेष प्रकार ऊर्जा शरीर में संचारित करती है। ये ऊर्जा कुछ और नहीं आत्मिक रोशनी की ऊर्जा होती है। सोमवार ९ मार्च की शाम जब होलिका दहन होगा तो यही अहसास हरेक के मन में होगा। होलिका दहन सिर्फ बुराई पर अच्छाई का ही नहीं बल्कि अपने कर्मों को उन्नत करने की दिशा में आगे बढऩे का भी होता है। होलिका दहन आध्यात्म और विज्ञान से जुड़ा हुआ है।
होलिका दहन
भक्त प्रह्लाद, ईश्वर को समर्पित बालक था, परन्तु उसके पिता ईश्वर को नहीं मानते थे। वे बहुत दंभी (घमंडी) और क्रू र शासक थे। तो कहानी कुछ इस तरह से आगे बढ़ती है कि प्रह्लाद के पिता नास्तिक राजा थे और उनका ही पुत्र हर समय ईश्वर का नाम जपता रहता था। इस बात से आहत होकर हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र को सबक सिखाना चाहते थे। उन्होंने अपने पुत्र को समझाने के सारे प्रयास किए, परन्तु प्रह्लाद में कोई परिवर्तन नहीं आया। जब वह, प्रह्लाद को बदल नहीं पाए तो उन्होंने उसे मारने की सोची। इसलिए उन्होंने अपनी बहन होलिका की मदद ली। उनकी बहन को यह वरदान प्राप्त था कि यदि वह अपनी गोद में किसी को भी ले कर अग्नि में प्रवेश करेगी तो स्वयं उसे कुछ नहीं होगा परन्तु उसकी गोद में बैठा व्यक्ति भस्म हो जाएगा। होलिका ने प्रह्लाद को जलाने के लिए अपनी गोद में बिठाया, परन्तु प्रह्लाद के स्थान पर वह स्वयं जल गई और ”हरि’ का जाप करने एवं ईश्वर को समर्पित होने के कारण, प्रह्लाद की आग से रक्षा हो गई और वह सुरक्षित बाहर आ गया। प्रह्लाद से जुड़ी इस घटना के अनुसार तभी से होली का त्यौहार आरंभ हुआ था।
कुछ गाँवों में लोग अंगारों पर से हो कर गुजर जाते हैं और उन्हें कुछ भी नहीं होता, उनके पैरों में छाले/फफोले भी नहीं पड़ते! विश्वास में बहुत शक्ति होती है। जीवन में विश्वास का बड़ा योगदान होता है। आने वाले मानसून पर होलिका दहन का प्रभाव पड़ता है।
होलिका भूतकाल के बोझ का सूचक है जो प्रह्लाद की निश्छलता को जला देना चाहती थी। परन्तु नारायण भक्ति से गहराई तक जुड़े हुए प्रह्लाद ने सभी पुराने संस्कारों को स्वाहा कर दिया और फिर नए रंगों के साथ आनंद का उद्गम हुआ। जीवन एक उत्सव बन जाता है। भूतकाल को छोड़ कर हम एक नई शुरुआत की तरफ बढ़ते हैं। हमारी भावनाएँ आग की तरह हमें जला देती हैं, परन्तु जब रंगों का फव्वारा फूटता है तब हमारे जीवन में आकर्षण आ जाता है। अज्ञानता में भावनाएँ एक बोझ के समान होती हैं, जबकि ज्ञान में वही भावनाएँ जीवन में रंग भर देती हैं। सभी भावनाओं का स6बन्ध एक रंग से होता है जैसे कि – लाल रंग क्रोध से, हरा इष्र्या से, पीला पुलकित होने या प्रसन्नता से, गुलाबी प्रेम से, नीला रंग विशालता से, श्वेत शान्ति से और केसरिया संतोष या त्याग से एवं बैंगनी ज्ञान से जुड़ा हुआ है। सबसे अपेक्षा भी यही है कि त्योहार का सार जान कर होली का आनंद उठाएँ।
इस जीवन यज्ञ में कर्म हमारे द्वारा दी जा रही आहुति हैं, किंतु जब तक हम अपने जीवन में सारे रंग नहीं भरेंगे, तब तक इस जीवन में आनंद को अनुभव नहीं किया जा सकता है। जैसे अग्नि समापन का प्रतीक है, वैसे ही होली के अगले दिन खेला गया रंगोत्सव सृजन का परिचायक है।
होली का वैश्विक संचार
भारत के पड़ोसी देशों-नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, वर्मा और लघुभारत के नाम से विख्यात मॉरीशस में ये पर्व भारतीय परंपरा के अनुसार ही मनाया जाता है। जबकि फ्रांस में यह पर्व प्रतिवर्ष १९ मार्च को डिबोडिबी के नाम से, मिस्र में जंगल में आग जलाकर, थाईलैंड में सौंगक्रान नामक पर्व पर वृद्घजन इत्र मिला जल डालकर महिलाओं व बच्चों को आशीर्वाद देते हैं (ये प्राचीन भारतीय परंपरा के सर्वाधिक अनुकूल है।) जर्मनी में ईस्टर पर घास का पुतला जलाकर (सामूहिक यज्ञ करने की भावना का प्रतीक) तथा अफ्रीका में ओमनावेगा नामक पर्व को होली के रूप में मनाया जाता है। इसी प्रकार पोलैंड में आर्सिना पर्व पर लोग एक दूसरे पर रंग व गुलाल डालते हैं। अमेरिका में मेडफो नामक पर्व पर लोग गोबर व कीचड़ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेंकते हैं। हालैंड में कार्निवल होली के रंगों से सबको मस्त कर देता है। जबकि इटली में रेडिका त्यौहार इसी प्रकार मनाया जाता है, तो रोम में इसे सैंटरनेविका और यूनान में मेपाल कहा जाता है। जापान में रेमोजी ओकुरिबी नामक पर्व पर आग जलाकर इस पर्व को जीवंत बनाया जाता है।
इस प्रकार पूरा विश्व ही होली को किसी न किसी रूप में मनाता है। भारत अपने इस पर्व की ऐतिहासिकता, प्राचीनता, पावनता और वैज्ञानिकता को विश्व के समक्ष सही स्वरूप में स्थापित करने में असफल रहा है। यहाँ मान्यताएँ आयातित करने की आत्मघाती सोच विकसित हुई है और अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक परम्पराओ के निर्यात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाकर चलने की सोच बनी है। इसलिए हमारे प्रत्येक पर्व की प्रामाणिकता और पावनता को रूढिग़त और अवैज्ञानिकता का पुट दे दिया गया है। जो लोग इस रूढिग़त अवैज्ञानिकता के पुट को समाप्त करना चाहते हैं उन्हें उग्र राष्ट्रवादी कहकर उपेक्षित किया जाता है। क्या ही अच्छा हो कि हम अब भी सचेत हों और कहें कि जो होनी थी सो ‘होली’ अब ना होने देंगे। इस पर्व का वास्तविक और वैज्ञानिक भाव भी यही है। आओ इसे इसी भाव से मनाते हैं।
प्रतिमा सामर