गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में भी गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है, नव जन्म देता है। गुरु विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है। गुरु साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र और महाभारत, वेद, उपनिषद और पुराणों के रचयिता महर्षि वेद व्यास का जन्म भी इसी दिन हुआ था। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और ऐसी मान्यता है कि उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को ‘व्यास पूर्णिमा’ नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।
गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है । ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं।
भारतीय संस्कृति के वाहक शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।
गुरु शिष्य परम्परा के प्रेरक उद्धरण :
शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति
छत्रपति शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव समर्थ रामदास स्वामी के एकनिष्ठ भक्त थे। इसलिए समर्थ भी अन्य शिष्यों की अपेक्षा उनसे अधिक प्रेम करते थे। यह देख अन्य शिष्यों को लगा, ‘‘शिवाजी के राजा होने से ही समर्थ उनसे अधिक प्रेम करते हैं!’’ समर्थ रामदासस्वामी ने यह भ्रम त्वरित दूर करने का संकल्प लिया। वे अपने शिष्यगणों के साथ वन में गए। वहां वे रास्ता खो बैठे। इसके साथ समर्थ एक गुफा में पेट की पीड़ा का नाटक कर कराहते हुए सो गए। शिष्यों ने देखा कि गुरुदेव पीड़ा से कराह रहे हैं तो वे व्याकुल हो उठे। शिष्यों ने इस पर उपाय पूछा। समर्थ द्वारा उपाय बताने पर सभी शिष्य एक दूसरे के मुंह देखने लगे। जिस प्रकार दुर्बल मानसिकता एवं ढोंगी भक्तों की अवस्था होती है, बिल्कुल ऐसा ही गंभीर वातावरण बन गया।
शिवाजी महाराज समर्थ रामदास स्वामी के दर्शन लेने निकल पडे़। उन्हें जानकारी मिली कि समर्थ इसी वन में कहीं होंगे। ढूंढते-ढूंढते वे एक गुफा की ओर आए। गुफा में पीड़ा से कराहने की ध्वनि सुनाई दी। भीतर जाकर देखने पर ज्ञात हुआ कि साक्षात गुरुदेव ही व्याकुल होकर सोए हैं। राजा शिवाजी ने हाथ जोड़कर उनसे उनकी वेदना का कारण पूछा।
समर्थ : शिवा, पेट में असहनीय पीड़ा हो रही है।
शिवाजी महाराज : गुरुदेव, इस पर कुछ दवा ?
समर्थ : शिवा, इस पर कोई दवा नहीं! यह असाध्य रोग है। केवल एक ही दवा काम कर सकेगी; परंतु जाने दो।
शिवाजी महाराजः गुरुदेव, निःसंकोच बताएं। अपने गुरुदेव को आश्वस्त (सुखी) किए बिना हम शांत बैठ नहीं पाएंगे।
समर्थ : मादा बाघ का दूध और वो भी ताजा! परंतु शिवा, उसका मिलना संभव नहीं!
शिवाजी महाराज ने उनके समीप का एक कमंडलू उठाया एवं समर्थ को वंदन कर वे तुरंत बाघिन को ढूंढने के लिए निकल पडे़। कुछ दूर जाने पर एक स्थान पर बाघ के दो बच्चे दिखाई दिए। शिवाजी ने सोचा, ‘‘इनकी मां भी निश्चित रूप से यहीं कहीं निश्चित होगी।’’ संयोग से (दैवयोग से) उनकी मां वहां आई। अपने बच्चों के पास अपरिचित व्यक्ति को देख वह उन पर गुर्राने लगी। शिवाजी स्वयं उस बाघिन से लड़ने में सक्षम थे; परंतु इस स्थिति में वे लड़ना नहीं चाहते थे अपितु केवल बाघिन का दूध चाहते थे। उन्होंने धैर्य के साथ हाथ जोड़कर बाघिन से विनती की, ‘‘माता, हम यहां आपको मारने अथवा आपके बच्चों को कष्ट पहुंचाने नहीं आए हैं। हमारे गुरुदेव का स्वास्थ्य सुधारने के लिए हमें आपका दूध चाहिए, वह हमें दे दो, उसे हम अपने गुरुदेव को देकर आते हैं। तदुपरांत तुम भले ही मुझे खा जाओ।’’ ऐसा कहकर राजा शिवाजी ने उसकी पीठ पर प्रेम से हाथ फिराया।
अबोल प्राणी भी प्रेमपूर्ण व्यवहार से वश में होते हैं। बाघिन का क्रोध शांत हुआ एवं वह उन्हें बिल्ली समान चाटने लगी। अवसर देख राजा ने उसके स्तनों से कमंडलू में दूध भर लिया। उसे प्रणाम कर अत्यंत आनंद से उन्होंने वहां से प्रस्थान किया। गुफा में पहुंचने पर गुरुदेव के समक्ष दूध से भरा कमंडलु रख राजा ने गुरुदेव समर्थ को प्रणाम किया। ‘‘अंततः तुम बाघिन का दूध लाने में सफल हुए! तुम धन्य हो शिवा! तुम्हारे जैसे एकनिष्ठ शिष्य रहनेपर गुरु की पीड़ा कैसे टिकी रहेगी ?’’ गुरुदेव समर्थ ने शिवाजी के शीश पर अपना हाथ रखकर अन्य उपस्थित शिष्यों की ओर देखा।
इस घटनाक्रम से शिष्य समझ गए कि बह्मवेत्ता गुरु जब किसी शिष्य से प्रेम करते हैं, तो उसकी विशेष योग्यता होती है। वह उनकी विशेष कृपा का अधिकारी होता है। ईर्ष्या रखने से हमारी दुर्गुण एवं दुर्बलता बढती हैं।
गुरु भक्त आरुणि
प्राचीन काल में धौम्य नामक ऋषि अपने आश्रम में अपने शिष्यों को शिक्षा देने का कार्य करते थे। वे अक्सर अपने शिष्यों से कहा करते थे, मुसीबत चाहे कितनी भी बड़ी क्यूं न हो, कभी भी मुसीबत से डटकर भागना नही चाहिए और मुसीबत का डटकर सामना करना चाहिए। अपने गुरु की यह बात उस आश्रम में अपने गुरु के सबसे प्रिय शिष्य आरुणि ने यह बात अपने मन में अच्छे से बैठा ली थी।
बरसात के दिनों की बात है, हल्की बारिश भी शुरू हो गयी थी। गुरुदेव ने आरुणि से कहा ‘देखो तुम खेतों पर चले जाओ। कोई पानी से मेढ टूट गया हो तो उसे बांध देना ताकि अधिक पानी के बहाव से फसले ख़राब न हो।’
इसके बाद आरुणि खेत पर गया। इतने में बारिश बहुत तेज से भी होने लगी थी। जिसके कारण पानी के तेज बहाव से खेत की मेढ़ टूटी पड़ी थी और पानी बहुत तेजी से खेतों में जा रहा था। आरुणि ने तुरंत मिटटी को काटकर मेंढ पर डालना शुरू किया। लेकिन तेज बहाव के कारण मिट्टी भी पानी के साथ बह जा रहा था।
आरुणि जितना प्रयास करता उतना बार असफल होता जा रहा था। फिर अंत में आरुणि को अपने गुरु की बात याद आ गयी कि कभी भी मुसीबत से भागना चाहिए। इसके बाद आरुणि पानी रोकने के लिए उसी मेंढ़ पर लेट गया। बरसात काफी देर तक रुकी नहीं और शीत के चलते आरुणि को मूर्छा आ गई।
काफी देर हो जाने के बाद जब आरुणि आश्रम पर नहीं लौटा तो गुरुदेव अपने शिष्यों के साथ खेत पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने देखा की आरुणि मेंढ़ पर पानी का बहाव रोकने के लिए खुद ही लेटा हुआ है। गुरूजी को यह देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ और आरुणि के द्वारा सहे कष्टों को याद करके उन्होंने उसको गले से लगा लिया और जीवन में हमेशा सफल होने का आशीर्वाद दिया।
गुरु-कर्त्तव्य पितृ-हृदय से भी आवश्यक मिथिला के पंडित गंगाधर शास्त्री, जिस विद्यालय में पढ़ाते थे, उनका पुत्र गोविन्द भी उसी विद्यालय में पढ़ता था। गोविन्द के सौजन्य, अनुशासन और मंत्री भाव के कारण छात्र जितनी अधिक श्रद्धा शास्त्री जी के प्रति रखते थे, उससे अधिक प्रेम गोविन्द के प्रति। गोविन्द की सहृदयता की उन सब पर अमिट छाप थी।
कभी अनुपस्थित न रहने वाला छात्र गोविन्द उस दिन विद्यालय नहीं पहुँचा, तो विद्यार्थियों को स्वभावतः कुछ बेचैनी अनुभव हुई। सायंकाल तक कक्षाएं नियमित रूप से चलती रहीं। शास्त्री जी जैसे पहले पढ़ाया करते थे उसी तन्मयता, एकाग्रता और माधुर्य के साथ पढ़ाते रहे- जबकि सभी छात्रों के मन में रह रहकर गोविन्द के न आने का प्रश्न उठ-उठ पड़ता था, जैसे श्री शास्त्री जी मानो गोविन्द से पूर्ण अपरिचित रहे हों। उनकी मुद्रा में कोई भी ऐसा भाव दिखाई न दिया, जिससे पता चलता कि उन्हें गोविन्द की एक बार भी याद आई हो।
विद्यालय समाप्त हुआ, तो एक छात्र ने पूछ ही लिया- ‘गुरुजी’ आज गोविन्द पढ़ने नहीं आया, कहीं गये हैं क्या?
‘हाँ!’ बड़े करुण और शान्त स्वर में शास्त्री जी ने कहा- ‘गोविन्द वहाँ चला गया, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।
गुरुभाई के आकस्मिक निधन का समाचार सुनकर विद्यार्थी अवाक् रह गये। एक छात्र ने पूछ ही लिया- ‘गुरुजी! सारा दिन बीत गया, आपने पहले क्यों नहीं बताया?’
‘पिता के हृदय से गुरु का कर्तव्य बड़ा होता है’ दृ दस शब्दों का इतना सा संक्षिप्त उत्तर देकर शास्त्री जी घर की ओर चल पड़े।
शिष्य की परीक्षा
रामानुजचार्य गुरु शठकोप स्वामी के शिष्य थे। एक बार स्वामी जी ने रामानुजचार्य को ईश्वर प्राप्ति का रहस्य बताया। लेकिन स्वामी जी ने रामानुजचार्य को यह भी निर्देश दिया कि इसे किसी को न बताये। ईश्वर प्राप्ति ज्ञान मिलने के पश्चात रामानुजचार्य ने इस ज्ञान को लोगो में बाटना शुरू कर दिया। इस पर स्वामी जी बहुत ही क्रोधित हुए और रामानुजचार्य से कहा कि ‘‘तुम मेरे बताये गये आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो और मेरे द्वारा दिए ज्ञान को लोगों में यूँ ही बाँट रहे हो। तुम्हें पता होना चाहिए की यह अधर्म है और इसके बदले तुम्हें पाप भी लग सकता है और जानते हुए भी तुम अधर्म कर रहे हो।’’
यह सब बातें सुनकर रामानुजचार्य अपने गुरु से बोले, ‘‘हे महाराज जैसा कि आप जानते है एक वृक्ष में फल फूल छाया लकड़ियां सब कुछ होने के बाद भी यह लोगों के लिए त्याग कर देता है, फिर भी वृक्ष को कभी भी अपने इन कार्यों पर पश्चाताप नहीं होता है तो फिर भला मैं इस ज्ञान को लोगों में बाट भी दूँ तो लोगों को ईश्वर प्राप्ति का रास्ता मिलेगा जिससे लोगों को आनंद की प्राप्ति होगी। ऐसे में इस महान कार्य के लिए मुझे नर्क में भी जाना पड़े तो मुझे कोई फर्क नही पड़ता है।’’
रामानुजचार्य की यह बातें सुनकर स्वामी जी अपना गुस्सा शांत करते हुए बोले – तुम्हारे इस समाज सेवा की लालसा को देखकर आज मुझे विश्वास हो गया कि मैने यह दिव्य ज्ञान तुम्हें देकर सही किया है। अब तुम समाज में जाकर इस ज्ञान का प्रचार प्रसार करो जिसे मुझे भी आनंद की अनुभूति प्राप्त होगी।
सच्ची गुरु दक्षिणा
प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अपना शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।
उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस कर देना। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।
एक शिष्य जो गुरु को भगवान मानता था। उसने गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पोटली बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था, उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।
कुछ महीनों बाद जब गुरु वापस आए। उन्होंने सर्वप्रथम जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था, उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पोटली बताई, जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पोटली के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।
लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है। सामान्य अर्थ में गुरुदक्षिणा का अर्थ पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं।
गुरू की बात को गिरिधारी भी नहीं टाल सकते
वृंदावन मे एक संत के पास कुछ शिष्य रहते थे उनमें से एक शिष्य मंद बुद्धि का था। एक बार गुरुदेव ने सभी शिष्यों को अपने करीब बुलाया और सब को एक मास के लिए ब्रज में अलग-अलग स्थान पर रहने की आज्ञा दी और उस मंद बुद्धि को बरसाने जाकर रहने को कहा।
मंद बुद्धि ने बाबा से पूछा बाबा मेरे रहने खाने की व्यवस्था वहां कौन करेगा। बाबा ने हँस कर कह दिया-राधा रानी। कुछ दिनों बाद एक एक करके सब बालक लौट आए पर वो मंद बुद्धि बालक नहीं आया। बाबा को चिंता हुई के दो मास हो गए मंद बुद्धि बालक नहीं आया जाकर देखना चाहिए, बाबा अपने शिष्य की सुध लेने बरसाने आ गए।
बाबा ने देखा एक सुन्दर कुटिया के बाहर एक सुन्दर बालक बहुत सुन्दर भजन कर रहा है, बाबा ने सोचा क्यों ना इन्हीं से पूछा जाए। बाबा जैसे ही उनके करीब गए वो उठ कर बाबा के चरणों में गिर गया और बोला आप आ गए गुरु देव! बाबा ने पूछा ये सब कैसे? तू ठीक कैसे हो गया? शिष्य बोला बाबा आपके ही कहने से किशोरी जी ने मेरे रहने खाने पीने की व्यवस्था की और मुझे ठीक कर भजन करना भी सिखाया।
बाबा अपने शिष्य पर बरसती किशोरी जी की कृपा को देख खूब प्रसन्न हुए और मन ही मन सोचने लगे मेरे कारण मेरी किशोरी जी को कितना कष्ट हुआ। उन्होंने मेरे शब्दों का मान रखते हुए मेरे शिष्य पर अपनी सारी कृपा उडेल दी। इसलिए कहते हैं गुरु की बात को गिरिधारी भी नहीं टाल सकते।
विजयनगर, अजमेर
सौरभ व्यास प्राचार्य- संजीवनी महाविद्यालय