यदि समाज में समरसता लानी हो तो वह कृति से प्रकट होनी चाहिए। हमारे और हमारे परिवार के व्यवहार में यह आनी चाहिए। इसलिए समाज के हर घटक का आचार-विचार समरसता युक्त होना आवश्यक है। उसका एवं उसके परिवार का प्रभाव आसपास के परिसर पर निर्माण होना चाहिए। अपने व्यवहार में जब तक ये मूल्य प्रकट नहीं होंगे, तब तक समता का दर्शन समाज में नहीं हो सकता। हमें अपने जीवन में मूल्यों को मन, मस्तिष्क और व्यवहार में आचरणीय बनाना होगा।
सामाजिक समरसता एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से कार्यान्वित करना आज समाज एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम ‘सामाजिक समरसता’ के अर्थ का व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। संक्षेप में इसका अर्थ है सामाजिक समानता। यदि व्यापक अर्थ देखें तो इसका अर्थ है- जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों के मध्य ऐक्य स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हंै और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना।
समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व हमने स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर हमने मान्यता तो दे दी परंतु इसे व्यावहार में परिवर्तित करने में असफल रहे। ‘समता’ इस तत्व को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ यह व्यवहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। डाॅ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बँधुता यही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती। ‘‘समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वतंत्र्य, समता और बँधुता इन तीन तत्वों के साध्य तक हम पहुँच सकते हैं।
अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयोगी है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फूले, डाॅ. बाबासाहब अंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अतुलनीय है। भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। सारे संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना यह एक समरसता प्रस्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।
यदि देखा जाये तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के सैंकड़ों वर्षों में आक्रमणकारियों द्वारा हमारे धार्मिक ग्रन्थों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी गई, जिससे उनमें कई विकृतियाँ आ गई जिसके कारण आज भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। समय के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्थाओं में अनेक विकृतियाँ आती गई इन सबके कारण जातिगत भेद-भाव, छूआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई।
‘‘समता के मूल में ही समरसता है। हमें समरस हिंदू समाज खड़ा करना है अर्थात शोषण मुक्त समाज, आत्मविस्मृति- भेद- स्वार्थ- विषमता इन बातों से समाज को मुक्त करना है। किसी भी प्रकार की विषमता को हिन्दू समाज में स्थान नहीं है।’’ समरस समाज, समर्थ भारत ही हमारा लक्ष्य है।’’
‘‘हमें समरसता का काम नहीं, आचरण करना है। गत 2000 वर्षों की समाज की विषमता अब समाप्त होनी ही चाहिए। यह काम सबको मिल कर करना है। अपने परिवेश एवं समाज में समरसता का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होना चाहिए। इसके लिए हम सबको अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। समाज एवं परिवार के प्रत्येक स्तर पर मित्रता कर संबंध मजबूत करने की आवश्यकता है। समरसता समय मिलने पर करने का विषय नहीं है, उसके लिए नियमित समय देने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन एवं सामाजिक जीवन इन चारों स्तरों पर हमारा व्यवहार समरसतापूर्ण होना चाहिए।’’
‘‘समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपने आचरण से समाज को समरसता का संदेश देने की आवश्यकता है। समाज में काम करते समय महापुरुषों की जयंती एवं पुण्यतिथि सभी को साथ मिल कर मनानी चाहिए। बौद्धिक स्पष्टता, जीवंत संपर्क, समाज के गुणी व्यक्तियों का समूह एवं समरसता गतिविधि को बढ़ावा देने वाले नागरिक ये सभी आगामी समय में चतुरंग सेना साबित होंगे। इसी के बल पर हम समाज को सामाजिक समरसता की अनुभूति देने वाले हैं।’’
हमें समतामूलक एवं समरस समाज खड़ा करना है। किसी भी प्रकार की विषमता को भारतीय समाज में स्थान नहीं है। विचारों अधिष्ठान पर आचरण करने वाला समाज ही चिरजीवी समाज है। समाज में जो विकृति आई है उसे समझना आवश्यक है। यह विकृति मानवीय मानसिकता से जुड़ी है। इसलिए मन परिवर्तन आवश्यक है। मन से भेद दूर कर भारतीय जनसिंधु का प्रत्येक बिंदु मेरा है, यह मनोभाव निर्माण करने की आवश्यकता है।