महावीर स्वामी जैनपंथ के 24वें और अन्तिम तीर्थकर थे! भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में शुक्ल पक्ष के चैत्र माह के 13वें दिन, बिहार के वैशाली जिले के कुंडलग्राम में हुआ था। भगवान महावीर को बाल्यकाल से वर्धमान के नाम से जाना जाता था। वर्धमान, कई मायनों में बौद्ध धर्म के सिद्धार्थ गौतम के समान थे। सिद्धार्थ के समान, वर्धमान ने भी सांसारिक कष्टों को देखने के बाद सत्य की खोज करने के लिए अपना राजसी वैभव छोड़ दिया था। विभिन्न संस्कृतियों और पृष्ठभूमियों के लोगों से मिलने के बाद, वर्धमान को संसार और पीड़ा के स्त्रोतों का काफी ज्ञान हुआ। अंत में, वर्धमान ने अपनी कठोर तपस्या मानवता के कल्याण के लिये केवल्य प्राप्त किया।
425 ईसा पूर्व में वर्धमान को भगवान महावीर, धर्म के अंतिम तीर्थंकर और सर्वज्ञ गुरु के रूप में जाना जाने लगा। महावीर को ‘वर्धमान’, ‘वीर’, ‘अतिवीर’ और ‘सन्मति’ भी कहा जाता है। आज विश्व भर के लोग अपने कर्मों और भगवान महावीर की शिक्षाओं पर विचार करने के लिए महावीर जयंती मनाते हैं।
इस कठोर तपस्या के माध्यम से, महावीर को मोक्ष की प्राप्ति हुई। उन्होंने पाया कि अपनी असीमित इच्छाओं को समाप्त करने के लिए मनुष्यों के लिए लालच और सांसारिक चीजों से अपना संबंध तोड़ना जरुरी होता है। इस ज्ञान के साथ, जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए महावीर ने भारत और एशिया के अन्य क्षेत्रों (प्राचीन सांस्कृतिक भारत) की यात्रा की। इस समय के दौरान, वर्धमान का साम्राज्य बहुत अधिक समृद्ध हो गया था। कई लोगों ने इस आशा के साथ जैन धर्म अपना लिया कि उन्हें भी प्रसन्नता की समान स्थिति का अनुभव हो जायेगा।
कैवल्य पाने के बाद, भगवान महावीर ने पाँच सिद्धांत सिखाए जो समृद्ध जीवन और आंतरिक शांति की ओर ले जाते हैं। पहला सिद्धांत है अहिंसा। अहिंसा का सिद्धांत कहता है कि सभी मनुष्यों को किसी भी परिस्थिति में हिंसा से दूर रहना चाहिए। दूसरा सिद्धांत है सत्य। सत्य के सिद्धांत के अनुसार, लोगों को हमेशा सत्य बोलना चाहिए। तीसरा सिद्धांत है अस्तेय। अस्तेय का पालन करने वाले लोग चोरी नहीं करते हैं। ये लोग संयम से रहते हैं और केवल वही लेते हैं जो उन्हें दिया जाता है। चौथा सिद्धांत है ब्रह्मचर्य। इस सिद्धांत के लिए साधकों को पवित्रता के गुणों का प्रदर्शन करने की जरुरत होती है। उन्हें शारीरिक गतिविधियों में बहुत संयमित रहना चाहिए। अंतिम सिद्धांत है-अपरिग्रह। यह शिक्षा सभी पिछले सिद्धांतों को जोड़ती है। अपरिग्रह का पालन करके, साधकों की चेतना जाग जाती है और वे अपनी वस्तुओं की ईच्छाओं को समाप्त कर लेते हैं।
संसार को महावीर की देन
एक दिन जब भगवान महावीर मगध (बिहार) में ऋजुकूला नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे तपस्या रत थे, उनको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। वे अरिहंत, जिन और वीतराग हो गए। जिसे कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो जाए, वह तीनों लोकों और तीनों कालों को एक साथ जानता है। इसके लिए महावीर ने ऋजुकूला के तट पर तीन वर्ष, पाँच मास और पंद्रह दिवस तक घोर तपस्या की थी।
अरिहंत भगवान महावीर अपने उपदेश अत्यंत साधारण भाषा में देते थे। वह इतना सहज होता था कि उसे प्रत्येक जन अपनी भाषा में ग्रहण कर लेता था। कहते हैं कि जहाँ भी उनका उपदेश होता था, वहाँ कुबेर स्वयं सभागृह का निर्माण कराता था। संभवतः इसका आशय यह रहा हो कि अरिहंत के उपदेश इतने लोकप्रिय होते थे कि लोग उत्साहपूर्वक पहले ही वहां सभा भवन बना लेते थे।
उन्होंने अपने समय में इस संसार में व्याप्त हिंसा का वातावरण, स्त्रियों की हीन दशा और असहाय लोगों की वेदना देखी। ऐसे वातावरण में उन्होंने निश्चय किया कि वे सन्मार्ग प्राप्त करेंगे और विषय भोग, हिंसा, परिग्रह और असत्य में गोता लगा रहे संसारी जनों का उद्धार करेंगे।
महावीर ने अनेक स्थानों जैसे कुरु, मगध, कामरूप, अंग, बंग, विदर्भ और गौड़ इत्यादि में विहार किया और लोगों को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की शिक्षा दी। वे कहते थे कि हिंसा केवल मारना नहीं हैं, बल्कि कठोर वचन बोलना, मन- वचन- काया को संयम में न रखना और मार्ग में देख कर न चलना भी हिंसा को बढ़ावा देते हैं।
उन्होंने कहा कि चोरी के माल को खरीदना, झूठे साक्ष्य तैयार करना और कर चोरी करना आदि मनुष्य के आत्म विकास के शत्रु हैं। इस तरह वे दैनिक जीवन के छोटे-छोटे उदाहरणों के माध्यम से लोगों को शिक्षित करते थे। उनके ऐसे उपदेशों से ही प्रभावित होकर लोगों ने पशु बलि बंद कर दी और सदाचार का जीवन व्यतीत करने लगे।
उन्होंने नारियों के प्रति असमानता, अत्याचार और उत्पीड़न का घोर विरोध किया। इस सामाजिक दोष को दूर करने के लिए उन्होंने स्त्रियों को अपने संघ में स्थान दिया। उनके संघ में श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका सभी समान अधिकार से रहते थे। उन्होंने जातिवाद का भी घोर विरोध किया और कहा कि कर्म से ही मनुष्य छोटा या बड़ा बनता है। जन्म से सभी एक समान पैदा होते हैं, किंतु कर्म से मनुष्य ब्राह्मण या विद्वान बनता है।
वे कहते थे कि संसार में लोक कल्याण, विश्व शांति, सद्भाव और समभाव के लिए अपरिग्रह का भाव जरूरीहै। यही अहिंसा का मूल आधार है। परिग्रह की प्रवृत्ति अपने मन को अशांत बनाती है और हर प्रकार से दूसरों की शांति भंग करती है। लेकिन आज बड़ा राष्ट्र छोटे राष्ट्र को हड़पना चाहता है और धनवान व्यक्ति परिग्रह के द्वारा असहायों के लिए समस्याएं पैदा करता है। वह संसाधनों पर कब्जा कर लेता है। इससे मानसिक क्रोध बढ़ता है और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। महावीर कहते थे कि संसार में आत्म कल्याण के लिए एक दूसरे का सहयोग परम आवश्यक है। कोई भी प्राणी अकेला नहीं चल सकता, उसको दूसरे की सहायता अवश्य चाहिए। इसलिए सदा एक-दूसरे के सहायक बनें। इसी तरह बड़ा राष्ट्र छोटे राष्ट्र का सहायक बने, समर्थ असमर्थ का पोषक बने।
एक छोटा सा उदाहरण आज की दुनिया के कुबेर कम्प्यूटर जगत के बादशाह बिल गेट्स का है। हालांकि वे व्यवसायी हैं, पर वास्तव मेंअपरिग्रहवादी हैं। उन्होंने गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा और बीमारी को दूर करने के लिए अपना खजाना खोलदिया। यदि हम भी महावीर के बताए मार्ग पर चलें, तो एक शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
सम्पत राज चपलोत