आओ मन की गाँठे खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास-फूस का घर हांडे पर
गोबर सी लीपे आँगन में
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर
मां के मुंह से रामायण के
दोहे-चैपाई रस घोले
आओ मन की गांठे खोलें।
बाबा की बैठक में बिछी चटाई
बाहर रखे खड़ाऊं
मिलने वाले के मन में असमंजस
जाऊं या ना जाऊं
माथे तिलक नाक पर ऐनक
पोथी खुली स्वयं से बोलें
आओ मन की गांठे खोलें।
सरस्वती की देख साधना
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा
मिट्टी ने माथे का चंदन
बनने का संकल्प न छोड़ा
नए वर्ष की अगवानी में
टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें
आओ मन की गांठें खोलें।
– अटल बिहारी वाजपेयी