कैप्टन लक्ष्मी सहगल भारत की स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी थी। वे आजाद हिन्द फौज की ‘रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट’ की कमाण्डर तथा आजाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री थी। वे व्यवसाय से डॉक्टर थी जो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रकाश में आयीं।
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 1914 में एक परंपरावादी तमिल परिवार में हुआ और उन्होंने मद्रास मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की शिक्षा ली, फिर वे सिंगापुर चली गईं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में शामिल हो गईं थीं।
वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमें हिस्सा लिया। वे 1943 में अस्थायी आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं, उसी सेवा भाव के कारण 98 वर्ष की उम्र में भी वे कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थी।
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए निःशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने घायल युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।
विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी, इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंततः करीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाने की घोषणा कर दी, जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गयीं जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। 22 अक्तूबर, 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें ‘कैप्टन लक्ष्मी’ के रूप में ही याद रखा।
आजाद हिंद फौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं, पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गईं। लेकिन उनका संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रही हैं। उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद शांति बहाल करने के लिए भी काम किया। बैंगलोर में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के विरुद्ध अभियान में, लक्ष्मी सहगल को गिरफ्तार भी किया गया था।
यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उन्होंने ही लक्ष्मी सहगल को भारत के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी राजनीति की ओर लक्ष्मी सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में से थी।
भारत सरकार ने उन्हें 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया। डॉक्टर लक्ष्मी सहगल की बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं।
आजाद हिंद फौज की महिला इकाई की पहली कैप्टन रहीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लक्ष्मी सहगल का कानपुर के एक अस्पताल में 23 जुलाई 2012 को निधन हो गया।