राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन की मौलिकता और उनसे जुड़ी घटनाएं उनके जीवन दर्शन को समझाती हैं। भारत की आजादी में उनकी भूमिका सर्वविदित है। भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी विचारधारा वर्तमान परिस्थितियों में भी उतनी ही प्रासंगिक है। महात्मा गांधी की सार्द्ध शती जयंती (150 वां वर्ष) के उपलक्ष्य में हम बापू के जीवन से जुड़े ऐसे प्रेरक प्रसंगों को प्रकाशित कर रहे हैं जो ज्ञान का खजाना सिद्ध होंगे, ये छोटे छोटे प्रसंग हमें गहरी सीख देते हैं और गांधी जी के आदर्शों से हमें परिचित कराते हैं, कोई भी व्यक्ति यदि इन्हें अपना सके तो अपने जीवन को एक नयी दिशा दे सकता है।
नकल करना अपराध है
बात उन दिनों की है जब गांधीजी अल्फ्रेड हाई स्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक बार उनके स्कूल में निरीक्षण के लिए विद्यालय निरीक्षक आये हुए थे। उनके शिक्षक ने छात्रों को हिदायत दे रखी थी कि निरीक्षक पर आप सब का अच्छा प्रभाव पड़ना चाहिए। जब निरीक्षक गांधी जी की क्लास में आये तो उन्होंने बच्चों की परीक्षा लेने के लिए छात्रो को पांच शब्द बताकर उनके वर्तनी लिखने को कहा।
निरीक्षक की बात सुनकर सारे बच्चे वर्तनी लिखने में लग गये। जब बच्चे वर्तनी लिख ही रहे थे की शिक्षक ने देखा कि बालक मोहन ने एक शब्द की वर्तनी गलत लिखी है। उन्होंने मोहन को संकेत कर बगल वाले छात्र से नकल कर वर्तनी ठीक लिखने को कहा। किन्तु बालक मोहन ऐसा कहाँ करने वाले थे। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें नकल करना अपराध लगा। निरीक्षक के जाने के बाद उन्हें शिक्षक से डांट खानी पड़ी।
सीख : गांधी जी का यह प्रसंग हमें बताता है कि हमें परीक्षा में कभी भी नकल नहीं करनी चाहिए बल्कि हमें जितना भी उस विषय के बारे में जानकारी पता है उसका उत्तर लिखना चाहिए। नकल करने से कभी भी कोई छात्र जीवन की परीक्षा में पास नहीं हो सकता। इसलिए हमें ईमानदारी से हर परीक्षा देनी चाहिए।
जीवन का सहारा बना राम का नाम
यह तब की बात है जब महात्मा गांधी करोड़ों लोगों की प्रेरणा नहीं बल्कि किसी आम बालक की ही तरह स्कूल जाते थे, पढ़ाई करते थे और कभी-कभार उन्हें अपने अध्यापकों से स्कूल में डांट भी पड़ती थी। बहुत अंधेरी रात थी और बालक मोहन को अकेली और अंधेरी जगहों से बहुत डर लगता था। घर में बिल्कुल सन्नाटा था और उन्हें अपने कमरे से बाहर जाना था। मोहन को लगता था कि अगर वह अंधेरी जगहों पर बाहर निकलेंगे तो भूत-प्रेत और आत्माएं उन्हें परेशान करेंगी। जिस रात का जिक्र हम यहाँ कर रहे थे वो तो वैसे भी इतनी अंधेरी थी कि मोहनदास को अपना ही हाथ नजर नहीं आ रहा था।
जैसे ही मोहन ने अपने कमरे से अपना पैर बाहर निकाला उनका दिल जोरों से धड़कने लगा और उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई उनके पीछे खड़ा है। अचानक उन्हें अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ जिसकी वजह से उनका डर और ज्यादा बढ़ गया। वह हिम्मत करके पीछे मुड़े तो उन्होंने देखा कि वो हाथ उनकी नौकरानी, जिसे वो दाई कहते थे, का था।
रंभा ने उनका डर भांप लिया था और हंसते हुए उनसे पूछा कि वो क्यों और किससे इतना घबराए हुए हैं। मोहन ने डरते हुए जवाब दिया ‘दाई, देखिए बाहर कितना अंधेरा था, मुझे डर है कि कहीं कोई भूत ना आ जाए’। इस पर रंभा ने प्यार से मोहन के सिर पर हाथ रखा और बालक मोहन से कहने लगी कि ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो, तुम्हें जब भी डर लगे या किसी तरह की परेशानी महसूस हो तो सिर्फ राम का नाम लेना। राम के आशीर्वाद से कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेगा और ना ही तुम्हें आने वाली परेशानियों से डर लगेगा। राम हर मुश्किल में तुम्हारा हाथ थाम कर रखेंगे।’’
रंभा के इन आश्वासन भरे शब्दों ने मोहन दास गांधी के दिल में अजीब-सा साहस भर दिया। उन्होंने साहस के साथ अपने कमरे से दूसरे कमरे में प्रस्थान किया और बेहिचक अंधेरे में आगे बढ़ते गए।
इस दिन के बाद बालक मोहन कभी न तो अंधेरे से घबराए और ना ही उन्हें किसी समस्या से डर लगा। वह राम का नाम लेकर आगे बढ़ते गए और जीवन में आने वाली सारी समस्याओं का सामना किया। उन्हें लगता था भगवान राम उनकी सहायता करेंगे और उनका जीवन उन्हीं की सुरक्षा में है। इस विश्वास ने जीवनभर उनका साथ दिया और उनके मुंह से अंतिम शब्द भी ‘हे राम’ ही निकले थे।
छुआछूत के प्रबल विरोधी
गांधी जी के पिता का ट्रांसफर जब पोरबंदर से राजकोट हुआ था। तब राजकोट में उनके पड़ोस में उका नाम का एक सफाई कर्मी काम करता था। गांधीजी उका को बहुत पसंद करते थे। घर में हुए एक समारोह के चलते गांधीजी को मिठाई बांटने का काम दिया गया। वह उस मिठाई को लेकर सबसे पहले उका के पास गए। उका गांधीजी से दूर होते हुए बोला, ‘मैं अछूत हूं, मुझे मत छुईये।’ गांधी जी ने उका का हाथ पकड़ा और यह कहकर मिठाई थमा दी, ‘अछूत कोई नहीं होता, हम सब इंसान हैं।’
मां पुतली बाई को जब इस बारे में पता चला तो उन्होंने गांधीजी को डांट लगायी और कहा, ‘जाओ नहा कर आओ’। तुम्हे नहीं पता उका अछूत है। गांधीजी ने कहा, ‘मां साफ सफाई करना कोई बुरा कार्य तो नहीं है। मैंने तो सुना है कि भगवान् श्री राम ने भी गुह नामक अछूत को गले लगाया था और रामायण को तो हमारे धर्म में भी माना जाता है। मैं तो बस समाज से छूत-अछूत जैसी बुरी धारणाओं को हटाना चाहता हूं।
गलती की है तो माफी माँगो
गांधी जी एक बार अपनी यात्रा पर निकले थे। तब उनके साथ उनके एक अनुयायी आनंद स्वामी भी थे। यात्रा के दौरान आनंद स्वामी की किसी बात को लेकर एक व्यक्ति से बहस हो गई और जब यह बहस बढ़ी तो आनंद स्वामी ने गुस्से में उस व्यक्ति को एक थप्पड़ मार दिया।
जब गांधी को इस बात का पता चला तो उन्हें आनंद जी की यह बात बहुत बुरी लगी। उन्हें आनंद जी का एक आम आदमी को थप्पड़ मारना अच्छा नहीं लगा। इसलिए उन्होंने आनंद जी को बोला कि वह इस आम आदमी से माफी मांगे। गांधी जी ने उनको बताया कि अगर यह आम आदमी आपकी बराबरी का होता तो क्या आप तब भी इन्हें थप्पड़ मार देते। गांधी जी की बात सुनकर आनंद स्वामी को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने उस आम आदमी से इस बात को लेकर माफी मांगी।
सीख : हमें कभी भी अपने ऊपर घमंड नहीं करना चाहिए। आनंद जी को गांधी जी का अनुयायी होने का घमंड था। लेकिन अगर वही कोई उनके टक्कर का आदमी होता तो वे उसके साथ ऐसा करने से पहले कई बार सोचते। इसलिए हमें कभी भी किसी गरीब या लाचार आदमी को कमतर आंककर उसका अपमान नहीं करना चाहिए।
छोटी सी पेंसिल से दिया जीवन का अनमोल सबक
गांधी जी जब अफ्रीका में थे तब उनके पास उनका पोता आया हुआ था। गांधीजी ने एक नयी पेंसिल अपने पोते को दी। लिखते-लिखते जब पेंसिल छोटी हो गयी तो बच्चे ने सोचा कि अगर मैं इस पेंसिल को फेंक दूं तो मुझे नयी पेंसिल मिल जायेगी। ऐसा सोचकर उसने पास ही की झाड़ियों में वह पेंसिल फेंक दी। उसने गांधीजी से नयी पेंसिल मांगी। गांधीजी ने उसे पुरानी पेंसिल लाने को कहा। बच्चे ने कई बहाने बनाये पर आखिरकार उसे झाड़ियों से ढूंढ कर वह पेंसिल लानी पड़ी। पेंसिल देखकर गांधीजी ने कहा, ‘अभी भी यह पेंसिल किसी ना किसी के काम आ सकती है।’ बच्चा समझ गया और उसने उसी पेंसिल से लिखना शुरू कर दिया।
गांधीजी जानते थे कि देश में ऐसे कई परिवार हैं, जिन्हें दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता। पढ़ना-लिखना तो बहुत दूर की बात थी। इसलिए गांधीजी पैसे का महत्त्व बहुत अच्छे से जानते और समझते थे।
सार सार ले लिया ! बस और क्या चाहिये ?
एक अंग्रेज ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा। उसमें गालियों के अतिरिक्त कुछ था नहीं।
गांधीजी ने पत्र पढ़ा और उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। उसमें जो आलपिन लगा हुआ था उसे निकालकर सुरक्षित रख लिया। कुछ समय पश्चात् वह अंग्रेंज गांधीजी से प्रत्यक्ष मिलने के लिए आया। आते ही उसने पूछा- महात्मा जी! आपने मेरा पत्र पढ़ा या नहीं?
महात्मा जी बोले- बड़े ध्यान से पढ़ा है।
उसने फिर पूछा- क्या सार निकाला आपने?
महात्मा जी ने कहा- एक आलपिन निकाला है। बस, उस पत्र में इतना ही सार था। जो सार था, उसे ले लिया। जो असार था, उसे फेंक दिया।
समय की कीमत
दांडी यात्रा के समय बापू एक स्थान पर शंभर के लिए रुके। जब वह चलने को हुए तो उनका एक अंग्रेज प्रशंसक उनसे मिलने आया और बोला, ‘हेल्लो मेरा नाम वाकर है।’ चूँकि बापू उस समय जल्दी में थे, इसलिए चलते हुए ही विनयपूर्वक बोले, मैं भी तो वाकर हूँ। इतना कहकर वह जल्दी-जल्दी चलने लगे।
तभी एक सज्जन ने पूछा, ‘बापू यदि आप उससे मिल लेते तो आपकी प्रसिद्धि होती और अंग्रजी समाचार-पत्रों में आपका नाम सम्मानपूर्वक छपता। बापू बोले मेरे लिए सम्मान से अधिक समय कीमती है।
अपव्यय संचय की वृत्ति से बचो
महात्मा गांधी से एक मारवाड़ी सेठ भेंट के लिए आये। वे बड़ी-सी पगड़ी बाँधे थे और मारवाड़ी वेशभूषा में थे। बातचीत के बीच उन्होंने पूछा -‘‘गांधीजी। आपके नाम पर लोग देश भर में गांधी टोपी पहनते हैं और आप इसका इस्तेमाल नहीं करते, ऐसा क्यों?’’
गांधीजी मुस्कराते हुये बोले- ‘‘आपका कहना बिल्कुल ठीक है, पर आप अपनी पगड़ी को उतारकर तो देखिये। इसमें कम से कम बीस टोपियाँ बन सकती हैं। जब बीस टोपियों के बराबर कपड़ा आप जैसे धनी व्यक्ति अपनी पगड़ी में लगा सकते हैं तो बेचारे उन्नीस आदमियों को नंगे सिर रहना ही पड़ेगा। उन्हीं उन्नीस आदमियों में मैं भी एक हूँ।’’
गांधीजी का उत्तर सुनकर सेठजी को कुछ कहते न बना। वह चुप हो गये। पर गांधीजी ने अपनी बात को जारी रखते हुये कहा- ‘‘अपव्यय संचय की वृत्ति अन्य व्यक्तियों को अपने हिस्से से वंचित कर देती है।’’ तो मेरे जैसे अनेक व्यक्तियों को टोपी से वंचित रहकर उस संचय की पूर्ति करनी पड़ती है।
कर्म बोओ, आदत काटो
गांधीजी एक छोटे से गांव में पहुँचे तो उनके दर्शनों के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। गांधीजी ने लोगों से पूछा, इन दिनों आप कौन सा अन्न बो रहे हैं और किस अन्न की कटाई कर रहे हैं ?’
भीड़ में से एक वृद्ध व्यक्ति आगे आया और करबद्ध हो बोला, ‘आप तो बड़े ज्ञानी हैं। क्या आप इतना भी नहीं जानते की ज्येष्ठ (जेठ) मास में खेतों में कोई फसल नहीं होती। इन दिनों हम खाली रहते हैं।
गांधीजी ने पूछा, जब फसल बोने व काटने का समय होता है, तब क्या बिलकुल भी समय नहीं होता ?’
वृद्ध बोला, ‘उस समय तो रोटी खाने का भी समय नहीं होता।
गांधीजी बोले, ‘तो इस समय तुम बिल्कुल निठल्ले हो और सिर्फ गप्पें हाँक रहे हो। यदि तुम चाहो तो इस समय भी कुछ बो और काट सकते हो।’
गाँव वाले बोले, कृपा करके आप ही बता दीजिये कि हमें क्या बोना और क्या काटना चाहिए ?’
गांधीजी गंभीरतापूर्वक बोले, ‘‘आप लोग कर्म बोइए और आदत को काटिए, आदत को बोइए और चरित्र को काटिए। चरित्र को बोइए और भाग्य को काटिए। तभी तुम्हारा जीवन सार्थक हो पायेगा।’’
सिक्के का मूल्य
गांधी जी देश भर में भ्रमण कर चरखा संघ के लिए धन इकट्ठा कर रहे थ। अपने दौरे के दौरान वे उड़ीसा में किसी सभा को संबोधित करने पहुंचे। उनके भाषण के बाद एक बूढ़ी गरीब महिला खड़ी हुई, उसके बाल सफेद हो चुके थे, कपडे फटे हुए थे और वह कमर से झुक कर चल रही थी, किसी तरह वह भीड़ से होते हुए गांधी जी के पास तक पहुंची।
”मुझे गांधी जी को देखना है। ” उसने आग्रह किया और उन तक पहुँच कर उनके पैर छुए।
फिर उसने अपने साड़ी के पल्लू में बंधा एक ताम्बे का सिक्का निकाला और गांधी जी के चरणों में रख दिया। गांधी जी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया। उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे। उन्होंने गांधी जी से वो सिक्का माँगा, लेकिन गांधी जी ने उसे देने से मना कर दिया।
”मैं चरखा संघ के लिए हजारों रुपये के चेक संभालता हूँ’’, जमनालाल जी हँसते हुए कहा ”फिर भी आप मुझ पर इस सिक्के को लेके यकीन नहीं कर रहे हैं।’’
”यह ताम्बे का सिक्का उन हजारों से कहीं कीमती है,’’ गांधी जी बोले।
”यदि किसी के पास लाखों हैं और वो हजार-दो हजार दे देता है तो उसे कोई फरक नहीं पड़ता लेकिन ये सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा-पूँजी थी। उसने अपना संसार धन दान दे दिया। कितनी उदारता दिखाई उसने कितना बड़ा बलिदान दिया उसने! इसीलिए इस ताम्बे के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है।’’
सीमा के परे धैर्य से ही समाज नई दिशा, नवजीवन पाता है।
गांधी जी ने विनोबा भावे जी को अपने आश्रम में रहने और साथ-साथ कार्य करने का आमन्त्रण भेजा।
सर्व प्रथम विनोबा जी जब गांधी जी से मिले तो उन्होंने कहा- ‘‘बापू आपकी अहिंसा का आदर्श मेरे भले नहीं उतरता। यह ठीक है कि अहिंसा उन्नति कारक है। हिंसा मुक्त समाज मानवता की उन्नति और उत्कर्ष के लिए आवश्यक है। भविष्य में भले ही इस की उपयोगिता हो किन्तु आज की परिस्थितियों में हिंसा के बिना स्वराज्य सम्भव दिखाई नहीं देता। स्वराज्य मुझे जान से भी प्यारा है इसके लिए मैं किसी भी हिंसा के लिए तत्पर हूँ, त्याग बलिदान के लिए कटिबद्ध हूँ। ऐसी हालत में भी क्या आप मुझे अपने आश्रम में रख सकेंगे?’’
गांधी जी मुसकराते हुए बोले ‘‘जो तुम्हारे विचार हैं वही सारी दुनिया के हैं। तुम्हें आश्रम में न लूँ तो किसे लूँ।’’
‘‘मैं जानता हूँ कि बहुमत तुम्हारा है, किन्तु मैं सुधारक हूँ। आज अल्पमत में हूँ, सुधारक सदैव अल्पमत में ही रहता है। अतः हमें धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सुधारक अगर बहुमत की बात बर्दाश्त न करे तो दुनिया में उसी को बहिष्कृत होकर रहना पड़ेगा। किन्तु सीमा के परे जिनमें धैर्य है ऐसे ही विरले लोग समाज को नई दिशा, नवजीवन प्रदान कर पाते हैं।’’