कुम्भ का शाब्दिक अर्थ है कलश और यहाँ ‘कलश’ का सम्बन्ध अमृत कलश से है। बात उस समय की है जब देवासुर संग्राम के बाद दोनों पक्ष समुद्र मंथन को राजी हुए थे। मथना था समुद्र तो मथनी और नेति भी उसी हिसाब की चाहिए थी। ऐसे में मंदराचल पर्वत मथनी बना और नाग वासुकी उसकी नेति। मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई जिन्हें परस्पर बाँट लिया गया। परन्तु जब धन्वन्तरि ने अमृत कलश देवताओं को दे दिया तो फिर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब भगवान् विष्णु ने स्वयं मोहिनी रूप धारण कर सबको अमृत-पान कराने की बात कही और अमृत कलश का दायित्व इंद्र-पुत्र जयंत को सौंपा। अमृत-कलश को प्राप्त कर जब जयंत दानवों से अमृत की रक्षा हेतु भाग रहा था तभी इसी क्रम में अमृत की बूंदे पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरी- हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज। चूँकि विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चन्द्र, शनि एवं बृहस्पति भी अमृत कलश की रक्षा कर रहे थे और विभिन्न राशियों (सिंह, कुम्भ एवं मेष) में विचरण के कारण ये सभी कुम्भ पर्व के द्योतक बन गये। इस प्रकार ग्रहों एवं राशियों की सहभागिता के कारण कुम्भ पर्व ज्योतिष का पर्व भी बन गया। जयंत को अमृत कलश को स्वर्ग ले जाने में 12 दिन का समय लगा था और माना जाता है कि देवताओं का एक दिन पृथ्वी के एक वर्ष के बराबर होता है। यही कारण है कि कालान्तर में वर्णित स्थानों पर ही ग्रह-राशियों के विशेष संयोग पर 12 वर्षों में कुम्भ मेले का आयोजन होता है।
ज्योतिष गणना के क्रम में कुम्भ का आयोजन चार प्रकार से माना गया है।
1. बृहस्पति के कुम्भ राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर हरिद्वार में गंगा-तट
पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।
2. बृहस्पति के मेष राशि चक्र में प्रविष्ट होने तथा सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में आने पर
प्रयागराज में त्रिवेणी संगम तट पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।
3. बृहस्पति एवं सूर्य के सिंह राशि में प्रविष्ट होने पर नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ पर्व
का आयोजन होता है।
4. बृहस्पति के सिंह राशि में तथा सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने पर उज्जैन में शिप्रा तट
पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।
धार्मिकता एवं ग्रह-दशा के साथ-साथ कुम्भ पर्व को पुनः तत्व मीमांसा की कसौटी पर भी कसा जा सकता है, जिससे कुम्भ की उपयोगिता सिद्ध होती है। कुम्भ पर्व का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह पर्व प्रकृति एवं जीव तत्व में सामंजस्य स्थापित कर उनमें जीवनदायी शक्तियों को समाविष्ट करता है। प्रकृति ही जीवन एवं मृत्यु का आधार है, ऐसे में प्रकृति से सामंजस्य अति-आवश्यक हो जाता है। कहा भी गया है ‘‘यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’’ अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है। इसलिए ब्रह्माण्ड की शक्तियों के साथ पिण्ड (शरीर) कैसे सामंजस्य स्थापित करे, उसे जीवनदायी शक्तियाँ कैसे मिले इसी रहस्य का पर्व है कुम्भ। विभिन्न मतों-अभिमतों-मतान्तरों के व्यावहारिक मंथन का पर्व है कुम्भ, और इस मंथन से निकलने वाला ज्ञान-अमृत ही कुम्भ-पर्व का प्रसाद है।
सामाजिक महत्व
किसी उत्सव के आयोजन में भारी जनसम्पर्क अभियान, प्रोन्नयन गतिविधियां और अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किये जाने की आवश्यकता होती है। जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है, जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है। तथापि करोड़ों तीर्थयात्री इस पवित्र पर्व को मनाने के लिये एकत्र होते हैं। प्राथमिक स्नान कर्म के अतिरिक्त पर्व का सामाजिक पक्ष विभिन्न यज्ञों, वेद मंत्रों का उच्चारण, प्रवचन, नृत्य, भक्ति भाव के गीतों, आध्यात्मिक कथानकों पर आधारित कार्यक्रमों, प्रार्थनाओं, धार्मिक सभाओं के चारों ओर घूमती हैं, जहाँ सिद्धांतों पर वाद-विवाद एवं विमर्श, प्रसिद्ध संतों एवं साधुओं के द्वारा किया जाता है और मानकस्वरूप प्रदान किया जाता ह ै। पव र् का एक महत्वप ूण र् भाग गरीबों एवं वंचितों को अन्न एवं वस्त्र का दान कर्म है और संतों को आध्यात्मिक भाव के साथ गाय एवं स्वर्ण दान किया जाता है। मानव मात्र का कल्याण, सम्पूर्ण विश्व में सभी मानव प्रजातियों के मध्य वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में अच्छा सम्बन्ध बनाये रखने के साथ आदर्श विचारों एवं गूढ़ ज्ञान का आदान प्रदान कुंभ का मूल तत्व और संदेश है जो कुंभ पर्व के दौरान प्रचलित है। कुंभ भारत और विश्व के जन सामान्य को अविस्मरणीय काल तक आध्यात्मिक रूप से एकताबद्ध करता रहा है और भविष्य में ऐसा किया जाना जारी रहेगा।
आध्यात्मिक महत्व
परम्परा कुंभ मेले के मूल को 8वीं शताब्दी के महान दार्शनिक आचार्य शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान संन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की। कुंभ मेला की आधारभूत किवदंती पुराणों (किवदंती एवं श्रुत का संग्रह) को अनुयोजित है-यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरूड़ को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी। सम्बन्धित नदियों के प्रत्येक भूस्थैतिक गतिशीलता पर उस महत्वपूर्ण अमृत में बदल जाने का विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्री गण को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है।
शब्द कुंभ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है। हिन्दू धर्मावलम्बी तीर्थयात्री गण के बीच कुंभ एक सर्वाधिक पवित्र पर्व है। करोड़ों महिलाएँ, पुरूष, आध्यात्मिक साधकगण और पर्यटक आस्था एवं विश्वास की दृष्टि से शामिल होते हैं। यह विद्वानों के लिये शोध का विषय है कि कब कुंभ के बारे में जनश्रुति आरम्भ हुई थी और इसने तीर्थयात्रीगण को आकर्षित करना आरम्भ किया। किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि प्रयाग कुंभ का केन्द्र बिन्दु रहा है और ऐसे विस्तृत पटल पर एक घटना एक दिन में घटित नहीं होती है बल्कि धीरे-धीरे एक कालावधि में विकसित होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य काल निर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन का शासन काल (664 ईसा पूर्व) के प्रति संकेतन करते हैं, जब कुंभ मेला को विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के मध्य व्यापक मान्यता प्राप्त हो गयी थी। प्रसिद्व यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में कुंभ मेले की महानता का उल्लेख किया है। यात्री का उल्लेख राजा हर्षवर्धन की दानवीरता का सार संक्षेपण भी करती है। राजा हर्ष एक महान पंचवर्षीय सम्मेलन का आयोजन करते थे, जहां पवित्र नदियों का संगम होता है और अपनी सम्पत्ति कोष को सभी वर्गो के गरीब एवं धार्मिक लोगों में बाँट देते थे। इस व्यवहार का आचरण उनके पूर्वजों के द्वारा भी किया जाता था।
प्रयागराज में कुम्भ
प्रयागराज में कुम्भ मेले को ज्ञान एवं प्रकाश के श्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वो में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है। शास्त्रीय रूप से ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था।
प्रयागराज कुम्भ 2019 में विशेष स्नान दिवस
मकर संक्रान्ति
एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के संक्रमण को ही
संक्रान्ति कहते हैं । भारतीय ज्योतिष के अनुसार बारह
राशियां मानी गयी हैं- मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह,
कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन।
जनवरी महीने में प्रायः 14 तारीख को जब सूर्य धनु
राशि से (दक्षिणायन) मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायण
होता है तो मकरसंक्रांति मनायी जाती है। लोग व्रत
स्नान के बाद अपनी क्षमता के अनुसार कुछ न कुछ
दान अवश्य करते हैं।
पौष पूर्णिमा
भारतीय पंचांग के पौष मास के शुक्ल पक्ष की 15वीं
तिथि को पौष पूरि्िर्मा कहते हैं। पूरि्िर्मा को ही पूर्ण
चन्द्र निकलता है। कुम्भ मेला की अनौपचारिक शुरूआत
इसी दिवस से चिन्हित की जाती है। इसी दिवस से
कल्पवास का आरम्भ भी इंगित होता है।
मौनी अमावस्या
यह व्यापक मान्यता है कि इस दिन ग्रहों की स्थिति
पवित्र नदी में स्नान के लिए सर्वाधिक अनुकूल होती
है। इसी दिन प्रथम तीर्थांकर ऋषभ देव ने अपनी लंबी
तपस्या का मौन व्रत तोड़ा था और यहीं संगम के पवित्र
जल में स्नान किया था। इस दिवस पर मेला क्षेत्र में
सबसे अधिक भीड़ होती है।
बसंत पंचमी
हिन्दू मिथकों के अनुसार विद्या की देवी सरस्वती के
अवतरण का यह दिवस ऋतु परिवर्तन का संकेत भी
है। कल्पवासी बसंत पंचमी के महत्व को चिन्हित करने
के लिए पीत वस्त्र धारण करते हैं।
माघी पूर्णिमा
यह दिवस गुरू बृहस्पति की पूजा और इस विश्वास कि
हिन्दू देवता, गंधर्व स्वर्ग से पधारे हैं, से जुड़ा है। इस
दिन पवित्र घाटों पर तीर्थयात्रियों की बाढ़ इस विश्वास
के साथ आ जाती है कि वे सशरीर स्वर्ग की यात्रा
कर सकेगें।
महाशिवरात्रि
यह दिवस कल्पवासियों का अन्तिम स्नान पर्व है और
सीधे भगवान शंकर से जुड़ा है। और माता पार्वती
से इस पर्व के सीधे जुड़ाव के नाते कोई भी श्रद्धालु
शिवरात्रि के व्रत ओर संगम स्नान से वंचित नहीं होना
चाहता। कहते हैं कि देवलोक भी इस दिवस का इंतजार
करता हैं
राजेश सैनी