भारतभूमि अनादिकाल से संतों एवं अध्यात्म के दिव्यपुरुषों की भूमि रही है। जब-जब धर्म पर संकट आया है, तब-तब संतों ने अवतार लेकर भक्ति के माध्यम से समाज को सही दिशा दी है। ऐसे ही महान संत थे दादू दयाल। उन्होंने बारह वर्ष तक सहज योग की कठिन साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। भक्ति रस का पान करते हुए वे हर क्षण ईश्वर भक्ति में मग्न रहते थे। वे दया की साकार मूर्ति थे।
सत दादू दयाल जी का जन्म गुजरात प्रांत के कर्णावती (अहमदाबाद) नगर में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, 1601 वि. सं. को हुआ था, पर किसी अज्ञात कारण से इनकी माता ने नवजात शिशु को लकड़ी की एक पेटी में बंद कर साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया था। कहते हैं कि लोदीराम नागर नामक एक ब्राह्मण ने उस पेटी को देखा, तो उसे खोलकर बालक को अपने घर ले आया। बालक में बालसुलभ चंचलता के स्थान पर प्राणिमात्र के लिए करुणा और दया भरी थी। पूर्व में दादूदयाल का नाम महाबलि था, बाद में सब लोग इन्हें दादू दयाल कहने लगे।
विवाहोपरांत इनके घर में दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ। इसके बाद इनका मन घर-गृहस्थी से उचट गया और ये जयपुर के पास रहने लगे। यहां सत्संग और साधु-सेवा में इसका समय बीतने लगा, पर घर वाले इन्हें वापस बुला ले गये। अब दादू जीवनयापन के लिए रुई धुनने लगे। इसी के साथ उनकी भजन साधना भी चलती रहती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। केवल हिंदू ही नहीं, अनेक मुस्लिम भी उनके शिष्य बन गये। यह देखकर एक काजी ने इन्हें दण्ड देना चाहा, पर कुछ समय बाद काजी की ही मृत्यु हो गयी। तबसे सब उन्हें अलौकिक पुरुष मानने लगे। दादू धर्म में व्याप्त पाखण्ड के बहुत विरोधी थे। कबीर की भांति वे भी पण्डितों और मौलवियों को खरी-खरी सुनाते थे। उनका कहना था कि भगवान की प्राप्ति के लिए कपड़े रंगने या घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। वे सबसे निराकार भगवान की पूजा करने तथा सद्गुणों को अपनाने का आग्रह करते थे। आगे चलकर उनके विचारों को लोगों ने ‘दादू पन्थ’ का नाम दे दिया। इनके मुस्लिम अनुयायियों को ‘नागी’ कहा जाता था, जबकि हिन्दुओं में वैष्णव, विरक्त, नागा और साधु नामक चार श्रेणियां थीं। दादू की शिक्षाओं को वाणी कहा जाता है। वे कहते थे-
दादू कोई दौड़े द्वारका, कोई कासी जाह
कोई मथुरा को चले, साहिब घर की माहि ।।
जीव हिंसा का विरोध करते हुए दादू कहते हैं-
कोई काहू जीव की, करै आतमा घात
साँच कहूँ सन्सा नहीं, सो प्राणी दोजख जात ।।
दादू दयाल जी कबीर, नानक और तुलसी जैसे संतों में समकालीन थे। जयपुर से 61 किलोमीटर दूर स्थित ‘नरेगा’ उनका प्रमुख तीर्थ है। यहां इस पंथ के स्वर्णिम और गरिमामय इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। यहां के संग्रहालय में दादू महाराज के साथ-साथ गरीबदास जी की वाणी, इसी पंथ के दूसरे संतों के हस्तलिखित ग्रंथ, चित्रकारी, नक्काशी, रथ, पालकी, बग्घी, हाथियों के हौदे और दादू की खड़ाऊँ आदि संग्रहित हैं। यहां मुख्य उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को होता है। इस अवसर पर लाखों लोग जुटते हैं, जो बिना किसी भेदभाव के एक पंगत में भोजन करते हैं।
भारत भूमि का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने संतों की साधना से आप्लावित रहा है। संतों की गहन तपस्या और साधना के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो तपस्वी एवं साधक शिखर-पुरुषों, ऋषियों और महर्षियों की साक्षी है। ऐसे ही महान संत थे दादू दयाल। वे कबीर, नानक और तुलसी जैसे संतों के समकालीन थे। वे अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक भी थे। भारत की उज्ज्वल गौरवमयी संत परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र संत थे। वे गुरुओं के गुरु थे, उनका फक्कड़पन और पुरुषार्थ, विनय और विवेक, साधना और संतता, समन्वय और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताएं युग-युगों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी। निर्गुण भक्ति के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक, धर्मक्रांति के प्रेरक और परम संत को उनके जन्म दिवस पर न केवल भारतवासी बल्कि सम्पूर्ण मानवता उनके प्रति श्रद्धासुमन समर्पित कर गौरव की अनुभूति कर रही हैं।
सत्व, रज, तम तीनों गुणों को छोड़कर वे त्रिगुणातीत बन गये थे। उन्होंने निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान को चरितार्थ करते हुए सद्भावना और प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया और इस निर्गुणी चदरिया को ओढ़ा है। उन्हें जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमें अतीत और वर्तमान का वियोग नहीं है, योग है। उन्हें जो चेतना प्राप्त हुई, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्हें जो साधना मिली, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही उनका जीवन-धर्म रहा है। वही उनका संतत्व रहा। वे उसे चादर की भाँति ओढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वह बीज की भाँति उनके अंतःस्थल से अंकुरित होता रहा है।
संत दादू समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। उन्होंने भगवान को कहीं बाहर नहीं अपने भीतर ही ढूंढ़ा। स्वयं को ही पग-पग पर परखा और निखारा। स्वयं को भक्त माना और उस परम ब्रह्म परमात्मा का दास कहा। वह अपने और परमात्मा के मिलन को ही सब कुछ मानते। यही कारण है कि उनका जीवन दर्शन इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देता है।
निर्गुण भक्ति के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक और परम संत दादू दयाल इस जगत में साठ वर्ष बिताकर 1660 वि. सं. में अपने परमधाम हो चले गये।
दादू दयाल से संत दादू दयाल बननेका प्रसंग
संत होने से पहले उनकी एक दुकान हुआ करती थी। उसी से उनकी गुजर-बसर होती थी। एक बार ऐसी घटनी हुई कि उनका जीवन ही बदल गया। एक दिन वह जब अपनी दुकान पर बैठे हिसाब कर रहे थे। बाहर बारिश हो रही थी, लेकिन वह हिसाब में इतने लीन थे कि उन्हें इसका पता ही नहीं चला। संयोग से एक साधु आ गए और उनकी दुकान के सामने पानी में भीगते खड़े हो गए। दादू दयाल अपने काम में तल्लीन रहे। जब हिसाब पूरा हो गया तो उन्होंने नजर उठाकर देखी। बारिश में साधु को भीगते देख उन्हें काफी दुख पहुंचा। वे तत्काल उठकर गए और साधु से क्षमा मांगी।
दादु दयाल ने पूछा, महात्मा जी आप यहां कब से खड़े हैं। तब साधु ने कहा, मुझे तो यहां खड़े हुए काफी देर हो गई है। लेकिन, मेरी कोई बात नहीं, तुम्हारे दरवाजे पर एक और खड़ा है।
दादू दयाल ने पूछा, ‘कौन’? ‘ईश्वर’-साधु ने प्रसन्न होकर कहा। वह न जाने कब से खड़ा है और तुम्हें पुकार रहा है। अब भी वह तुम्हारी राह देख रहा है। इतना सुनते ही दादू दयाल का शरीर कांप उठा। उन्होंने अनुभव किया कि साधु जो कह रहे थे, वह सत्य था। सचमुच ईश्वर उनके सामने खड़े हुए थे। और इस तरह से उनके जीवन की धारा बदल गई और वह दादू दयाल से संत दादू दयाल बन गए और लोगों को सत्य की राह पर चलने के लिए प्रेरित करते रहे।
गुरु और शिष्य
एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारण-सा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला, ‘‘क्यों बे, तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहाँ है?’’ वह व्यक्ति दरोगा की बात अनसुनी कर के अपना काम करता रहा। भला दरोगा को यह सब कैसे सहन होता? लोग तो उसके नाम से ही थर-थर काँपते थे उसने आव देखा न ताव लगा गरीब की धुनाई करने। इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए अपना काम करता ही रहा तो दरोगा ने आग बबूला होते हुए उसे एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया।
थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोक कर पूछा, ”क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहाँ रहते है?’’
”उन्हें भला कौन नहीं जानता, वे तो उधर ही रहते हैं जिधर से आप आ रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए ही जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।’’ वह व्यक्ति बोला। संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा नतमस्तक हो गया। दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया उसे देख कर वह लज्जित हो उठा क्यों कि संत दादू वही व्यक्ति थे जिसको दरोगा ने मामूली आदमी समझ कर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगा। बोला, ‘‘महात्मन् मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे अनजाने में अपराध हो गया।’’
दरोगा की बात सुनकर संत दादू हँसते हुए बोले, ‘‘भाई, इसमें बुरा मानने की क्या बात? कोई मिट्टी का एक घड़ा भी खऱ ीदता है तो ठोक बजा कर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे।’’
संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा नतमस्तक हो गया।
संदीप आमेटा