ओडिशा के क्योंझर जिले के एक छोटे से गांव बैतरणी में रहने वाले दैतारी ने शुरू से पानी के भारी संकट के कारण भयानक दुश्वारियां झेलीं। गांव में पीने के पानी की भारी किल्लत थी। यही हाल सिंचाई का था। पूरा परिवार साल भर खेतों में मेहनत करता और सिंचाई के समय बारिश नहीं होने की वजह से फसल तबाह हो जाती।
दैतारी परेशान थे। आखिर क्या किया जाए? गांव वालों से चर्चा की। सबने कहा कि अगर प्रशासन चाहे, तो पहाड़ी रास्ते को काटकर गांव तक नहर लाई जा सकती है। यही एक तरीका है फसलें बचाने का। दैतारी ने गांववालों के संग मिलकर प्रशासन से गुहार लगाई। सरकारी दफ्तरों के खूब चक्कर काटे, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। हर बार वादे किए जाते। कई बार तो अफसरों ने उन्हें डाँटकर लौटा दिया। फिर गाँव वालों ने भी साथ छोड़ दिया। सब निराश थे, अब कुछ नहीं हो सकता। हमें ऐसे ही जीना पड़ेगा।
यह बात वर्ष 2010 की है। दैतारी के मन में बड़ी बेचैनी थी। मन में एक ही बात गूँज रही थी। काश, गांव में नहर आ जाए। ऐसा हुआ, तो फसलें अच्छी होंगी, भरपेट खाना मिलेगा, बच्चे स्कूल जाएंगे और गांव के हालात सुधर जाएंगे। वह दिन-रात इसी धुन में थे। एक दिन उन्होंने अपने भाईयों से कहा- क्यों न हम खुद पहाड़ की कटाई शुरू कर दें? यह सुनते ही घरवालों को हँसी आ गई। वे बोले- दादा, पहाड़ काटना मजाक नहीं है। यह हमारे बस की बात नहीं है। दैतारी कहते हैं- खेती के अलावा हमारे पास जीने का कोई सहारा नहीं था। खेत सूख रहे थे। हमारे पास पहाड़ी काटकर नहर लाने का विकल्प था, पर कोई मेरी मदद को तैयार नहीं था। सब भगवान के भरोसे पर जी रहे थे।
पर दैतारी ठान चुके थे। चाहे जो हो, हालात तो बदलकर ही रहूँगा। जब घर के लोग उनके साथ नहीं आए, तो एक दिन वह अकेले ही निकल पड़े गोनासिका पहाड़ी को तोड़ने। औजार के नाम पर उनके पास खुरपी और कुदाल थे। पहाड़ी पर चढ़कर सबसे पहले उन्होंने बड़ी-बड़ी झाड़ियां साफ कीं। कई दिन लगे इस काम में। इसके बाद उन्होंने चट्टान को तोड़ना शुरू किया। दिन-रात इस काम में जुटे रहे। देर रात थककर घर लौटते और बिना कुछ कहे-सुने सो जाते। अगली सुबह फिर निकल पड़ते काम पर। अजीब सी धुन सवार हो गई थी उन पर। वह हर हाल में नहर का पानी अपने गांव में लाना चाहते थे। इस बीच परिवार ने कई बार रोका उन्हें। खूब समझाया गया। भाईयों ने कहा- अकेले नहीं होगा आपसे। तबियत खराब हो जाएगी। गाँव वालों ने उनकी हँसी उड़ाई। सबको लग रहा था एक दिन हारकर वह यह काम बंद कर देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, दैतारी नहीं रुके। करीब चार महीने तक वह अकेले पत्थर तोड़ते रहे। फिर परिवारवालों से नहीं रहा गया। एक दिन वे भी पहाड़ी पर पहुँच गए। वहाँ का नजारा देखकर वे दंग रह गए। दैतारी ने अकेले दम पर पहाड़ी का काफी हिस्सा तोड़ दिया था। यह देख परिवार को उम्मीद जगी कि अगर सब मिलकर पहाड़ तोड़ें, तो नहर को गाँव तक लाना संभव है। इसके बाद उनके चार भाई और उनके बच्चे चट्टान तोड़ने के काम में जुट गए। सबने फावड़ा-कुदाल उठाया और कहा, हम सब आपकी मदद करेंगे। दैतारी कहते हैं, चार महीने मैं अकेले दम चट्टानें तोड़ता रहा। इसके बाद घर वालों को यकीन हो गया कि नहर निकाली जा सकती है। इसलिए उन्होंने मेरी मदद की।
पूरे परिवार ने करीब चार साल तक कड़ी मेहनत की पहाड़ी तोड़ने में। 2014 में उनका सपना पूरा हुआ। वे गांव तक नहर निकालने में सफल रहे। इसके बाद तो मानो गांव में क्रांति-सी आ गई। नहर के पानी से करीब सौ एकड़ जमीन पर सिंचाई होने लगी। किसान धान, सरसों और मक्का, उगाने लगे। उनके भाई मायाधर नायक कहते हैं- हमें चार साल लगे नहर लाने में। आज गांववालों के चेहरे पर मुस्कराहट देखता हूँ, तो लगता है कि हमारी बड़ी जीत हुई।
गांव में नहर पहुँचने के बाद हर तरफ दैतारी की चर्चा होने लगी। लोग यह कारनामा देखकर दंग थे। दूरदराज के लोग भी यह खबर सुनकर उनके गांव पहुंचे और उनके हौसले की तारीफ की। स्थानीय मीडिया में वह ‘केनाल मैन’ के नाम से मशहूर हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में उनकी तारीफ करते हुए उन्हें सच्चा कर्मयोगी बताया। इस साल उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। दैतारी कहते हैं- यह मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे इतना बड़ा अवाॅर्ड मिलेगा। मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि जब कोई आपकी मदद न करे, तो अकेले ही निकल पड़ो। बाद में सब आपके पीछे आएंगे ही।
डाॅ. अनिल कुमार दशोरा