बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएँ लिखीं। यहाँ की ललनाएँ भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है। प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान ने अपनी कालजयी रचना में रानी लक्ष्मीबाई का अनुपम चरित्र चित्रण किया है-
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
आरंभिक जीवन:
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उसे मनु कहा जाता था। मनु की माँ का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से ‘छबीली’ कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के
साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं।
संघर्षों का प्रारम्भ:
विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की खुशी वो ज्यादा दिन तक न मना सकीं दुर्भाग्यवश शिशु तीन माह का होते होते चल बसा। गंगाधर राव ये आघात सह न सके।सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। गंगाधर की मृत्यु के पश्चात जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ये कैसे सहन कर सकती थीं। उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूँगी।
ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डाॅक्ट्रिन आॅफ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।
झाँसी का युद्ध:
वर्ष 1857 भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण समय था, इस समय भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया।
झाँसी इस संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुह्ढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में बड़े पैमाने पर पुरुषो के साथदृसाथ महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में पूर्ण सहयोग दिया। झलकारी बाई जो रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को सेना में प्रमुख स्थान दिया।
सितम्बर तथा अक्टूबर में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया, परन्तु रानी ने अपने रणनीतिक कौशल से इसे सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। दो हफ्तों की लड़ाई के बाद, ब्रिटिश अफसर ह्यूरोज की अगुवाई में ब्रिटिश सेना ने झाँसी को 23 मार्च 1858 को अपने कब्जे में ले लिया। रानी, दामोदर राव एवं कुछ सहयोगिओं सहित अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयीं और भाग कर कालपी पहुँची और वहाँ वे तात्या टोपे से मिली।
कालपी का युद्ध:
18 जून 1858 को ग्वालियर में फूल बाग के निकट कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की, इस युद्ध में 5000 से ज्याद भारतीय मारे गए। कहा जाता है की रानी जब घायल अवस्था में थीं तो मन्दिर के पुजारी (जहाँ उन्हें शरण मिली थी) से उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज अफसर न छू पाए। तदनुरूप पुजारी एवं वहां के सेवादारों ने शीघ्रता से सम्मान पूर्वक उनका अंतिम संस्कार किया।
चिता की लपटें:
जब अंग्रेज मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज नहीं आ रही थी। सब कुछ शांत था. सबसे पहले राॅड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसा। वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे। एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ एक शव की तलाश थी। तभी उनकी नजर एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं। उन्होंने उसे बुझाने की कोशिश की। परन्तु उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए। रानी की हड्डियाँ करीब करीब राख बन चुकी थीं। रानी की आखिरी इच्छा पूर्ण हुई, कोई अंग्रेज अफसर उन्हें छू न सका।
झाँसी की रानी का यह आत्मोत्सर्ग स्वतंत्रता सेनानियों की आगामी पीढ़ियों के लिए एक प्रकाश स्तम्भ बन गया।
प्रीति शर्मा