गोवा का प्रथम वर्णन हिन्दू धर्म में रामायण काल में मिलता है। पौराणिक लेखों के अनुसार सरस्वती नदी के सूख जाने के कारण उसके किनारे बसे हुए ब्राह्मणों के पुनर्वास के लिये ऋषि परशुराम ने समुद्र में शर संधान किया। ऋषि का सम्मान करते हुए समुद्रर ने उस स्थान को अपने क्षेत्र से मुक्त कर दिया। ये पूरा स्थान कोंकण कहलाया और इसका दक्षिण भाग गोपपुरी कहलाया जो वर्तमान में गोवा है।
इस आलेख में आप से भारत और पुर्तगाल के बीच हुए युद्ध के बारे मे जानकारी साझा की जा रही है जो सन 1961 में गोवा की आजादी के लिए हुआ जिसमें हमारी अदम्य भारतीय सेना ने विजय पताका फहराते हुए गोवा को पुर्तगालियों के 450 साल पुराने कब्जे से मुक्त कराया। ये वही गोवा है जिसे हम हिंदुस्तान और बाहर के लोग भी अपना प्रमुख पर्यटन स्थल मानतें है। इस युद्ध की पृष्ठभूमि में जाने से पहले चलिए संक्षेप में गोवा के इतिहास पर संक्षिप्त नजर डाल लें।
हिंदुस्तान के अन्य हिस्सों की तरह गोवा पर भी कालांतर में मौर्य चालुक्य शाक्य और कदम्ब वंशां ने शासन किया। कदम्ब वंश के बाद मुस्लिम शासन हुआ फिर हिन्दू राजाओं ने गोवा पर अधिकार किया 1469-1471 के बीच ये राज्य ब्राह्मण शासन के अंतर्गत आया।सन 1483-84 में गोवा मुस्लिम शासक युसुफ आदिल खान के अधिकार में आ गया, फिर लगभग 27 वर्ष के मुस्लिम शासन के बाद सन 1510 में पुर्तगाली अलफांसो द अल्बुबर्क ने यहाँ आक्रमण कर अधिकार कर लिया। गोवा पर कब्जे के लिये युसुफ आदिल खान और अलफांसो द अल्बुबर्क की सेनाओ मे कई बार युद्ध हुआ और अंततोगत्वा अलफांसो द अल्बुबर्क का कब्जा गोवा पर हो गया।
आप इसे पुर्तगालियों का एशिया में पहला राजनयिक व सामरिक दिष्ट से महत्वपूर्ण केंद्रीय स्थल भी कह सकते है इसके बाद पुर्तगाल ने गोवा पर अपना कब्जा मजबूत करने के लिये यहाँ नौसेना के अड्डे बनायें। गोवा के विकास के लिये पुर्तगाली शासकों ने प्रचुर धन खर्च किया गोवा का सामरिक महत्त्व देखते हुए इसे एशिया में पुर्तगाल शासित क्षेत्रों की राजधानी बना दिया गया। अंग्रेजों के भारत आगमन तक गोवा एक समृद्ध राज्य बन चुका था तथा पुर्तगालियों ने पूरी तरह गोवा को अपने साम्राज्य का एक हिस्सा बना लिया।
पुर्तगाल में एक कहावत आज भी है की ‘जिसने गोवा देख लिया उसे लिस्बन (पुर्तगाल की वर्तमान राजधानी) देखने की नहीं जरुरत है।’
सन 1900 तक गोवा अपने विकास के चरम पर था उसके बाद के वर्षों में यहाँ हैजा, प्लेग जैसी महामारियां शुरू हुई। जिसने लगभग पूरे गोवा को बर्बाद कर दिया। अनेक हमले भी हुए मगर जैसे तैसे गोवा पर पुर्तगाली कब्जा बरकरार रहा 1809 – 1815 के बीच नेपोलियन ने पुर्तगाल पर कब्जा कर लिया और एंग्लो पुर्तगाली गठबंधन के बाद गोवा स्वतः ही अंग्रेजी अधिकार क्षेत्र में आ गया। 1815 से 1947 (भारत की आजादी) तक गोवा में अंग्रेजां का शासन रहा और पूरे हिंदुस्तान की तरह अंग्रेजों ने वहां के भी संसाधनों का जमकर शोषण किया।
इससे पूर्व गोवा के राष्ट्रवादियों ने 1928 में मुंबई में गोवा कांग्रेस समिति का गठन किया, यह डॉ. टी.बी. चुन्हा की अध्यक्षता में किया गया था। डॉ. टी.बी. चुन्हा को गोवा के राष्ट्रवाद का जनक माना जाता है। बाद के दो दशकों मे कुछ खास नहीं हुआ, सन 1946 में एक प्रमुख भारतीय समाजवादी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, गोवा में पहुंचे उन्होंने नागरिक अधिकारों के हनन के विरोध में गोवा में सभा करने की चेतावनी दे डाली। मगर इस विरोध का दमन करते हुए उनको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
भारत पुर्तगाल युद्ध की नींव भी अंग्रेजों ने डाली। आजादी के समय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने ये मांग रखी कि गोवा को भारत के अधिकार में दे दिया जाए। वहीं पुर्तगाल ने भी गोवा पर अपना दावा ठोक दिया। अंग्रेजां की दोगली नीति व पुर्तगाल के दबाव के कारण गोवा पुर्तगाल को हस्तांतरित कर दिया गया गोवा पर पुर्तगाली कब्जे का तर्क यह था कि गोवा पर पुर्तगाल के अधिकार के समय कोई भारतीय गणराज्य अस्तित्व में नहीं था
गोवा मुक्ति के लिए सन् 1950 तक प्रदर्शन जोर पकड़ चुका था। 1954 में भारत समर्थक गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के सार्थक प्रयास से दादर और नगर हवेली को मुक्त करा लिया गया और भारत समर्थक प्रशासन बना कर क्रांति को और आगे बढ़ाया। ठीक उसी समय भारत ने गोवा जाने पर वीसा का नियम लगा दिया।
15 अगस्त 1955 में गोवा को पुर्तगाल शासन से मुक्त करने के लिये 3000 सत्याग्रहियों ने आन्दोलन शुरू किया गोवा की आजादी की चिंगारी ने दावानल का रूप तब ले लिया जब पुर्तगाली सेनाओं ने निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चला दी और लगभग 30 अहिंसक प्रदर्शनकारी मारे गए। इस घटना ने गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराने के लिए एक नयी उर्जा व परिस्थिति प्रदान कर दी, तनाव बढ़ता देख भारत ने 1955 में पुर्तगाल से सारे राजनयिक सम्बन्ध ख़त्म कर दिए। भारत ने कुछ और प्रतिबन्ध भी लगाये मगर पाकिस्तान ने जन्मजात मक्कारी दिखाते हुए पुर्तगाल का सहयोग कर इन प्रतिबंधों का असर काफी हद तक कम कर दिया।
सन् 1957 में गोवा में अपने भविष्य निर्धारण के लिए जनमत संग्रह की बात रक्खी गयी, जिसे पुर्तगालियों ने नकार दिया, इस तरह अगले पाँच वर्षों तक क्रांति चलती रही। पुर्तगाल ने गोवा से अपना कब्जा नहीं छोड़ा। इस बीच पुर्तगाली प्रधानमंत्री अंटोनियो द ओलिवेरा को ये मालूम हो चुका था की भारत कभी भी गोवा मुक्ति के लिए सैनिक कार्यवाही कर सकता है। उसने सजगता दिखाते हुए ब्राजील इंग्लैंड अमेरिका और मैक्सिको की सरकारों को मध्यस्थता के लिए कहा, बात बनती न देख पुर्तगाल संयुक्त राष्ट्र में भी गया, पर वहाँ भी उसकी दाल नहीं गली। अमेरिका ने अपनी दोगली नीति अपनाए रखी। शुरू में वो भारत के साथ, फिर मध्यस्थ रहा मगर भारतीय सैनिक कार्यवाही की स्थिति में उसने संयुक्त राष्ट्र में भारत का साथ न देने की धमकी दे डाली। मगर अब जनांदोलन को दबाना इन शक्तियों के वश में नहीं था और 1961 में भारतीय सरकार ने पुर्तगाल और दुनिया को स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा की ‘गोवा का पुर्तगाली शासन में रहना अब असंभव हैं।’
पुर्तगाली शासन के ताबूत आखिरी कील में की घटना थी
24 नवम्बर 1961 को घटी जब पुर्तगाली सेनाओं ने भारतीय नौसैनिक जहाज पर हमला कर दिया और दो सैनिकों की मृत्यु हो गयी। भारत के पास भी अब सैनिक कार्यवाही का अच्छा कारण था और जन समर्थन भी।
भारत ने गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त करने के लिए ऑपरेशन विजय शुरू किया। इसकी कमान भारतीय सेना के दक्षिणी कमान को सौंपी गई। जिसमें 1 मराठा लाइट इन्फेण्ट्री 20 वीं राजपूत और 4 मद्रास बटालियन शामिल हुईं। युद्ध में थल सेना की कमान मेजर जनरल के.पी. कैंथ (17 वीं इन्फेंट्री डिविजन) को दी गयी।
11 दिसम्बर 1961 को ही 50 पैरा ब्रिगेड ने ब्रिगेडियर सगत सिंह के नेतृत्व में पंजिम पर हमला कर दिया, दूसरी ओर मर्मागोवा पर 63 ब्रिगेड ने पूर्व से हमला बोला। भारत के पश्चिमी वायु कमान के एयर वाइस मार्शल एलरिक पिंटो को युद्ध में वायु सेना कमांडर के रूप में नियुक्त किया गया था। भारतीय सेना ने चारो ओर से, जल थल एवं वायु सेना की उस समय की आधुनिकतम तैयारियों के साथ दिसम्बर 17-18 की रात में ऑपरेशन विजय के अंतर्गत सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी।
उधर पुर्तागली रक्षा मंत्री ने वहां के प्रधानमंत्री को ये बता दिया कि अब गोवा पर कब्जा रखना नामुमकिन है। इसके बाद भी पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने तत्कालीन गवर्नर को ये सन्देश भेजा ये कहना थोड़ा कठिन है कि युद्ध में आगे बढ़ने का मतलब हमारा सम्पूर्ण बलिदान। लेकिन राष्ट्र की उच्चतम परंपराओं को बनाए रखने के लिए और राष्ट्र के भविष्य व सेवा के लिए बलिदान ही एकमात्र रास्ता है। पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने आगे कहा की मुझे नहीं लगता की पुर्तगाली सैनिकों और नाविकों पर कोई विजय प्राप्त कर सकता है,वो या तो विजयी होंगे या खून के आखिरी कतरे तक लड़ेंगे। इसके साथ ही उनके लिए एक आदेश आया की संघर्ष विराम या संधि का कोई प्रस्ताव नहीं माना जाएगा आखिरी पुर्तगाली सैनिक के जीवित रहने तक युद्ध जारी रहेगा।
वहीं पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने तत्कालीन गवर्नर से ये भी कहा की युद्ध 7-8 दिनों तक खीच लो तब तक पुर्तगाल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से दबाव डलवाकर भारत को रोक देगा।
पुर्तगाली सेना की गोवा में लगभग 4000 प्रशिक्षित और 2000 अर्धप्रशिक्षित या सामान्य सैनिकों की क्षमता थी । पुर्तगाल से कुछ गोला बारूद 17 दिसम्बर को वायु सेना द्वारा भेजने की योजना बाकी देशों के असहयोग के कारण पुर्तगाल को स्थगित करनी पड़ी क्योंकि पुर्तगाली सैन्य विमान को किसी भी देश ने उतरने और ईंधन भरने की अनुमति नहीं दी।
हालाँकि खाने की आपूर्ति करने वाले विमान के साथ पुर्तगाल ने कुछ गोला बारूद व ग्रेनेड गोवा में भेज दिया था। गोवा में पुर्तगाल के 2-3 असैनिक विमान व 2-3 एंटी एयर क्राफ्ट गन थे। युद्ध की स्थिति में पुर्तगाली प्रधानमंत्री ने गोवा में पुर्तगाल के सभी गैर सैनिक विरासतों को नष्ट करने का आदेश दे दिया, जिसे बाद में पुर्तगाली गवर्नर मैनुएल वसेलो ई सिल्वा ने ये कहते हुए नकार दिया की ‘मैं पूरब में अपनी महानता के सबूत नष्ट नहीं कर सकता।’
युद्ध के 10 दिन पहले ही गोवा में पुर्तगाली परिवार लिस्बन जाने को बेताब थे।पुर्तगाली सरकार ने किसी भी यात्री को लिस्बन जाने वाले पोत में जाने से मना किया लेकिन गवर्नर मैनुएल वसेलो ई सिल्वा ने लगभग 750 लोगों को संभावित खतरे को देखते हुए पुर्तगाल भेज दिया
18 दिसम्बर को दीव में विंग कमांडर मिकी ब्लेक ने हमला किया और दीव में पुर्तगाली सेना के मुख्य स्थलों को तबाह कर दिया, वहां का रनवे भी नष्ट कर दिया। कुछ नौकाएं पुर्तगाली गोला बारूद लेकर दीव से भागने का प्रयास कर रही थी, उन्हें वो भारतीय वायु सेना ने नष्ट कर दिया, बाद में पूरे दिन भारतीय सेना के वायुयान आकाश में मंडराते रहे और थल सैनिकों को आवश्यक सहयोग देते रहे। 18 दिसम्बर को भारतीय वायु सेना ने गोवा में भी धावा बोला और विंग कमांडर एन बी मेमन एवं विंग कमांडर सुरिंदर सिंह ने (अलग अलग) गोवा के डाबोलिम हवाई अड्डे पर भीषण बम वर्षा कर के उसके रनवे को बर्बाद कर डाला।
बाम्बोलिन हवाई अड्डे का वायरलेस केंद्र भी हवाई हमले में ध्वस्त हो गया। वहीँ गोवा के दो विमान काफी नीची उड़ान भरते हुए रात को पाकिस्तान भाग गए। अब तक भारतीय वायु सेना का गोवा के पूरे आकाश पर कब्जा हो चुका था। भारतीय जल थल और वायु सेना के चौतरफा हमलों से पुर्तगाली देना की कमर टूट गयी। 2 सिख लाइट इन्फैंट्री ने सेना 19 दिसम्बर 1961 की सुबह पणजी के सचिवालय भवन पर तिरंगा फहरा दिया।
अंततोगत्वा पुर्तगालियों ने घुटने टेकते हुए वास्को के एक सेना शिविर में आत्मसमर्पण कर दिया। पुर्तगाली गवर्नर मैनुएल वसेलो ई सिल्वा ने पुर्तगाल की तरफ से दस्तावेजों पर दस्तखत किये और भारत की तरफ से पुर्तगालियों के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने वाले दस्तावेजों पर ब्रिगेडियर एस एस ढिल्लों ने दस्तखत किये।
ऑपरेशन विजय में भारत के 35 जवान शहीद हुए और 55 घायल जिसमें अगुड़ा किले पर कब्जा करते हुए मेजर एस. एस संधू भी शामिल थे। मेजर एस एस संधू वो सबसे उच्च पद के अधिकारी थे जो इस युद्ध में शहीद हुए, उधर पुर्तगाली सेना के कई सैनिक हताहत व घायल हुए। ऑपरेशन विजय 40 घंटे का था, भारतीय सेना के इस 40 घंटे के युद्ध ने गोवा पर 450 साल से चले आ रहे पुर्तगाली शासन का अंत किया और गोवा भारतीय गणतंत्र का एक अंग बना। बाद में सन 1962 में वहां चुनाव हुए और 20 दिसम्बर 1962 को श्री दयानंद भंडारकर गोवा के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने। गोवा के महाराष्ट्र में विलय की भी बात चली क्योंकि गोवा महाराष्ट्र के पड़ोस में था। 1967 में जनमत संग्रह हुआ और गोवा के लोगों ने केंद्र शासित प्रदेश के रूप में रहना पसंद किया। कालांतर में 30 मई 1987 को गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और गोवा भारतीय गणराज्य का 25वाँ राज्य बना।
संकलनः राजेश सैनी