श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जन्म गौरव पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, जिन्हें अपने स्वर्णिम चमक के कारण गौरांग के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने नादिया, बंगाल की भूमि में भगवान कृष्ण के लिए अभूतपूर्व प्रेम से भरी दिव्य नामों के जप के साथ इस युग के लोगों को आशीर्वाद देने के लिए अवतार लिया। श्री चैतन्य महाप्रभु ने यत्र तत्र सर्वत्र घूम घूमकर भगवान कृष्ण के संदेश को फैलाया।
चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत् 1542 विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था। पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शचीदेवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ।
माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरुष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे ‘निमाई’ कहते।
एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, ‘‘बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज उठा लो।’’ बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवान का बड़ा भक्त होगा।
एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो- न- हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है।
बचपन में निमाई का पढ़ने- लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वे नेता थे। उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेद बहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे। एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीधा दिया। ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा। उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया। मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये। और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने फिर उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।
ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, ‘‘तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।’’ ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।’’
विष्णु भगवान ने कहा, ‘‘ऐसा ही होगा।’’ ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया। जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहती, ‘‘निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।’’ निमाई हँसकर कहते, ‘‘हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।’’
निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे। विश्वरूप की उम्र इस समय 26-27 साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचीदेवी के दुःख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे। निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्रजी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुले थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते। इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्रजी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे। घर पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने – आपको तो सम्भाला ही, मां को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते। व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें ‘निमाई पंडित’ कहने लगे।
निमाई के एक मित्र थे पं. रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वे उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, ‘‘सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो! ‘‘हँसते हुए निमाई ने कहा, ‘‘अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।’’ ‘‘फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।’’ रघुनाथ ने जोर देकर कहा। ‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।’’
दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये। निमाई ने हैरानी से पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?’’
उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम ओर फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहने लगी।
कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वे बहुत दुखी हुए। इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और माता की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते। अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दुःख भूल-सा गये।
गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आने वालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वरपुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, ‘स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायेगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।’ संन्यासी ने सरलता से कहा, ‘आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!’
निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, ‘अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।’ होश आने पर अपने साथियों से बोले, ‘भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दावन जाते हैं।’
पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, ‘वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों से अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।’ गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी। गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते। धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्तन होता। निमाई कीर्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।
हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे।
हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे ।।
यह सोलह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था।जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे। बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे।
निमाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने कई मुसलमानों को कृष्ण बना लिया है। यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्तन नहीं होगा। भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोले, ‘घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।’ इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी मकानों को सजाया।
निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्तन करते चले। ‘हरिबोल! हरिबोल!’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जुलूस कीर्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झुके जा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, ‘काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।’ लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे। निमाई पंडित कीर्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, ‘काजी का बुरा करने वाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूँ, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।
काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, ‘काजी साहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।’ गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।
निमाई पंडित ने प्यार से कहा, ‘मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!’ काजी ने कहा, ‘मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था।’ मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों से तुम्हारा कीर्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्तन में रुकावट डालने का मुझे दुःख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।’’
इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करने वालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी को बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे। बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े। घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।
केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, ‘अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।’ निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, ‘गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।’’
केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, ‘अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।’ निमाई ने कहा, ‘गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।’ निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रहा है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता। तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त किया, नाई ने उनके केश काटे। पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे। कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे, किन्तु चैतन्यप्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी।
एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये। साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे।
एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, ‘देवी, इस संन्यासी के लिए क्या आज्ञा है?’ विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, ‘महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।’ चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली। चैतन्य कहलाने लगे। कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे, किन्तु चैतन्यप्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी। नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा।
अपने समय में सम्भवतः इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गए। चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और कहते हैं कि वे जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे। वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहने के उपरान्त रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।
प्रतिमा सामर