राजा जनक बहुत ज्ञानी थे परन्तु उनका ज्ञान किसी गुरू से प्राप्त नहीं था। उनकी किसी को गुरु बनाकर ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हुई। कई दिनों तक विचार करने के बाद एक उपाय सूझा।
उनका राज-काज प्रभावित न हो, सच्चे ज्ञानी ही उनके पास आ सकें, इसलिए उन्होंने पूरे नगर में घोषणा करवा दी कि जो कोई मुझे अभी तक प्राप्त न हुआ ‘ज्ञान’ का उपदेश देगा, उसे इच्छानुसार धन प्रदान किया जाएगा परन्तु यदि वह ज्ञान का उपदेश देने में समर्थ न हो पायेगा उसे जेल में बंद कर दिया जाएगा।
राजा जनक की घोषणा को सुन-सुनकर बहुत सारे तथाकथित ज्ञानी सभा में पहुंचे, परंतु जनक को ‘समुचित ज्ञान’ का उपदेश न कर सके और उनको बंदीगृह में जाना पड़ा।
अष्टावक्र के पिता भी अपने ज्ञान के अहंकार और धन के लोभ में राजा जनक की सभा में पहुंच गये। वे राजा के अनुसार ज्ञान प्रदान न कर सके और उन्हें भी जेल में जाना पड़ा।
समाचार पाते ही पिता को जेल से छुड़ाने के लिए अष्टावक्र जनक के राजदरबार पहुंच गये। अष्टावक्र के अंग टेढे-मेढ़े थे जिससे की वह बहुत कुरूप दिखते थे।
उस समय राजा जनक स्वयं भी सभा में विराजमान थे। अष्टावक्र के शरीर को देखकर राजदरबारियों और सभा में मौजूद ज्ञानियों को हँसी आ गयी। सबकी हंसी से सभा में ठहाके की आवाज गूंज गयी।
ऋषिकुमार अष्टावक्र इस प्रकार के अनुचित व्यवहार से विचलित नहीं हुए। उन्होंने दरबारियों की हँसी का उत्तर और अधिक ठहाके की हँसी से दिया।
अष्टावक्र के इस प्रकार से हँसते हुए देखकर राजा जनक को बहुत आश्चर्य हुआ।
राजा ने ऋषिकुमार से पूछा- ‘महाराज! आप क्यों हँस रहे हैं?’
अष्टावक्र ने प्रत्युत्तर में पूछा-‘आप लोग मुझे देखते ही क्यों हँसे थे?’
राजा जनक ने कहा-‘आपके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर हम लोगों को अनायास ही हँसी आ गयी।’
ऋषिकुमार ने अपनी हँसी का कारण बताया- ‘मुझे भी आप लोगों के सुन्दर शरीर के भीतर कितनी गंदगी भरी पड़ी है, उसे देखकर इतनी जोर की हँसी आ गई। भला, मिथिला-नरेश, जिनकी सभा में ज्ञान की चर्चा होती है, ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिन नरेश ने डंका पिटवाया है, उनके दरबारी तथा स्वयं वे भी शरीर के रूप-रंग और बनावट के प्रेमी हैं। उनके यहाँ ‘ज्ञान’ की नहीं, नश्वर शरीर की महत्ता है। जहां ज्ञान की चर्चा के लिए सभा जुटी हो, वहां ईश्वर द्वारा प्रदान शरीर की बनावट देखकर ‘हँसना’ मानव की ‘मानवता’ नहीं, ‘दुर्बलता’ कही जायेगी, मुझे तो यह विद्वानों की नहीं अपितु चमड़ी का मूल्यांकन करने वाले चर्मकारों की सभा लगती है।’
राजा जनक के यहाँ ज्ञान नहीं, नश्वर शरीर के रूप-रंग, बनावट की महत्ता है-यह वाक्य जनक को बेचैन कर गया। सभी दरबारियों ने लज्जा के कारण शीश झुका दिया।
सजल सामर