ध्यान अपने में गहरी आध्यात्मिक प्रक्रिया है। ध्यान की अनेकानेक विधियाँ प्रचालन में हैं। पर उसका सार यही है कि हम अपने विचारों और भावनाओं को श्रेष्ठता- महानता और व्यापकता में एकाग्र करना सीखे। ध्यान का यह रूप हमारे जीवन में भले न हो, पर कोई न कोई रूप तो है ही। और जैसा यह रूप है, वैसा ही हमारा जीवन है। हमारे विचार और भावनाएँ प्रतिपल- प्रतिक्षण कहीं न कहीं तो एकाग्र होती हैं। यह बात अलग है कि यह एकाग्रता कभी द्वेष के प्रति होती है, कभी बैर के प्रति, कभी हम ईर्ष्या के प्रति एकाग्र होते हैं तो कभी लोभ- लालच के प्रति। यही नकारात्मक भाव, यही क्षुद्रताएँ हमारे ध्यान का विषय बनती हैं और जैसा हमारा ध्यान वैसे ही हम बनते चले जाते हैं। कहीं हम अपने गहरे में इसे अनुभव करें तो यही पाएँगे कि ध्यान के इन नकारात्मक रूपों ने ही हमें रोगी व विषादग्रस्त बनाया। पल- पल भटकते हुए निषेधात्मक ध्यान के कारण ही हमारी यह दशा हुई है। इसकी चिकित्सा भी ध्यान ही है- सकारात्मक व विधेयात्मक ध्यान।
ध्यान जिसका भी हम करते हैं, वह हमारे ईष्ट, आराध्य हो अथवा सद्गुरु या फिर कोई पवित्र विचार या भाव। उसके प्रति प्यार भरे अपनेपन से सोचें- याद करें। नियमित उसके लिए अपनी याद को प्रगाढ़ करें। यहाँ तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा व प्रेम का रूप ले ले। फिर इस प्रेम से परिपूर्ण छवि को अपने शरीर के उच्चस्तरीय केन्द्रों यथा अनाहत चक्र, हृदय स्थान अथवा आज्ञा चक्र- मस्तक पर दोनों भौहों के बीच स्थापित करें। अब देखिए हमारी भावनाएँ एवं विचार स्वतः ही उस ओर मुड़ चलेंगे। प्रेम से पुलकित मन स्वतः ही उस ध्यान में डूबने लगेगा। और अपने आप ही व्यक्तित्व में सकारात्मक विचारों व भावनाओं की सघनता सधने लगेगी। सकारात्मक भावों व विचारों का यह सघन रूप औषधि की भाँति है, जिसका नियमित निरन्तर सेवन व्यक्तित्व को सब भाँति विकारों व विषादों से मुक्त कर देगा।
‘स्व-तंत्र’ का मतलब है हम पर हमारा ही शासन। ‘इन-डिपेंडेंस’ का भी मतलब है निर्भरता से मुक्ति। एक व्यक्ति के तौर पर हमारा खुद पर नियंत्रण हो और हम दूसरों के मोहताज न हों, यही तो स्वतंत्रता है, आजादी है। आजादी का सीधा तात्पर्य है हमारी जिंदगी से जुड़े सभी निर्णय लेने और विकल्प चुनने की पूरी आजादी।
बाहरी दुनिया भांति- भांति के लोगों के संगम से बनी है। अलग-अलग लोग और आजादी को लेकर सबकी अलग-अलग धारणाएँ व सोच। हर कोई अपने ढंग से आजादी की व्याख्या करता है, आजादी को परिभाषित करता है। एक इंसान के तौर पर हमें हमारे समाज को बेहतर बनाने के लिये प्रयासरत होना चाहिये। व्यवस्था को तो बहुत कोस लिया हमने, अब वक्त है कि जागरुक होकर हम समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझें।
इसके अलावा जब बात आजादी कि हो रही है तो कुछ बातों को समझना बहुत जरुरी हो जाता है … स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में बहुत अंतर होता है। आजाद होकर किसी कार्य को अंजाम देने पर हमें अधिकार प्राप्त होता है इसके विपरीत स्वच्छंदता से कार्य करने पर हमसे अधिकार छीन लिया जाता है। स्वतंत्रता का आधार नियम व अनुशासन में रहना है। आत्म अनुशासन का पालन करते हुए खुद अपनी स्वतंत्रता की सीमाएं निर्धारित करें, तभी व्यक्ति के साथ देश व समाज का भी विकास संभव होगा।
याद रखिये,
‘‘सुधारेंगे खुद को तो सुधरेगा तंत्र,
देश में बदलाव का बस यही है मंत्र’’
हम यदि सच में आजादी की एहमियत समझतें हैं तो स्वयं के भीतर भगत सिंह, रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चंद्र बोस, वीर शिवाजी को ढूंढने का प्रयास करें न कि पड़ोसी के घर इनके पुनर्जन्म की दुआ।
कर्तव्यपथ पर स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व साथ-साथ चलते हैं। पूर्ण स्वतंत्रता वांछनीय नहीं है। स्वतंत्रता और दायित्व में तालमेल होना चाहिये। स्वतंत्रता के मायने तब और ज्यादा प्रबल हो जाते हैं जब व्यक्ति सम्पूर्ण ईमानदारी, जिम्मेदारी, समझदारी और दुनियादारी का बोध करते हुए स्वतंत्रता का सही इस्तेमाल करता है। स्वतंत्रता के साथ-साथ जरूरी है अपने भीतर स्व-अनुशासन का भाव लाया जाए, ताकि सत्य के दायरे में सिमट कर उत्तरदायित्व का समग्र निर्वहन हो सके।