देवर्षि नारद दुनिया के प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता हैं क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के आदान-प्रदान द्वारा पत्रकारिता का प्रारंभ किया। देवर्षि नारद इधर और उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद का सेतु स्थापित करने के लिए संवाददाता का कार्य करते हैं। इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरुष, पुरोधा पुरुष या पितृ पुरुष हैं।
रतीय परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ मास में नारद जयंती मनाई जाती है। इस बार नारद जयंती का पर्व 19 मई, रविवार को है। नारद मुनि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन्नाम जप (महती) के नाम से विख्यात है। उससे नारायण-नारायण की ध्वनि निकलती रहती है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं, इन्हें अजर-अमर माना जाता है।
लोक कल्याण के लिए तत्पर
भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही नारद जी हमेशा तत्पर रहते हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। पौराणिक कथाओं में नारद जी को सूचना तंत्र व उनके विश्लेषण का जनक माना जाता है और हर कथाओं में उनकी जानकारी व मौखिक प्रकाशन का वर्णन मिलता है। जहां उनकी खबर की सूचनाओं का संग्रहण प्रस्तुतीकरण विश्लेषण व निर्वचन तथा उनके आधार पर सर्वत्र पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी मिलती है। तब सूचना तंत्र के जरिए ही कुव्यवस्था को सुव्यवस्था में बदला गया और जनमानस को परेशानियों से मुक्ति मिली। उनके मौखिक प्रकाशनों ने ना केवल देवों के गुण गाए वरन दैत्यों के कर्मठ चरित्रों की भी खुले मन से प्रशंसा की। नारद जी की कथाओं का सार यही निकल कर आता है कि जन हित के लिए कलम एक भारी शस्त्र का काम कर देश व दुनिया को प्रतिकूलता से बाहर निकाल कर अनुकूलता की ओर ले जाती।
देवर्षि नारद व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सके हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, धु्रव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत गीता के दशम अध्याय में कहते हैं-
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ।। (10/26)
अर्थात् समस्त वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देवर्षियों में अर्थात् जो देव होकर मन्त्रों के द्रष्टा होने के कारण ऋषि भाव को प्राप्त हुए हैं उनमें मैं नारद हूँ। गन्धर्वों में मैं चित्र रथ नामक गन्धर्व हूँ। सिद्धों में अर्थात् जन्म से ही अतिशय धर्म ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य को प्राप्त हुए पुरुषों में मैं कपिल मुनि हूँ।
व्यक्तित्व
नारद, श्रुति – स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष, योग आदि अनेक शास्त्रों में पारंगत थे। नारद आत्मज्ञानी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, त्रिकाल ज्ञानी, वीणा द्वारा निरंतर प्रभु भक्ति के प्रचारक, दक्ष, मेधावी, निर्भय, विनयशील, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, स्थितप्रज्ञ, तपस्वी, चारों पुरुषार्थ के ज्ञाता, परमयोगी, सूर्य के समान, त्रिलोकी पर्यटक, वायु के समान सभी युगों, समाजों और लोकों में विचरण करने वाले, वश में किये हुए मन वाले नीतिज्ञ, अप्रमादी, आनंदरत, कवि, प्राणियों पर निःस्वार्थ प्रीति रखने वाले, देव, मनुष्य, राक्षस सभी लोकों में सम्मान पाने वाले देवता तथापि ऋषित्व प्राप्त देवर्षि थे।
एक बार नारद को कामदेव पर विजय प्राप्त करने का गर्व हुआ। उनके इस गर्व का खण्डन करने के लिए भगवान ने उनका मुँह बन्दर जैसा बना दिया। नारद का स्वभाव ‘कलहप्रिय’ कहा गया है। व्यवहार में खटपटी व्यक्ति को, एक दूसरे के बीच झगड़ा लगाने वाले व्यक्ति को हम नारद कहते हैं। परंतु नारद कलहप्रिय नहीं वरन वृतांतों का यथावत वहन करने वाले एक विचारक थे। वे आद्य पत्रकार थे।
विष्णु के अनन्य भक्त
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं। हिन्दू संस्कृति के दो अमूल्य ग्रंथ रामायण और भागवत के प्रेरक नारद का जन्म लोगों को सन्मार्ग पर मोड़ कर भक्ति के मार्ग पर खींचकर, विश्वकल्याण के लिए हुआ था।
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैः भगवानेव भजनीयः।
अर्थात् सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।
नारद रचित ग्रंथ
नारद पांचरात्र
नारद के भक्तिसूत्र
नारद महापुराण
बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ)
नारद-परिव्राज कोपनिषद
नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं।
पत्रकारिता, पाखंड की पीठ पर चुनौती का चाबुक है और देवर्षि नारद इधर-उधर घूमते हुए जो पाखंड देखते हैं उसे खंड-खंड करने के लिए ही तो लोकमंगल की दृष्टि से संवाद करते हैं। उनके (इधर-उधर) संवाद करने से जब राम का रावण से या कृष्ण का कंस से दंगल होता है तभी तो लोक का मंगल होता है। अतः देवर्षि नारद दिव्य पत्रकार के रूप में लोकमंडल के संवाददाता हैं।
राजेश सैनी