महान संत ज्ञानेश्वर जी ने विन्ध्याचल के दक्षिण में फैले समाज में भ्रमण कर लोगों को ज्ञान भक्ति से परिचित कराया एवं समता, समभाव का उपदेश दिया। 13वीं सदी के महान संत होने के साथ-साथ वे भारतीय संस्कृति के आद्य प्रवर्तकों में से भी एक माने जाते हैं। ब्रह्म साम्राज्य चक्रवर्ती, मति गुंठित करने वाली अलौकिक काव्य प्रतिभासंपन्न रससिद्ध महाकवि, महान तत्वज्ञ, श्रेष्ठ संत, सकल विश्व के कल्याण की चिंता करने वाले भूतदयावादी परमेश्वरभक्त, पूर्ण ज्ञान के मूर्तिमंत प्रतीक, श्रीविठ्ठल के प्राणसखा – जैसे शब्दो में संत ज्ञानेश्वर का वर्णन किया जाता है। परंतु ऐसा लगता है कि उनका परिपूर्ण वर्णन करने के लिए शब्द संग्रह भी अपूर्ण है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के संरक्षक अध्यात्म ज्ञान के मार्तण्ड युग पुरुष संत ज्ञानेश्वर जी की ज्ञान रश्मियों से आज भी पददलित समाज अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहा है। आपके सन्देश से समाज मे समन्वय और भाईचारे का भाव संचालित हो रहा है।
संत ज्ञानेश्वर का जन्म १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में पैठण के पास आपे गाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम वि_ल पंत एवं माता का नाम रुकमनी बाई था। इस धर्मभीरु दम्पति ने चार संतानें उत्पन्न कीं और चारों संतानें परमयोगी हुईं। तीन भाई और एक बहन। सबसे छोटी मुक्ता, सोपान, ज्ञानेश्वर और सबसे बड़े निवृ8िानाथ। ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों को कोई पाठशाला में भर्ती करने को तैयार नहीं था, क्योंकि उनके पिता संन्यासी होने के बाद वापस गृहस्थ हो गए थे।
कश्टमय बल्य जीवन
पिता ने पंडितों से प्रार्थना की, ‘मेरे बच्चों को ज्ञान दिया जाए।’ गुरुकुल के मुख्य आचार्य ने कहा, ‘अगर आप प्रायश्चित के तौर पर जल-समाधि ले लें, तभी हम बच्चों को पढ़ाएंगे।’ बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो सके, इसलिए माता-पिता दोनों ने नदी में उतर कर जल-समाधि ले ली। उस समय बच्चे बहुत छोटे थे। सबसे बड़े भाई निव्रतिनाथ ११ साल के थे। तीन भाई और एक बहन। इन चार अनाथ बच्चों ने अपने दिवंगत माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए फिर से गुरुकुल में जाकर प्रार्थना की- ‘हमें शिक्षा दीजिए।’ पर उस समय के क्रूर, निष्ठुर आचार्यों ने उन्हें बेइज्जत करके निकाल दिया। वे बोले, ‘तुम संन्यासी के बच्चे हो, इसलिए हम तुम्हे गुरुकुल में नहीं लेंगे।’ उस पर बालक ज्ञानेश्वर ने कहा, ‘आप मनुष्य होकर दूसरे मनुष्य को नीचा क्यों समझते हैं? हर प्राणी में एक ही परमात्मा वास करता है।’
कहते हैं कि उसी समय एक किसान वहां से अपने भैंसे को ले जा रहा था। उसने अपने भैंसे का नाम ‘ज्ञानू’ रखा था। यह देख कर एक आचार्य ने ज्ञानेश्वर को कहा, ‘क्या उस ज्ञानू में और तुममें कोई भेद नहीं?’ ज्ञानेश्वर ने कहा, ‘बिलकुल नहीं। उसका शरीर भी पंचतत्व का है, मेरा भी शरीर पंचतत्व का है। उसके अंदर वही चेतना है, जो मेरे अंदर है। उसके अंदर भी ब्रह्म है, मेरे अंदर भी ब्रह्म है। इसलिए हम दोनों में कोई भेद नहीं।’
निरहंकारी ज्ञानेष्वर
योगी चांगदेव को ब्रह्मविद्या के अपने ज्ञान पर अहंकार हो गया। वे संत ज्ञानेश्वर को नीचा दिखाना चाहते थे, इसलिए हाथ में विषधर सर्प लेकर वे सिंह पर सवार हो गए और महाराष्ट्र के एक गांव आलंदी, जहां ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहन के साथ रहते थे, उनसे मिलने के लिए चल पड़े।
चांगदेव के आलंदी के समीप आते ही गांव में हलचल मच गई। कुछ लोग ज्ञानेश्वर के पास दौड़े हुए आए और उन्हें चांगदेव के सिंह पर सवार होकर हाथ में सर्प का चाबुक लेकर आने की बात बताई। उस समय ज्ञानेश्वर अपनी टूटी झोपड़ी की दीवार पर बैठे हुए थे। जब बहन मुक्ताबाई ने चांगदेव को सम्मान से लाने के लिए उचित व्यवस्था करने को कहा, तो कहते हैं कि ज्ञानेश्वर ने अपने योग-बल से झोपड़ी की दीवार को वाहन का स्वरूप प्रदान कर दिया। सभी भाई-बहन उस पर सवार होकर चांगदेव को लाने के लिए निकल पड़े। जब चांगदेव ने संत ज्ञानेश्वर का अहंकार रहित यौगिक बल देखा, तो उनकी समझ में आ गया कि चमत्कार साधना नहीं है, बल्कि इससे अहंकार जागता है। साधना तो अहंकार को विनष्ट कर देती है। सबसे बड़ा चमत्कार तो अंतर्मन में घटित होता है। उन्होंने ज्ञानेश्वर को साष्टांग प्रणाम किया और शिष्यत्व प्रदान करने की विनती करने लगे।
इस तरह के कई चमत्कार उनके जीवन में घटित हुए, परन्तु योगी, ब्रह्मज्ञानी, परमभक्त ज्ञानेश्वर इन चमत्कारों की वजह से नहीं जाने जाते। समाज-मानस में भरे हुए अज्ञान, तथाकथित पंडितों द्वारा फैलाए गए पाखंड और भेदभाव की वृति, इनमें गरीब और भीरु समाज पीसा जा रहा था। योगेश्वर श्रीकृष्ण की कही गीता और अन्य वेदांत ग्रंथों पर पंडित लोग कुंडली मार कर बैठे हुए थे, इसलिए भगवद्गीता जैसी वेदांत ज्ञान की सरिता को ज्ञानेश्वर महाराज ने गुरु की आज्ञा से मराठी में ‘ज्ञानेश्वरी’ के रूप में अवतरित किया। इस ग्रंथ की महिमा का वर्णन करते हुए संत एकनाथ महाराज ने कहा है, ‘ज्ञानेश्वरी ग्रंथ परम गहन है, परन्तु गुरुपुत्र (ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य) के लिए यह सुगम सोपान (सीढ़ी) की तरह है। भावपूर्वक इसका श्रवण और मनन करने वाला अखंड समाधान को प्राप्त होता है।’ चांगदेव जैसे परमयोगी के अहंकार को नष्ट कर उसे भक्तिमार्ग पर चलाने वाले योगीराज ज्ञानेश्वर ने ‘अमृतानुभव’ नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की।
ज्ञानेष्वरी :-
तेजस्वी बालक ज्ञानेश्वर ने केवल १५ वर्ष की उम्र में ही गीता पर मराठी में ‘ज्ञानेश्वरी’ नामक भाष्य की रचना करके गीता को आम लोगों के लिए सुलभ बना दिया। ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम ओवीबद्ध टीका है। वस्तुत: यह काव्यमय प्रवचन है जिसे ज्ञानेश्वर ने अपने गुरु निवृ8िानाथ के निदर्शन में अन्य संतों के समक्ष किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की १००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है।
यह भाष्य अथवा टीका ज्ञानेश्वर जी की स्वतंत्र बुद्धि की देन है। मूल गीता की अध्यायसंगति और श्लोकसंगति के विषय में भी कवि की स्वयंप्रज्ञा अनेक स्थलों पर प्रकट हुई है। प्रारंभिक अध्यायों की टीका संक्षिप्त है परंतु क्रमश: ज्ञानेश्वर जी की प्रतिभा प्रस्फुटित होती गई है। गुरुभक्ति, श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा का अभिमान, गीता का स्तवन, श्रीकृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष रूप से मुग्ध कर लिया है। इनका विवेचन करते समय ज्ञानेश्वर की वाणी वस्तुत: अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हो गई है।
उनके द्वारा रचे गए ग्रंथों की भाषा अति मधुर, अति रसपूर्ण है। उन्होंने हजारों अभंग (भजन) रचे, जिनमें ज्ञान, वैराग्य, गुरुप्रेम, ईश्वर अनुराग, विरह इत्यादि के बारे में उनकी श्रेष्ठ भावदशा का दर्शन होता है। संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित ‘हरिपाठ’ ने घर-घर में भागवत-धर्म (भक्तिमार्ग) को प्रतिष्ठित किया। उनके समकालीन संत नामदेव, जनाबाई, सावतामाली, सेना नाई, नरहरि सुनार, गोरा कुम्हार इन सभी संतों ने उन्हें अपनी ज्ञानदात्री माउली (माता) के रूप में देखा है। सन्त जनाबाई ने कहा है, ‘यह ज्ञान का सागर ज्ञानेश्वर मेरा सखा है। दिल करता है कि मर कर फिर से इस माउली की गोद में जन्म लूं। हे सखा ज्ञानदेव! मेरे भाव को पूरा करिये।’
२१ वर्ष की अल्पायु में इस महान योगी ने गुरुआज्ञा लेकर अपना जीवनकार्य पूरा किया और कार्तिक वद्य त्रयोदशी, शके १२१८, ई.स. १२९६, गुरुवार को आळंदी में इंद्रायणी नदी के पावन तीर पर संजीवन समाधी ले ली।
संत ज्ञानेश्वर के समाधि ग्रहण के वृतांत को संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शी शब्दों में लिखा है। अपने गुरु निवृ8िानाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के समान समाधि मंदिर में जा बैठे और स्वयं गुरु ने समाधि मंदिर की द्वारशिला बंद कर दी। पुणे के लगभग १४ किलोमीटर दूर आळंदी अब एक प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है। इस ‘ज्ञानसूर्य’ के अस्त होने के उपरांत एक वर्ष के भीतर ही निवृति, सोपान तथा मुक्ताबाई इन भाई-बहिनों ने भी अपनी इहलोक की यात्रा समाप्त की।
वन्दना आमेटा व्याख्याता