त्याग की प्रतिमूर्ति पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह की रक्षा की। उदयसिंह महाराणा सांगा का सबसे छोटा पुत्र था। कुम्भलगढ़ में उनका विवाह पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री जयवन्ती देवी के साथ हुआ। इन्हीं की पावन कोख से 9 मई 1540 ई. (ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया वि.सं. 1597) को कुम्भलगढ़ में प्रताप का जन्म हुआ। संयोग से इसी समय उदयसिंह बनवीर को हराकर चित्तौड़ प्राप्त कर मेवाड़ के नये महाराणा बने।
अकबर 1556 में बादशाह बना जो कि धर्मान्ध और क्रूर था। अबुल फजल लिखता है – पानीपत के द्वितीय युद्ध में जब हेमू हार गया तो बैरम खां द्वारा सिर कलम करने के लिए कहे जाने पर अकबर मना कर देता है। परन्तु बी.एन.लूणिया इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि प्रथम तो वह अपने संरक्षक को मना नहीं कर सकता, द्वितीय अकबर का प्रारंभिक दिनों में उदार होना असंभव था और यह सिर कलम न करने की घटना बाद में चापलूस दरबारियों द्वारा गढ़ ली गई। तृतीय उसने हेमू के वध के बाद ही ‘‘गाजी’’ की उपाधि धारण की। इसके पश्चात् 1567-68 ई. में चार माह घेरा डालने के पश्चात् जब चित्तौड़ अपने हस्तगत कर देता है तो चित्तौड़ की 30,000 हजार निर्दाष जनता का कत्ले-आम करवाता है। यहां के देवालयों, स्तंभों एवं भवनों तथा झोपड़ियों को भी खण्डित कर उसमें आग लगवा दी और फतवाह-ए-चित्तौड़ जारी किया। इसके अतिरिक्त 2 सितम्बर 1573 ई.में 2000 लोगो का कत्ल करवा उनके सिरों का पिरामिड बनवाया था। उसने हिन्दुओं के धर्म परिवर्तित करने का प्रयास तो किया ही परन्तु प्रताप के हाथी जिसका नाम रामप्रसाद था, जो हल्दीघाटी युद्ध में पकड़ा गया था उसका भी धर्म परिवर्तित कर ‘‘पीरप्रसाद’’ नाम कर दिया। यह उसकी कुत्सित मानसिकता का द्योतक है।
28 फरवरी 1572 ई. गोगुन्दा में मेवाड़ के शासक महाराणा उदयसिंह की मृत्यु हो जाती है। परन्तु जब श्मशान भूमि में प्रताप को सामंत गण देखते हैं तो सभी अंचभित हो जाते हैं। सामंतों को जब पता चलता है कि राणा जगमाल को घोषित किया गया है तो सभी सामंत एक मत होकर गोगुन्दा में ही महादेव जी की बावड़ी पर प्रताप का राजतिलक कर देते है। यह एक लोकतांत्रिकता का द्योतक हैं। राजतंत्र था परन्तु फिर भी इस व्यवस्था में जन-सामान्य गणों का पूर्ण योगदान था। मेवाड़ की शासन व्यवस्था राजतांत्रिक होते हुए भी लोकतांत्रिक है क्योंकि यहाँ के मुख्य शासक एकलिंग जी हैं तथा यहां के महाराणा उनके दीवान के रूप में कार्य करते हैं। इसके विपरीत अकबर स्वयं को सबसे बड़ा तथा स्वयं दीन-ए-इलाही धर्म की स्थापना कर स्वयं को ही परमात्मा समझ बैठा।
प्रताप ने अकबर के चारों संधि प्रस्तावों को कूटनीतिज्ञता के साथ विफल कर दिया। जे.एन.शर्मा कहते हैं कि मेवाड़ को अकबर ने जल्दी इसलिए अधीन नहीं किया क्यांकि अकबर चाहता था कि प्रताप स्वयं अपने को कमजोर समझकर अपना आत्म समर्पण कर देगा, परन्तु ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि प्रताप को ज्ञात था कि यदि इनसे लड़ना है तो इससे पूर्व तैयारी आवश्यक है तो वो पूर्ण तैयारी में लग गये। प्रताप ने जनता के समक्ष यह विषय रखा और नैतिक जिम्मेदारी का भाव जनमानस में उत्पन्न कर जन आह्नान कर प्रतिज्ञा की ‘‘अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की और राजसी वैभव को छोड़ने की’’ जिससे प्रभावित जन सामान्य वर्ग तक लोग भी प्रताप के इस स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये। प्रताप ने इन्हें प्रशिक्षित कर सशक्त सेना का निर्माण किया। प्रताप के जन आह्नान से प्रभावित हो हल्दीघाटी युद्ध में एक महिला (कोशीथल की महारानी) भी युद्ध के लिए आती है। राणा पूंजा, रामशाह तंवर व उनके तीनों पुत्र, हकीम खां सूरी, झाला मान, झाला बीदा जैसे वीर प्रमुख रूप से युद्ध में लड़े थे।
इसके विपरीत कुछ पूर्वाग्रही अकबर को महान कहते हुए कहते हैं कि उसने राष्ट्र को एक करने का कार्य किया। परन्तु ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। उस काल खण्ड में इस प्रकार से किसी मुगल शासक द्वारा राष्ट्र की कल्पना करना भी उचित नहीं होगा। इक्तिदार आलम का मत है कि अकबर ने राजपूतों को वश में कर उज्बेगों के प्रति उपयोग कर शक्ति-संतुलन करने की नीति अपनाई। क्योंकि राजपूत भी विरोध कर रहे थे और उज्बेग भी तो अकबर द्वारा समान्तर शक्ति के रूप में उपयोग किया।
प्रताप ने भौगोलिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए अपना संघर्षकालीन केन्द्र आवरगढ़ को बनाया।वहीं सूझबूझ के साथ उन्होंने अपनी कूटनीति के साथ ही रणनीति भी तैयारी की। इसी के तहत प्रताप हल्दीघाटी (18 जून 1576) में गोरिल्ला युद्ध पद्धति को अपनाते हैं जिसे गरूढ़ व्यूह कहते है।
ठा. केसरीसिंह बारहठ प्रताप चरित में लिखते हैं – हल्दीघाटी युद्ध के दौरान जब अलबदायूंनी पूछते है –
‘‘बोल्यो अलबदायूंनी, परत नहीं पहिचान।
कौन हमारी ओर के, कौन पराए जान।।’’
आसफ खां जवाब देता है –
‘‘तीर चलाते जाहु तुम, करहू कछु परवाह।
दोऊ दल काफिर मरे, है इसलामहिं लाह।।’’
युद्धनीति के अनुरूप प्रताप की सेना आक्रमण कर पुनः अपने केन्द्र में लौट आती है। इसके पश्चात् जब गोगुन्दा में मानसिंह की सेना वहां पर रूकती है तो मकड़ व्यूह बनाकर सेना की रसद सामग्री बंद कर दिए जाने पर मुगल सेना विद्रोह कर पुनः अजमेर लौट जाती है। आसफ खां और मानसिंह की अकबर द्वारा ड्योढ़ी बंद कर दी जाती है क्योंकि वो अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी राजा अपने सेनापति को युद्ध में सफल होने पर उसे पुरस्कृत करता है न कि तिरस्कृत। इस असफलता को सहन नहीं कर स्वयं युद्ध के लिए आता है। यदि हल्दीघाटी युद्ध अकबर जीत जाता तो उसे स्वयं आने की जरूरत नहीं थी। चित्तौड़ विजय के पश्चात् उसने फतवाह-ए-चित्तौड़ जारी किया परन्तु हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् किसी प्रकार का फतवाह जारी नहीं किया। जब वह स्वयं प्रताप को हराने के लिए मेवाड़ आता है परन्तु वह भी असफल होकर लौट जाता है। इसके विपरीत प्रताप अपने छापामार युद्धनीति में सफल हो जाते है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अकबर के स्वयं का आना है और हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् भी अकबर द्वारा अनेक सेनापति शाहबाज खां (जो पहाड़ी युद्ध में दक्ष होता है।), जगन्नाथ कच्छवाह इत्यादि को भेजकर सफलता की आशा करता है। इन सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है कि प्रताप हल्दीघाटी युद्ध में विजयी हुए।
नैतिकता की दृष्टि से देखे तो जब अब्दुल रहीम खानखाना (मिर्जा खां) 1580 ई. युद्ध के लिए आते है तो शेरपुर से प्रताप के पुत्र अमरसिंह जी शाही सेना पर आक्रमण कर वहां से उनकी औरतों को उठा लाते है तो प्रताप अपने पुत्र को समझाते हैं और बहिन बेटी का दर्जा देते हुए उन्हें ससम्मान अमरसिंह को खानखाना के पास पहुँचा देने का आदेश देते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुपालक प्रताप के इस व्यवहार से खानखाना को पहली बार इस्लामी आक्रांता संस्कृति एवं साम्राज्यवादी लिप्सा के बौने होने का अहसास हुआ। क्योंकि उन्हें धर्म के वास्तविक मायने समझ में आए और बौद्धिक विलास या ख्याति के लिए धर्म सभाएं कराना अलग विषय है, वहीं इन्हें जीवन आचरण में लाना अलग। ये प्रताप का चरित और एक ओर अकबर का नैतिक चरित्र जिसमें स्वयं द्वारा नवरोज का त्यौहार घोषित कर मीना बाजार लगाया जाना, जहाँ पर सिर्फ स्त्रियों का ही प्रवेश था। वहां पर अकबर स्वयं भी चला जाता और रूपवती स्त्रियों का सतीत्व नष्ट करता था। इसका उल्लेख अकबर के दरबारी कवि नहीं करेंगे क्योंकि वे अपने सम्राट के विरुद्ध कोई भी बात नहीं लिख सकते। अतः इनका उल्लेख वंश भास्कर में सूर्यमल्ल मिश्र करते है तथा अकबर की कामुकता का जिक्र शीरीं मूसवी अपनी पुस्तक ‘‘अकबर के जीवन की कुछ घटनाएं’’ में अबुल फजल कृत अकबरनामा एवं अलबदायुंनी कृत मुंतखब उल तवारीख को आधार बनाकर एक घटना का उल्लेख किया है जिसमें अकबर की कामुकता स्पष्ट झलकती है।
प्रताप एक सफल प्रशासक के रूप में – महाराणा प्रताप ने 1582 ई. को दिवेर थाने पर आक्रमण कर अकबर के चाचा सुल्तान खां को अमरसिंह भाले के एक ही वार से मार देते है और दिवेर थाने को अपने अधिकार में कर लेते हैं। इसके कुछ वर्षा के भीतर ही सम्पूर्ण मेवाड़ को स्वतंत्र करवा राजधानी चावण्ड की स्थापना करते हैं। बहुत ही विचार कर सभी प्रकार की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए चावण्ड को राजधानी बनाते हैं। ‘‘चावण्ड के राजमहलों का निर्माण होता है परन्तु वह साधारण होते है और उनके काष्ठ कार्य प्रधान होता है। यह महल ऐश्वर्य जनित नहीं थे अपितु लक्ष्य की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने चावण्ड राजधानी का विकास करवाया।’’ इसके अतिरिक्त एक चामुण्डा माता के मंदिर का भी निर्माण करवाया।
प्रताप द्वारा स्वयं की प्रशंसा में किसी प्रकार के ग्रंथ की रचना नहीं कि अपितु जन हित को ध्यान में रखते हुए चक्रपाणि मिश्र को राजाज्ञा दी कि वह एक ऐसे ग्रंथ की रचना करे जिसमें जल संसाधन, कृषि, वनस्पति का विवरण हो और जनोपयोगी हो और इसी आज्ञा को मानकर ‘‘विश्ववल्लभ’’ ग्रंथ की रचना हुई जिसमें कृषि की पद्धतियों एवं जल संसाधन का विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त एक ज्योतिष ग्रंथ की रचना भी चक्रपाणि मिश्र ने की जिसका कि जनसाधारण भी उपयोग कर सकते थे।
चावण्ड की चित्रशैली भी प्रमुख रूप से महत्व रखती है जिसका विकास महाराणा अमरसिंह के काल में भी हुआ जिसमें प्रमुख चित्र – भैरवी रागिनी, मारू रागिनी, तोड़ा रागिनी, आसावरी रागिनी, सांगर रागिनी, खंभावती रागिनी। इस प्रकार इस शैली के अनेक चित्र मिलते हैं जो कि बहुत सुन्दर है। जिसमें अलग-अलग दृश्यों एवं भाव-भंगिमाओं को व्यक्त किया है। प्रताप के समकालीन कवि दुरसा आढ़ा लिखते हैं-
‘‘धिर नृप हिन्दुस्थान, लातरगा मग लोभ लगा।
माता भूमि मान, पूजै राणा प्रताप सी।।’’
अर्थात् – हिन्दुस्थान के स्थिर राजा भी लोभवश पथप्रष्ट हो गए, परन्तु राणा प्रताप इस भूमि को अपनी माता मानकर इसी की पूजा करते हैं।
इसके अतिरिक्त वीर विनोद में इस प्रकार की घटना का वर्णन है कि जब अकबर लाहौर में होता है तो उसे प्रताप की मृत्यु का समाचार मिलता है तो वह अत्यन्त दुःखी हो जाता है। सभी दरबारी गण को आश्चर्य होता है कि अकबर को तो खुश होना चाहिए? उसी समय दुरसा आढ़ा छप्पय सुनाते हैं जिससे अकबर प्रभावित होकर पुरस्कृत करते है –
‘‘अश लेगो अण दाग, पाथ लेगो अण नायो।
गो आड़ा गड़वाय, जिको बहतो धुर वामी।।
नव रोजे नह गयो, नगो आतशा नवल्ली।
न गो झरोखा हो, जेथ दुनियाण दहल्ली।।
गहलोत राण जीति गयो, दसण मूंद रशनां डसी।
नीशास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रताप सी।।’’
अर्थात् – घोड़ों को दाग नहीं लगवाया, अपनी पगड़ी को किसी के सामने नहीं झुकाया। आड़ा से यहां मरे गीत
गवाता चला गया। अपने राज्य के घूरे को बायें कंधे पर चलाता रहा। न तो नौरोज में गया और न ही कभी शाही डेरे में गया। ऐसे झरोखों के नीचे नहीं आया जिनका रौब दुनिया पर था। गहलोत राणा (प्रताप) जीत गया, जिसमें बादशाह ने जुबान को दांतो तले दबाया और ठंडी सांस लेकर आंखों में पानी भर लिया! ऐ प्रताप मरने से ऐसा हुआ। पिछले कुछ समय पहले मैंने एक अखबार में पढ़ा की एक बच्चा कहता है कि ‘‘मेरा सपना है कि मैं सम्राट अकबर जैसा बनूं। उस जैसा रौब, दयालु प्रवृत्ति वाला और केयरिंग इंसान बनूं। मैं देश का प्रधानमंत्री बनना चाहता हूं। अकबर जैसे प्रशासक के गुणों के साथ देश के हालात को सुधार सकूं। काश भगवान मुझे समाज और देश को सुधारना का एक मौका दे दे!’’ यह देखकर लगा कि देश का इतिहास किस दिशा में हमारे समाज को ले जा रहा है जो बच्चा मेवाड़ में ही रहकर महाराणा प्रताप के विषय में अनजान है क्यों ऐसी शिक्षा पद्धति में प्रताप को योगदान को नकारा जाता है? और अकबर ने ऐसे कौनसे महान् कार्य किये जो हम उसे ‘‘अकबर महान्’’ की संज्ञा दें ? यदि संज्ञा दी भी जानी चाहिए तो ‘‘प्रताप महान्’’ की होनी चाहिए। प्रताप के चरित्र और उनके जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता आज भी महत्वपूर्ण है इनसे हमें प्रेरणा लेकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ –
1. प्रताप चरित, ठा. केसरी सिंह बारहठ,
प्रकाशक राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर ।
2. वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप, डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, प्रकाशक राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर।
3. मेवाड़ के महाराणा और शहंशाह अकबर,
राजेन्द्र शंकर भट्ट, स्फटिक प्रकाशन।
4. महाराणा प्रताप का दरबारी पंडित चक्रपाणि मिश्र और
उसका साहित्य, श्रीकृष्ण जुगनू, प्रकाशक महाराणा
प्रताप स्मारक समिति, उदयपुर।
5. हमारा राजस्थान, पृथ्वीसिंह विद्यालंकार,
प्रकाशक हिन्दी भवन पथप्रदर्शक 1950।
6. महाराणा प्रताप एवं राष्ट्रकवि दुरसा आढ़ा,
डॉ. नरेन्द्रसिंह चारण व डॉ. पूनाराम पटेल,
प्रकाशक – राजस्थानी ग्रंथागार 2015।
7. युगन्धर प्रताप, चन्द्रशेखर शर्मा,
अंकुर प्रकाशक उदयपुर
8. राजल अकबर का नवरोज दियो छुड़ाय,
ओंकार सिंह लखावत,
प्रकाशक तीर्थ पैलेस पुष्कर 2012।
9. अकबरनामा, अबुल फजल, मथुरालाल शर्मा,
राधा पब्लिकेशन नई दिल्ली 2012।
10. प्रताप गाथा, ओमप्रकाश,
वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप समिति, उदयपुर।
11. दैनिक भास्कर, 5 दिसम्बर 2015।
दिलावर सिंह