भारत रत्न अटल बिहारी वाजयेपी आज भले ही सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनका पूरा जीवन एक मिसाल है। उनके व्यक्तित्व और विचारों से सीख लेकर उन्हें अपने जीवन में उतारना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। अटल बिहारी वाजपेयी को एक राजनेता के तौर पर जितनी प्रसिद्धि मिली हैं, उतनी ही प्रशंसा उनकी कविताओं को भी मिली है। उनकी कई कविताएं उनके व्यक्तित्व की परिचायक बन गईं l अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं ने जीवन को देखने का उनका नजरिया दुनिया के सामने रखा l उनकी कविता देश भर के लोगों को प्रेरणा देती हैं l एक प्रखर वक्ता, कवि, पत्रकार, राजनेता, देश में अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों को साथ लेकर चलने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। यह उनके बोलने का अंदाज और सारगर्भित भाषण की कला का जादू था कि उनकी अपनी पार्टी के लोग ही नहीं विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। वह अक्सर अपने दिल की बातों को कविताओं के जरिए व्यक्त किया करते थे। ऐसी ही कुछ कविताओं का संकलन यहाँ प्रस्तुत है …
रग–रग हिंदू मेरा परिचय –
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।
डमरू की वह प्रलय–ध्वनि हूं, जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती में आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़ चेतन तो कैसा विस्मय?
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ में घहर–घहर, सागर के जल में छहर–छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
मैंने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल।
जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिंदू करने घर–घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी?
भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
मैं एक बिंदु परिपूर्ण सिंधु है यह मेरा हिंदू समाज।
मेरा इसका संबंध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैंने पाया तन–मन, इससे मैंने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण।
मैं तो समाज की थाति हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!
यक्ष प्रश्न
जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।
प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।
क्या खोया, क्या पाया जग में
क्या खोया, क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें l
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं,
यद्यपि सौ शरदों की वाणी,
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर खुद दरवाजा खोलें l
जन्म-मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा,
आज यहां, कल कहां कूच है,
कौन जानता, किधर सवेरा,
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें l
अपने ही मन से कुछ बोलें l
दूध में दरार पड़ गई
दूध में दरार पड़ गई l
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया l
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई l
दूध में दरार पड़ गई l
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है l
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई l
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता l
बात बनाएं, बिगड़ गई l
दूध में दरार पड़ गई l
एक बरस बीत गया
एक बरस बीत गया,
झुलासाता जेठ मास l
शरद चांदनी उदास l
सिसकी भरते सावन का l
अंतर्घट रीत गया l
एक बरस बीत गया l
सीकचों मे सिमटा जग l
किंतु विकल प्राण विहग l
धरती से अम्बर तक l
गूंज मुक्ति गीत गया l
एक बरस बीत गया l
पथ निहारते नयन,
गिनते दिन पल छिन,
लौट कभी आएगा,
मन का जो मीत गया,
एक बरस बीत गया l
‘मौत से ठन गई’…
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आजमा।
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
जीवन बीत चला
कल कल करते आज,
हाथ से निकले सारे,
भूत भविष्यत की चिंता में,
वर्तमान की बाजी हारे l
पहरा कोई काम न आया,
रसघट रीत चला,
जीवन बीत चला l
हानि लाभ के पलड़ों में,
तुलता जीवन व्यापार हो गया,
मोल लगा बिकने वाले का,
बिना बिका बेकार हो गया l
मुझे हाट में छोड़ अकेला,
एक एक कर मीत चला,
जीवन बीत चला,
सच्चाई यह है कि
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं, ,मजबूरी है l
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है l
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है l
गीत नया गाता हूं ..
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
गीत नहीं गाता हूँ …
बेनकाब चेहरे हैं दाग बड़े गहरे है,
टूटता तिलस्म आज सच से भय खाता हूं,
गीत नहीं गाता हूं l
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं l
गीत नहीं गाता हूं l
पीठ में छुरी सा चांद,
राहु गया रेख फांद,
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं ,
गीत नहीं गाता हूं l
कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.