मुझे आश्चर्यजनक रुप से 1857 के विद्रोह की चमक में स्वतन्त्रता के युद्ध की दीप्ति का आभास हुआ। हुतात्माएँ शहादत के आभा मण्डल से दैदीप्यमान होती दिखाई दीं और राख के ढ़ेर से प्रेरणा की चिंगारियाँ निकलती नजर आई। ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ के लेखक विनायक दामोदर सावरकर ने ये विचार अपनी पुस्तक के पहले संस्करण में लिखे। सावरकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कथानक की महत्वपूर्ण और अभिन्न कड़ी हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भ्रमित वैचारिक अधिष्ठान वाले समूह ने स्वतंत्रता संग्राम में उत्सर्ग अनेक क्रान्तिधर्मा स्त्री-पुरुषों के योगदान को इतिहास से योजनापूर्वक बाहर कर दिया। उनके द्वारा रचित (विकृत) इतिहास विशेष रूप से सावरकर के प्रति अन्यायपूर्ण और दयाहीन है। स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर को पढ़े बिना भारत के महान स्वातन्त्र्य समर और क्रांतिकारियों के इतिहास को समझ पाना असंभव है।
सावरकर पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें सरकारी मान्यता प्राप्त विद्यालय से निष्कासित किया गया था। उन्होंने ही सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, दुनिया के समक्ष उद्घोषित किया कि भारत औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की सीमा तक संघर्षरत रहेगा। उनको 23 दिसम्बर 1910 को आजीवन निर्वासन की सजा मिली। 4 जुलाई 1911 से 2 मई 1921 तक अण्डमान की कुख्यात सेल्युलर जेल (कालापानी) की सजा भुगतनी पडी। जहाँ उन्हें प्रथम छः महिने तक अंधेरी (काल) कोठरी में बंद रखा गया, तीन बार एक-एक माह का एकांतवास, दो बार सात-सात दिन के लिए हथकडियों में जकडकर दीवार के साथ लटकाकर रखा गया, चार माह तक जंजीरों से जकड़कर रखा गया। यही नहीं, सेल्युलर जेल से मुक्त होने पर उन्हें रत्नागिरी और फिर यरवदा जेल में रखा गया। स्वतन्त्र भारत में भी सावरकर को दो बार (पहली बार 5 फरवरी 1948 को तो दूसरी बार 4 अप्रैल 1950 को) जेल में रहना पडा।
स्वतंत्र भारत कि यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने कठोर कारावास और यंत्रणाओं को भारत की आजादी के लिए हंसते हंसते झेलने वाला यह स्वातंत्र्य वीर भारतीय इतिहास की मुख्यधारा से विलुप्त प्राय रखा गया।
सावरकर ने भारत की स्वतन्त्रता के उद्देश्य के प्रति विश्वपटल का ध्यानाकर्षण किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम यह आवाज उठाई कि जनसंख्या के एक वर्ग विशेष के प्रति तुष्टिकरण की नीति देश को बंटवारे की ओर ले जा सकती है। उनके लिए ‘मातृभूमि’ की एकता और अखण्ड़ता सर्वोपरि थी। उन्हांने ब्रिटिशों पर, कुछ अल्पसंख्यक वर्गो के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग या अविश्वास किया तो उसका एकमात्र कारण इनकी अलगाववादी प्रवृत्तियाँ थी। सावरकर की कल्पना का भारत, सिंधु नदी से हिन्द महासागर पर्यन्त फैला भारत था, इससे कम उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
सावरकर रचित साहित्य और उनके लेखों को पढ़ने से स्पष्ट है कि वे केवल ‘हिन्दुओं’ के लिए ‘हिन्दुस्तान’ की कल्पना नहीं करते थे। इसके विपरीत वे भारत में विश्वास रखने वाले सभी अल्पसंख्यकों के धर्म, संस्कृति और भाषा के संरक्षण की कामना भी करते थे।
समुत्कर्ष के इस संक्षिप्त से अंक में स्वातन्त्र्य वीर सावरकर के विराट जीवन चरित्र को सहेजना दुष्कर कार्य था, तथापि उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों को संकलित कर आपकी स्मृतियों में विनायक दामोदर सावरकर और उनके योगदान को जीवन्त करने का यह एक लघु प्रयास मात्र है।