समुत्कर्ष समिति द्वारा महात्मा गांधी के जन्म सार्द्ध शती वर्ष (150 वें जन्म वर्ष) के परिप्रेक्ष्य में ‘‘महात्मा गांधी की कल्पना का भारत’’ विषय पर 67 वीं समुत्कर्ष विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुए स्पष्ट किया कि महात्मा गांधी की कल्पना का भारत स्वशासी ग्रामीण इकाइयों का था। यह एक व्यावहारिक कल्पना थी। स्वाधीनता से उनका अर्थ केवल ब्रिटिश राज से मुक्ति का नहीं था बल्कि वे गरीबी, निरक्षरता और अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों से मुक्ति का सपना देखते थे। वे चाहते थे कि देश के सारे नागरिक समान रूप से आजादी और समृद्धि का सुख पा सकें। गांधी जी ने कहा था कि भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएं रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
समुत्कर्ष के परामर्शद् तरुण शर्मा ने कहा कि महात्मा गांधी का स्पष्ट रूप से मानना था कि भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। उन्होंने अपने सपनों के भारत में जिस दृष्टि की कल्पना की थी उसमें व्यापकता थी। यही कारण है कि उनके उसी दृष्टिकोण या उन्हीं विचारों को विचारकों ने गांधीवाद की संज्ञा दी। ग्रामीण विकास की तरफ गांधी जी की दृष्टि हमेशा सजग ही रही। ग्रामीण विकास के लिए जिन बुनियादी चीजों को वे जरूरी समझते थे, उनमें ग्राम स्वराज, पंचायतराज, ग्रामोद्योग, महिलाओं की शिक्षा, गांवों की सफाई, गांवों का आरोग्य और समग्र ग्राम विकास आदि प्रमुख हैं।
संदीप आमेटा का कहना था कि गांधीजी ऐसे भारत के आकल्पक थे जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस कर सके कि यह उनका देश है-जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्त्व है। उनके अनुसार मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा जिसमें ऊँचे-नीच, वर्गों का भेद नहीं होगा और विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। मेरी कल्पना के भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को होंगे।
श्याम मठपाल ने अपनी बात रखते हुए कहा कि गाँधी जी ने कहा था कि मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करता हूँ कि यदि भारत ने दुःख और तपस्या की आग में से गुजरने में जितना धैर्य दिखाया और अपनी सभ्यता पर, जो अभी तक काल के प्रभाव को झेल सकी है, किसी भी दिशा से कोई अनुचित आक्रमण न होने दिया, तो वह दुनिया की शांति और ठोस प्रगति में स्थायी योगदान कर सकता है।
बाल साहित्यकार तरुण कुमार दाधीच ने बताया कि गांधी जी के अनुसार ‘‘स्वराज्य एक पवित्र शब्द है, जिसका अर्थ आत्मानुशासन और आत्म संयम है जबकि अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेस’ बहुतांश में सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी या स्वच्छंदता का अर्थ देता है। आजादी के बाद से हम गाँधी जी के स्वराज्य से परे ‘इंडिपेंन्स’ की दिशा में ही निर्बाध गति से बढ़ते चले जा रहे हैं। परिणामस्वरूप देश में भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचार, अपराध, अनैतिकता और हिंसा का ग्राफ तीव्र गति से बढ़ रहा है।
इस अवसर पर गोविन्द चारण, सरोज जैन ने भी अपने विचार व्यक्त किये। विषय का प्रवर्तन हरिदत्त शर्मा ने किया। गोष्ठी के अन्त में समुत्कर्ष पत्रिका के उप सम्पादक गोविन्द शर्मा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए सभी का आभार प्रदर्शित किया।
शिवशंकर खण्डेलवाल