दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर
1857 के स्वाधीनता संग्राम को कुचले हुए आधी-शताब्दी नहीं गुजरी थी। कुछ लोग अंग्रेजों की उपस्थिति से संतुष्ट थे, कुछ का गुजारा ही भ्रष्ट साम्राज्यवाद से चल रहा था लेकिन कुछ दिलों में क्रान्ति की ज्वाला अभी भी सुलग रही थी। दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर तथा वासुदेव हरि चापेकर इतिहास में चापेकर बंधु के नाम से प्रसिद्ध हैं। देश की स्वाधीनता के लिए जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है। पर जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार सदा के लिए पूज्य है। चापेकर बन्धुओं का परिवार ऐसा ही था। चापेकर बंधु महाराष्ट्र के पुणे के पास चिंचवड़ नामक गाँव के निवासी थे। तीनों भाई बाल गंगा धर तिलक के विचारों से काफी प्रभावित थे।
अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नीतियों में लूटपाट के अलावा जबरिया विश्व व्यापार के जरिये अकूत धनोत्पादन भी शामिल था। इसके लिए अनेक अवांछित करों के अलावा भारत की परंपरागत कृषि के बजाय नकदी फसलों का उत्पादन कराया जा रहा था। भोले-भाले किसानों को विदेश में गन्ने की खेती शुरू करने के उद्देश्य से बंधुआ मजदूर बनाकर जलपोतों की तलहटी में ठूँसकर निर्यात किया जा रहा था। देश में अफीम, तंबाकू, नील आदि की खेती के कारण दुर्भिक्ष और भुखमरी सामान्य हो गए थे। क्रूर जमींदारों और सामंतों को सरकारी संरक्षण था लेकिन सामान्यजन का बुरा हाल था। फैक्ट्री निर्मित कपड़े को दिये जा रहे सरकारी उकसावे के कारण बुनकरों की हालत खराब थी। कमोबेश यही हाल अन्य शिल्पकारों का भी था।
सन 1897 में भारत का बड़ा भाग प्लेग की चपेट में था। पुणे में भी भयंकर प्लेग फैल गया। इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा। अंग्रेज शासक अपने शाही ठाठ में डूबे हुए थे। समाचार थे कि बीमारों के इलाज के बजाय, सरकारी महकमा बीमारी सीमित करने के नाम पर पीड़ित क्षेत्रों की बलपूर्वक घेराबंदी में जुटा था। अनेक नगरों में बीमारों के दमन के लिए सेना बुला ली गई थी। पुणे में असिस्टेंट कलेक्टर चार्ल्स वाल्टर रैंड द्वारा संचालित ‘स्पेशल प्लेग कमिटी’ के अधिकारी डरहम लाइट इनफेंटरी के गोरे सैनिकों के साथ घर-घर में घुसकर सतही लक्षणों के आधार पर परिवार की संपत्ति का नाश करके परिजनों, महिलाओं, बच्चों को पकड़कर ले जाने लगे। सामान जलाए गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं। पवित्र स्थल जूतों और संगीनों से अपवित्र किए गए। शवयात्रा और बिना आज्ञा दाह संस्कार अपराध घोषित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध भारतीय यह सब नहीं सह सके। स्पेशल प्लेग कमिटी, सैनिक
दमन, सड़ती लाशों और प्लेग से आसन्न मृत्यु की आशंका के बीच पुणे की जनता तड़प रही थी।
रैंड उसकी गौरी हुकूमत के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए चापेकर बन्धु दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 का दिन चुना क्योंकि इस दिन पुणे के ‘गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जाने वाली थी।इस दुष्काल मे भी जब अंग्रेजों ने मानव जीवन के प्रति पूरी निष्ठुरता दिखाकर रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के हीरक जयंती समारोह मनाने शुरू कर दिये तो जनता का खून खौलने लगा। इस हीरक जयन्ती में वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आर्यस्ट भी शामिल हुए। 22 जून के मुख्य सरकारी समारोह की शाम को दोनों भाई, दामोदर हरि चापेकर और बालकृष्ण हरि चापेकर समारोह स्थल के निकट गणेशखिंड रोड (वर्तमान सेनापति बापट मार्ग) पर एक-एक तलवार और पिस्तौल के साथ खड़े होकर रैंड के आने का इंतजार करने लगे। गाड़ी पहचानने के बाद वे भीड़ के कारण अपनी तलवारें पीछे छोडकर समारोह स्थल की भीड़, बैंड और आतिशबाजी के बीच होते हुए भवन के निकट रैंड की गाड़ी के वापस आने के इंतजार में खड़े हुए। गाड़ी आने पर दामोदर ने संकेत दिया, ‘गोंड्या आला रे!’ बालकृष्ण ने गोलियां चलाईं तो गाड़ी पलट गई। योजना के अनुसार दामोदर हरि चापेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे
चढ़ गया और उसे गोली मार दी, जिससे रेन्ड महाशय जमीन पर आ गिरे । उसका मित्र अभी बच निकलने का मार्ग ही तलाश रहा था, कि बालकृष्ण हरि चापेकर ने आर्यस्ट पर गोली चला उसका भी काम तमाम कर दिया। चारों ओर हल्ला मच गया । पर पुणे की उत्पीड़ित जनता इन गुमनाम क्रांतिकारियों की जय-जयकार कर उठी।
भारत की आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारी धमाका करने वाले वीर दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवाड़ में
प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चापेकर के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ। बचपन से ही सैनिक बनाने की इच्छा दामोदर हरी चापेकर के मन में थी, विरासत में कीर्तन का यश-ज्ञान मिला ही था। इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे। ये दोनों सगे भाई थे, पर जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिए 20,000 रु. पुरस्कार की घोषणा की, तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चापेकर को पकड़वा दिया। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चापेकर को फांसी की सजा दी। 18 अप्रैल 1898 को प्रातः वहीं ‘गीता’ पढ़ते हुए दामोदर हरि चापेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए जो उन्हें स्वयं तिलक जी देकर गए थे।
उधर बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी। यह देखकर उसने स्वयं आगे होकर आत्मसमर्पण कर दिया। किसी-किसी उपवन में प्रायः सभी फूल एक दूसरे से बढ़कर ही खिलते हैं। दो फूल तो देवता के चरणों मे पहुँच चुके थे, अब तीसरे की बारी आई। दामोदर और बालकृष्ण का एक तीसरा भाई वासुदेव भी था। वह समझ गया कि अब बालकृष्ण को भी फांसी दी जाएगी। ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा। उसने आकर माँ के चरणों में प्रणाम किया अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी। चापेकर बंधु भाइयों में सबसे छोटे बालकृष्ण ने माँ से लाड़ लड़ाते हुए कहा-“माँ! दो फूल तो राम के काम आ गए, अब मैं भी उन्हीं के चरणों तक पहुँचने की आज्ञा लेने आया हूँ !” उस वीर माता के मुख से उस समय एक शब्द भी न निकला। महिमामयी माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया।
अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव गोविन्द रानाडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया। द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे। आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे। वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे। नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि तुम दोनों को बु्रइन साहब थाने में बुला रहे हैं। थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था। अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये। मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे। निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं। गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा। इस प्रकार दोनों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया।पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया। वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था। अतः उसके मन में कोई भय नहीं था। अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालक्ृष्ण की फांसी के लिए क्रमशः आठ, दस और बारह मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दीं। आठ मई को यरवदा कारागृह में प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उसका बड़ा भाई बालकृष्ण बंद था। वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा। मैं जा रहा हूं।’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना। मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा।’’ इस प्रकार तीनों चापेकर बन्धु और महादेव गोविन्द रानडे हँसते हँसते मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना पूर्ण कुसुमित जीवन पुष्प चढ़ा गये।
तिलक जी द्वारा प्रवर्तित ‘शिवाजी महोत्सव’ तथा ‘गणपति-महोत्सव’ ने इन चारों युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने हेतु क्रांति-पथ का पथिक बनाया था। भगिनी निवेदिता जब इन वीरों की जननी को सांत्वना देने पहुंची तो वीर जननी बोली-“ बेटी, दुःख व्यक्त करने की कोई बात नहींस करोड़ों लोगों की माँ भारत माता की मुक्ति के लिए मेरे बेटों ने बलिदान किया हैं। मेरे और पुत्र होता तो उसे भी मैं इस मार्ग पर प्रेरित कर देती। दुःख व्यक्त करने से उनके बलिदान का अपमान होगा। ”साहित्य आचार्य बालशास्त्री हरदास लिखते हैं“ परतंत्र भारत की स्वतंत्रता के ऋषि तुल्य उपासकों में चापेकर बंधुओं की गणना की जानी चाहियें। सावरकर युग के पूर्व सम्पूर्ण परिवार के स्वतन्त्र यज्ञ के लिए जलने वाले क्रांति कुंड में अपना जीवन एक समिधा मानकर अपने हाथों जला डालने का ज्वलंत उदहारण अखिल भारत वर्ष में केवल चापेकर बंधुओं का ही हैं। ”वचनेश त्रिपाठी ने लिखा हैं-“ उन्होंने ब्रिटिश राज के आततायी व अत्याचारी अधिकारियों को बता दिया की हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक कभी नहीं स्वीकार करते और हम तुम्हें गोली मरना अपना धर्म समझते हैं। अपने जीवन दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी।
‘‘समाँ के तीनों बेटे आज इतिहास बन गए,
राष्ट्र की राहों पर चल आकाश बन गए!
धन्य हुई वह जननी, ऐसे बेटों को जनकर,
जो आंसू पोछ पीड़ितों का,उल्लास बन गए!!
तरुण शर्मा