जजीरों में जकडे सावरकर को लेकर जहाज 22 जुलाई 1910 को तत्कालीन बॉम्बे बंदरगाह पहुँचा। परन्तु आई. जी. माइकल केनेडी की अगुवाई वाले ब्रिटिश पुलिस दल ने बंदरगाह पहुँचने से पहले ही गुप्त रुप से सावरकर को जहाज से उतार लिया। फिर उन्हें विशेष ट्रेन के द्वारा पहले नासिक ले जाया गया तदुपरान्त वीर सावरकर को पुणे की यरवदा जेल में रखा गया। उन पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार ने एक विशेष न्यायालय की स्थापना की, जिसमें तीन न्यायाधीश थे- बेसिल स्कॉट (मुख्य न्यायाधीश), एन. जी. चन्द्रावरकर तथा हीटन। श्यामजी कृष्ण वर्मा, श्रीमती कामा आदि क्रान्तिकारियों ने वीर सावरकर की पैरवी करने के लिए प्रसिद्व अंग्रेज वकील जोसेफ वेपतिस्ता को नियुक्त किया। वेपतिस्ता के अतिरिक्त श्री गोविन्द राव गाडगिल, श्री रंगनेकर तथा श्री चितरे ने इस मुकदमें में स्वेच्छा से वीर सावरकर की कानूनी सहायता की।
यहाँ सावरकर पर दो अभियोग और लगाए गए-
1. 36 अन्य व्यक्तियों के साथ ब्रिटेन के सम्राट के विरुद्व षड्यंत्र।
2. नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या की प्रेरणा देना।
15 दिसम्बर, 1910 से यह मुकदमा बम्बई में प्रारंभ हुआ। सावरकर की ओर से प्रार्थना-पत्र देते हुए उनके वकील जोसेफ वेपतिस्ता ने अदालत में कहा था कि यह गिरफ्तारी फ्रांस की भूमि से अवैध रूप में हुई थी। इस अवैध गिरफ्तारी पर अभी विवाद ही चल रहा था। अतः विवाद के निर्णय तक इस मुकदमे को स्थगित करने की प्रार्थना की, किन्तु यह प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई।