ब कभी भारतीय समाज जीवन को करवट लेने की जरूरत हुई, तब कोई-न-कोई परिवर्तनकारी व्यक्तित्व उठ खड़ा हुआ है। ऐसे महनीय व्यक्तित्वों की असमाप्त शृंखला के मध्य स्वामी विवेकानंद अपने ढंग के अनन्य व्यक्तित्व ठहरते हैं। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को महज सतही तौर पर नहीं लिया था और न उसे इकहरा माना। वे किसी भी परिवर्तन को समग्रता में लेने के आग्रही थे। इसीलिए जब उनकी दृष्टि अपने पूर्ववर्ती या समकालीन सुधारकों के कार्यों पर गईं, तब वे उन सुधारों की एकांगिता या अधूरेपन को लक्षित करने से नहीं चूके।
उन्होंने अपने ढंग से सामाजिक पुनर्रचना का आह्नान किया और उसे साकार करने के लिए आजीवन सचेष्ट रहे।
स्वामी विवेकानंदजी ने भारतवासियों को चरित्र निर्माण के 5 सूत्र दिए- आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान, आत्मसंयम और आत्मत्याग। उपयुक्त तत्वों के अनुशीलन से व्यक्ति स्वयं के व्यक्तित्व तथा देश और समाज का पुनर्निर्माण कर सकता है। जिसने निश्चय कर लिया उसके लिए केवल करना शेष रह जाता है। उनका कहना था कि जीवन में एक ही लक्ष्य साधो और दिन-रात उस लक्ष्य के बारे में सोचो और फिर जुट जाओ उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। हमें किसी भी परिस्थिति में अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए।
स्वामीजी बदलाव के लिए मात्र कुछ विसंगतियों पर प्रहार कर परिवर्तन लाना नहीं चाहते हैं। वे कहते हैं, ‘‘मूर्तियाँ रहें या न रहें, विधवाओं के लिए पतियों की पर्याप्त संख्या हो या न हो, जाति-प्रथा दोषपूर्ण है या नहीं, ऐसी बातों से मैं अपने को परेशान नहीं करता।’’ इसके स्थान पर वे सर्वसाधारण को शिक्षित करने पर बल देते हैं। उनका कथन है, ‘‘रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान पर श्रद्धा रखा।’’ (खण्ड 72, पृ. 321) स्पष्ट है स्वामीजी परिवर्तन की चिन्गारी अंदर से पैदा करने में विश्वासी हैं, बाहर से नहीं।
वे इस बात को भली भाँति जानते थे कि मानवीय सभ्यता से जुड़े किसी भी अंग की निर्मित अचानक नहीं हुई है, उसके पीछे लम्बी प्रक्रिया रही है। जब कभी उसे बदलने की चेष्टा हो भी तो पहले गहराई से विचार हो, फिर हमारी दृष्टि मूल पर भी रहे।
स्पष्ट है स्वामी विवेकानंद विनाशक नहीं, रचनात्मक समाज सुधार के पक्षधर हैं, जो उन्हें अपने दौर के समाज सुधारकों से विलक्षण बनाता है।
स्वामी विवेकानंद को भारत की मूल शक्ति आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास था। उनकी यह आध्यात्मिकता कोई संकीर्ण अर्थ लिए आध्यात्मिकता नहीं है, वरन् उसमें धार्मिक अंध नियमों से मुक्ति की अभिलाषा है, संपूर्ण और सर्वव्यापी आत्मा का बोध है। वह नानात्व में अन्तर्निहित एकता का अधिष्ठान है। इसीलिए जब वे सामाजिक परिवर्तन का प्रादर्श प्रस्तुत करते हैं, तब उनकी दृष्टि आध्यात्मिक बोध पर भी टिकी रहती है। वे कहते हैं, ‘‘समस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन अपने भीतर काम करने वाली आध्यात्मिक शक्तियों के व्यक्त रूप होते हैं, और यदि ये बलशाली और सुव्यवस्थित हों, तो समाज अपने आपको इस तरह से ढ़ाल लेता है।’’ उनका समाज सुधार ऊपरी नहीं है, वह अध्यात्म की सुदृढ़ भूमि पर टिका है, ‘‘तथाकथित समाज सुधार के विषय में हस्तक्षेप न करना, क्योंकि पहले आध्यात्मिक सुधार हुए बिना अन्य किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो सकते।’’ इसी को वे आमूल सुधार मानते हैं। इसके अभाव में उनके पूर्ववर्ती सुधार आंदोलन अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके।
व्यक्तिवाद और समाजवाद में सामंजस्य साधते हुए विवेकानंद ने वर्ग संघर्ष की अवधारणा को खारिज किया। दरअसल समाजवाद की उनकी अवधारणा वैज्ञानिक कम और मानवतावादी ज्यादा थी। वेदांत के व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हुए उन्होंने इसी जीवन में मोक्ष पाने की वकालत की। उनका राष्ट्रवाद बलिदान, भक्ति, पवित्रता और अनासक्ति पर आधारित था। उनका मानना था कि भारत के हालात पश्चिम से अलग हैं। पश्चिम भौतिकवाद और नवाचार पर जोर देता है, वहीं भारत में विचारों की निरंतरता पर भरोसा किया जाता है। उनका मानव मात्र की अच्छाई पर भरोसा था और यही उनकी स्वतंत्रता की अवधारणा का आधार था।
विवेकानंद ने आत्मानुभूति और आत्मा की मुक्ति के जरिये स्वतंत्रता के उच्चतम आदर्श की प्राप्ति पर जोर दिया। लेकिन वह जाति आधारित अंधविश्वासों को इसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानते थे। इसके अलावा उन्होंने दूसरों से सीखने और यात्रा के जरिये अपनी सोच का विस्तार करने की भी बात की। गोखले ने भी एक बार महात्मा गांधी को आम आदमी की तरह भ्रमण करने और जमीनी हकीकत का निजी अनुभव लेने की सलाह दी थी। उन्होंने जाति पर आधारित व्यवस्था के बजाय एक सौहार्दपूर्ण समाज पर बल दिया। गरीबों की सेवा को सबसे बड़ी पूजा मानते हुए उन्होंने इसे वर्तमान के सभी संघर्षों का समाधान माना।
विवेकानंद का सामाजिक दर्शन श्रीमद् भगवद् गीता के ‘कर्मयोगी’ की अवधारणा से प्रेरित है। उनका मानना था कि राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के आधुनिक पश्चिमी विचारों को ‘स्वतंत्रता’ की परंपरागत भारतीय धारणा से तालमेल बैठाने की जरूरत है। दरअसल भारतीय परंपरा में स्वतंत्रता को देश और काल की सीमाओं से परे एक शाश्वत मूल्य के तौर पर समझा जाता है। उनके मुताबिक सच्ची स्वतंत्रता तभी मिलेगी, जब हर व्यक्ति मानसिक परतंत्रता और हीनता की भावना से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन कर पाएगा। आध्यात्मिकता के इस स्तर पर उसे मालूम होगा कि वह शरीर मात्र न होकर, अनंत आत्मा है। उनका मानना था कि ऐसी स्वतंत्रता को पाए बगैर केवल राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता की बात करना बेमानी है। सामाजिक कर्तव्य पालन और सामाजिक सौहार्द के जरिये ही सच्ची स्वतंत्रता पाई जा सकती है।
स्वामी विवेकानंद इस बात से भलीभाँति परिचित थे कि सामाजिक परिवर्तन बाहर से नहीं, अंदर से होता है। उसे लाने के लिए समाज को बाहर से नहीं, अंदर से सुदृढ़ करना जरूरी है। वे भारतीय समाज में व्याप्त सभी अनर्थों की जड़ में वर्गीय विषमता को देखते हैं, ‘‘भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई हैं।’’ इस स्थिति को बदलने के लिए वे आमजन के मध्य विद्या के प्रसार को आवश्यक मानते हैं, जो नैतिक और बौद्धिक दोनों प्रकार की हो। साथ ही वे समाज के वंचित वर्ग को संगठित कर स्वयं के उद्धार के लिए तैयार करना भी जरूरी मानते हैं। तभी उनका सशक्तीकरण होगा, महज बाहरी दयापूर्ण सहायता से नहीं।
स्वामी जी कहते हैं, ‘‘हमारा संघ दीनहीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिए है और उनके लिए सब कुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयेगी। ‘उद्धरेदात्मनात्मानम् -अपनी आत्मा का अपने उद्योग से उद्धार करो।’ यह सब परिस्थितियों पर लागू होता है। हम उनकी सहायता इसलिए करते हैं, जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें।……..धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिए जो थोड़ी-सी भलाई करते हैं, वह स्थायी नहीं होती और अंत में दोनों पक्षों को हानि पहुँचती है। किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसीलिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह है कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो।’’ (विवेकानंद साहित्य, खंड-7, पृ. 412) स्वामीजी, इसी प्रकार आजीवन समाज के वंचित वर्ग की आँखें खोलने का आह्नान करते रहे। बजाय इसके कि उनकी सहायता महज बाहरी ही बनी रहे। ऐसे में स्वामी विवेकानंद का परिवर्तनकारी स्वर आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
तरुण शर्मा