महर्षि दयानंद सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक थे। उनकी पहचान महान समाज सुधारक, राष्ट्र-निर्माता, प्रकाण्ड विद्वान, सच्चे संन्यासी, ओजस्वी सन्त और स्वराज के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं। बाल्यावस्था के दौरान कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने उन्हें सच्चे भगवान, मृत्यु और मोक्ष का रहस्य जानने के लिए संन्यासी जीवन जीने को विवश कर दिया। उन्होंने इन रहस्यों को जानने के लिए पूरा जीवन लगा दिया और फिर जो ज्ञान हासिल हुआ, उसे पूरे विश्व को अनेक सूत्रों के रूप में बताया।
मूलशंकर से शुरू की सांसारिक यात्रा
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म गुजरात के राजकोट जिले के काठियावाड़ क्षेत्र में टंकारा गाँव के निकट मौरवी नामक स्थान पर भाद्रपद, शुक्ल पक्ष, नवमी, गुरूवार, विक्रमी संवत् 1881 (फरवरी, 1824) को साधन संपन्न एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अंबाशंकर और माता का नाम यशोदा बाई था। आपके बचपन का नाम मूलशंकर था। मूलशंकर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। वे तीन भाईयों और दो बहनों में सबसे बड़े थे। उन्होंने मात्र पाँच वर्ष की आयु में ‘देवनागरी लिपि’ का ज्ञान हासिल कर लिया था और संपूर्ण यजुर्वेद कंठस्थ कर लिया था। बचपन में घटी कुछ घटनाओं ने उन्हें मूलशंकर से स्वामी दयानंद बनने की राह पर अग्रसित कर दिया।
पहली घटनाः मूल शंकर के पिता शिव के परम भक्त थे। वर्ष 1837 के माघ माह में पिता के कहने पर बालक मूलशंकर ने भगवान शिव का व्रत रखा। तब उनकीं उम्र मात्र 14 वर्ष की थी। जागरण के दौरान अर्द्धरात्रि में उनकी नजर मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर पड़ी, जिस पर चूहे उछल कूद मचा रहे थे। एकाएक बालक मूलशंकर के मन में विचार आया कि यदि जिसे हम भगवान मान रहे हैं, वह इन चूहों को भगाने की शक्ति भी नहीं रखता तो वह कैसा भगवान?
दूसरी घटनाः जब मूलशंकर 16 वर्ष के थे तो उनकीं चौदह वर्षीय छोटी बहन की मृत्यु हो गई। वे अपनी बहन से बेहद प्यार करते थे। पूरा परिवार व सगे-संबंधी विलाप कर रहे थे और मूलशंकर भी गहरे सदमे व शोक में भाव-विह्नल थे। तभी उनके मनोमस्तिष्क में कई तरह के विचार पैदा हुए। इस संसार में जो भी आया है, उसे एक न एक दिन यहाँ से जाना ही पड़ेगा, अर्थात् सबकी मृत्यु होनी ही है और मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है। अगर ऐसा है तो फिर शोक किस बात का? क्या इस शोक और विलाप की समाप्ति का कोई उपाय हो सकता है?
तीसरी घटनाः जब विक्रमी संवत 1899 में उनके प्रिय चाचा ने उनके सामने बेहद व्यथा एवं पीड़ा के बीच दम तोड़ा। युवा मूलशंकर के मनोमस्तिष्क में अब सिर्फ एक ही विचार बार-बार कौंध रहा था कि जब जीवन मिथ्या है और मृत्यु एकमात्र सत्य है। ऐसे में क्या मृत्यु पर विजय नहीं पाई जा सकती? यदि हाँ तो कैसे? इस सवाल का जवाब पाने के लिए युवा मूलशंकर खोजबीन में लग गया।
मृत्यु पर विजय पाने का रहस्य!
उन्हें एक आचार्य ने सुझाया कि मृत्यु पर विजय ‘योग’ से पाई जा सकती है और ‘योगाभ्यास’ के जरिए ही अमरता को हासिल किया जा सकता है। आचार्य के इस जवाब ने युवा मूलशंकर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने ‘योगाभ्यास’ के लिए घर छोड़ने का फैसला कर लिया। जब पिता को उनकी इस मंशा का पता चला तो उन्होंने मूलशंकर को मालगुजारी के काम में लगा दिया और इसके साथ उन्हें विवाह-बन्धन में बांधने का फैसला कर लिया ताकि वह विरक्ति से निकलकर मोह-माया में बंध सके। जब उनके विवाह की तैयारियां जोरों पर थीं तो मूलशंकर ने घर को त्यागकर मोक्ष का रहस्य जानने का दृढ़संकल्प ले लिया। ज्येष्ठ माह, विक्रमी संवत् 1903, तदनुसार मई, 1846 को उन्होंने घर त्याग दिया। इसके बाद वे अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए दर-दर भटकते रहे। इस दौरान उन्हें समाज में व्याप्त कर्मकाण्डो, अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों और आडम्बरों से रूबरू होने का पूरा मौका मिला। वे व्यथित हो उठे।
मूलशंकर बने दयानंद सरस्वती
मूलशंकर ने संन्यासी बनने की राह पकड़ ली और अपना नाम बदलकर ‘शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी’ रख लिया। वे सन् 1847 में घूमते-घूमते नर्मदा तट पर स्थित स्वामी पूर्णानंद सरस्वती के आश्रम में जा पहुँचे और उनसे 24 वर्ष, 2 माह की आयु में ‘संन्यास-व्रत’ की दीक्षा ले ली। ‘संन्यास-दीक्षा’ लेने के उपरांत उन्हें एक नया नाम दिया गया, ‘दयानंद सरस्वती’। अब दयानंद सरस्वती को आश्रम में रहते हुए बड़े-बड़े साधु- सन्तों से अलौकिक ज्ञान प्राप्त करने, वेदों, पुराणों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक साहित्यों के गहन अध्ययन करने, अटूट योगाभ्यास करने और योग के माहात्म्य को साक्षात् जानने का भरपूर मौका मिला। उन्होंने अपनी योग-साधना के दृष्टिगत विंध्याचल, हरिद्वार, गुजरात, राजस्थान, मथुरा आदि देशभर के अनेक महत्वपूर्ण पवित्र स्थानों की यात्राएँ कीं। इसी दौरान जब वे कार्तिक सुदी द्वितीया, संवत् 1917, तदनुसार, बुधवार, 4 नवम्बर, सन् 1860 को यम द्वितीया के दिन मथुरा पहुँचे तो उन्हें परम तपस्वी दंडी स्वामी विरजानंद के दर्शन हुए। वे एक परम सिद्ध संन्यासी थे। पूर्ण विद्या का अध्ययन करने के लिए उन्होंने स्वामी जी को अपना गुरू बना लिया। सन् 1860-63 की तीन वर्षीय कालावधि के दौरान दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु की छत्रछाया में संस्कृत, वेद, पाणिनीकृत अष्टाध्यायी आदि का गहन अध्ययन पूर्ण किया।
अद्भुत गुरु-दक्षिणा
पूर्ण विद्याध्ययन के बाद दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु की पसन्द को देखते हुए ‘गुरु-दक्षिणा’ में आधा सेर लौंग भेंट करनी चाहीं। इस पर स्वामी विरजानंद ने दयानंद सरस्वती से बतौर गुरु-दक्षिणा, कुछ वचन माँगते हुए कहा कि देश का उपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मतमतान्तरों की अविद्या को मिटाओ और वैदिक धर्म का प्रचार करो। तब स्वामी दयानंद ने अपने गुरु के वचनों की आज्ञापालन का संकल्प लिया और गुरु का आशीर्वाद लेकर आश्रम से निकल पड़े। उन्होंने देशभर का भ्रमण और वेदों के ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेद-शास्त्रों के आधार पर आध्यात्मिक ज्ञान, योग, हवन, तप और ब्रह्मचर्य की शिक्षा प्रदान की। उन्होंने अलौकिक ज्ञान, समृद्धि और मोक्ष का अचूक मंत्र दिया, ‘वेदों की ओर लौटो’। उन्होंने बताया कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। जिस प्रकार तिलों में तेल समाया रहता है, उसी प्रकार भगवान सर्वत्र समाए रहते हैं। आत्मा में ही परमात्मा का निवास है। परमेश्वर ने ही इस संसार (प्रकृति) को बनाया है। उन्होंने ‘मुक्ति’ के रहस्य बताते हुए कहा कि जितने दुःख हैं, उन सबसे छूटकर एक सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सदा आनंद में रहना और फिर जन्म-मरण आदि दुःखसागर में न गिरना, ‘मुक्ति’ है। ‘मुक्ति’ पाने का मुख्य साधन सत्य का आचरण है।
स्वराज्य के प्रथम सन्देशवाहक
पराधीन आर्यावर्त (भारत) में यह कहने का साहस सम्भवतः सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ही किया था कि ‘‘आर्यावर्त (भारत), आर्यावर्तियों (भारतीयों) का है।’’ सन 1857 की क्रान्ति की योजना में स्वामी जी का भी योगदान था। वे अपने प्रवचनों में श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे।
सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार
देश में प्रचलित सभी धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ स्वामी दयानंद सरस्वती ने बड़ा कदम उठाया उन्होंने जाति भेद, मूर्ति पूजा, सती-प्रथा, बहु विवाह, बाल विवाह, बलि-प्रथा आदि प्रथाओं का घोर विरोध किया। दयानंद सरस्वती ने पवित्र जीवन तथा प्राचीन हिन्दू आदर्श के पालन पर बल दिया उन्होंने विधवा विवाह और नारी शिक्षा की भी वकालत की, सबसे ज्यादा उन्हें जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता से चिढ़ थी और इसे समाप्त करने के लिए उन्होंने कई कठोर कदम उठाए।
कालजयी रचना ‘सत्यार्थ-प्रकाश’
स्वामी दयानंद ने देश में रूढ़ियों, कुरीतियों, आडम्बरों, पाखण्डों आदि से मुक्त एक नए स्वर्णिम समाज की स्थापना के उद्देश्य से 10 अप्रैल, 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932) को गिरगाँव मुम्बई व पूना में ‘आर्य समाज’ नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की। 24 जून, 1877 को संक्राति के दिन लाहौर में ‘आर्य समाज’ की स्थापना हुई, जिसमें आर्य समाज के दस प्रमुख सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध किया गया। ये सिद्धांत आर्य समाज की शिक्षाओं का मूल निष्कर्ष हैं। उन्होंने सन् 1874 में अपने कालजयी ग्रन्थ ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ की रचना की। वर्ष 1908 में इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। इसके अलावा उन्होंने हिन्दी में ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’, ‘संस्कार-विधि’, ‘आर्याभिविनय’ आदि अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’, ‘गोकरूणानिधि’, ‘व्यवहारभानु’ ‘पंचमहायज्ञविधि’, ‘भ्रमोच्छेदन’, ‘भ्रान्तिनिवारण’ आदि अनेक महान ग्रन्थों की रचना की। विद्वानों के अनुसार, कुल मिलाकर उन्होंने 60 पुस्तकें, 14 संग्रह, 6 वेदांग, अष्टाध्यायी टीका आदि अनेक लेख लिखे। स्वामी दयानंद सरस्वती के तप, योग, साधना, वैदिक प्रचार, समाजोद्धार और ज्ञान का लोहा बड़े-बड़े विद्वानों और समाजसेवियों ने माना।
स्वामीजी द्वारा उठाए गए समाज कल्याण के विषय
1. पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपने पति की चिता के साथ जीवित ही प्राण त्यागने की अमानवीय कुप्रथा (सती प्रथा) का पुरजोर विरोध।
2. शास्त्रज्ञान अनुसार जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष अविवाहित रह कर ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए। इसी तर्क से प्रोत्साहित हो कर स्वामीजी ने बालविवाह प्रथा के विरुद्ध मुहिम छेड़ी थी।
3. स्वामी दयानंद सरस्वती नारी जाति को समृद्ध समाज का आधार मानते थे। इसी कारण महिला शिक्षा और सुरक्षा की ओर उनका विशेष ध्यान रहा था। उनका यह भी मानना था कि महिलाओं को पुरुष समकक्ष अधिकार मिलने चाहिए।
4. उनके समय में पति की मृत्यु के बाद स्त्री की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती थी, उन्हें प्राथमिक सामान्य मानवीय अधिकारों से भी उन्हे वंचित कर दिया जाता था। स्वामी दयानंद सरस्वती नें इसका प्रखर विरोध किया।
5. स्वामी जी के द्वारा जातिवाद और वर्णभेद की कुप्रथा का भी प्रखर विरोध किया गया था। उन्होने समस्त वर्ग के लोगों को समान अधिकार देने की अपील की थी।
6. अंदरूनी लड़ाई का लाभ शत्रु ले जाता है। इसीलिए स्वामी दयानंद सरस्वती का यह नारा था कि, सभी धर्म के अनुयायी एक ध्वज तले एकत्रित हो जाएँ ताकि आपसी गृहयुद्ध की स्थिति से बचा जा सके और देश में एकता की भावना बनी रहे।
7. स्वामी दयानंद सरस्वती हिन्दी भाषा के समर्थक और प्रचारक भी थे। स्वामी जी वैदिक भाषा संस्कृत में भी प्रवीण थे। बाल्यकाल से संस्कृत का अभ्यास होने के कारण उनकी वक्तृत्व शैली अत्यंत सुदृढ़ और प्रभावी थी।
संजय शाण्डिल्य