हमारे देश भारत में सदियों से अनेक महान संतों ने जन्म लेकर इस भारतभूमि को धन्य किया है जिसके कारण भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। जब-जब हमारे देश में ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिपांति, धर्मभेदभाव अपने चरम अवस्था पर हुआ है, तब-तब हमारे देश भारत में अनेक महापुरुषों ने इस धरती पर जन्म लेकर समाज में फैली बुराईयों, कुरीतियों को दूर करते हुए अपने बताये हुए सच्चे मार्ग पर चलते हुए भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बाँधने का काम किया है। इन्हीं महान संतो में संत गुरु रविदास जी का भी नाम आता है जो कि एक 15वी सदी के एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक कवि और धर्म की भेदभावना से ऊपर उठकर भक्ति भावना दिखाते हैं। संत कवि रविदास कबीर के गुरु भाई थे। गुरु भाई अर्थात दोनों के गुरु एक ही थे और वे थे स्वामी रामानंद। उनकी इस साधुता को देखकर संत कबीर ने कहा था कि – साधु में रविदास संत हैं, सुपात्र ऋषि सो मानियां।
रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म लगभग 600 साल पूर्व काशी में हुआ था। चर्मकार कुल में जन्म लेने के कारण जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और इस व्यवसाय को ही उन्होंने ध्यान विधि बना डाला। कार्य कैसा भी हो, यदि आप उसे ही परमात्मा का ध्यान बना लें तो मोक्ष आसान हो जाता है। संत रविदास के उच्च आदर्श और उनकी वाणी, भक्ति एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानियों, साधुओं तथा विद्वज्जनों ने उनको सम्मान दिया है।
संत रविदास राम और कृष्ण भक्त परंपरा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई धुनों में भजन भी बनाए गए हैं। जैसे- प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। इस प्रसिद्ध भजन को सभी जानते हैं।
पूरे भारत में खुशी और बड़े उत्साह के साथ हर साल माघ महीने के पूर्ण चन्द्रमा दिन पर (माघ पूर्णिमा पर) हर साल संत रविदास की जयंती या जन्म दिवस को मनाया जाता है। जबकि, वाराणसी में लोग इसे किसी उत्सव या त्योहार की तरह मनाते हैं। महान संत गुरु रविदास जी का जन्म उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गाँव में हुआ था इनके पिता संतो़ख दास जी जूते बनाने का काम करते थे।
रविदास जी को बचपन से ही साधु-संतो के प्रभाव में रहना अच्छा लगता था जिसके कारण इनके व्यवहार में भक्ति की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी हुई थी लेकिन रविदास जी भक्ति के साथ अपने काम पर विश्वास करते थे जिनके कारण इन्हें जूते बनाने का काम अपने पिता से प्राप्त हुआ था और रविदास जी अपने काम को बहुत ही मेहनत के साथ पूरी निष्ठा के साथ करते थे और जब भी किसी को किसी सहायता की जरूरत पड़ती थी रविदास जी अपने काम का बिना मूल्य लिए ही लोगो को जूते ऐसे ही दान में दे देते थे।
संत रविदास के जीवन की कुछ महत्वपूर्णं घटनाएँ
एक बार की बात है किसी त्यौहार पर इनके गाँव वाले सभी लोग गंगास्नान के लिए जा रहे थे तो सभी ने रविदास जी से भी गंगा स्नान जाने का निवेदन किया लेकिन रविदास जी ने गंगास्नान करने जाने से मना कर दिया क्यूंकि उसी दिन रविदास जी ने किसी व्यक्ति को जूते बनाकर देने का वचन दिया था। रविदास जी ने कहा कि यदि मान लो मै गंगा स्नान के लिए चला भी जाता हूँ तो मेरा ध्यान तो अपने दिए हुए वचन पर लगा रहेगा फिर यदि मैं वचन तोड़ता हूँ तो गंगास्नान का पुण्य कैसे प्राप्त हो सकता है? यह घटना रविदास जी के कर्म के प्रति निष्ठा और वचन पालन को दर्शाती है। इस घटना पर संत रविदास जी ने कहा कि यदि मेरा मन सच्चा है मेरी इस जूते धोने वाली कठौती में ही गंगा है। रविदास जी हमेशा से ही जाति-पांति के भेदभाव के खिलाफ थे और जब भी मौका मिलता वे हमेशा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाते रहते थे रविदास जी के गुरु रामानन्द जी थे जिनके संत और भक्ति का प्रभाव रविदास जी के उपर पड़ा था, इसी कारण रविदास जी को भी मौका मिलता वे भक्ति में तल्लीन हो जाते थे।
इस स्वभाव के कारण रविदास जी से बहुत सुनना पड़ता था और शादी के बाद तो जब रविदास जी अपने बनाये हुए जूते को किसी अभावग्रस्त को बिना मूल्य में ही दान दे देते थे तो इनका घर चलाना मुश्किल हो जाता था। इससे तंग आकर रविदास जी को इनके पिता ने अपने परिवार से अलग कर दिया, फिर भी रविदास जी ने कभी भी भक्तिमार्ग को नही छोड़ा।
जिसके बाद रविदास जी ने यह पंक्ति कही –
अब कैसे छूटे राम रट लागी।। प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।। प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।। प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’।।
अर्थात रविदास जी ईश्वर को अपना अभिन्न अंग मानते थे और ईश्वर के बिना जीवन की कल्पना भी नही करते थे जिसका वर्णन हमे इस पंक्ति में दिखाई देता है।
हिंसक पशु भी हुआ नतमस्तक
एक बार उन्होंने अपने एक ब्राह्मण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की थी। जिसके बाद वो दोनों गहरे साथी बन गये। हालाँकि दूसरे ब्राह्मण लोग इस दोस्ती से जलते थे, सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राह्मण मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म दिया। शेर जल्दी से उस ब्राह्मण लड़के को मारने के लिये आया लेकिन गुरु रविदास को उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर थोड़ा शांत हुआ। शेर वहाँ से चला गया और गुरु रविदास अपने मित्र को अपने साथ घर ले गये। इस बात से राजा और ब्राह्मण लोग बेहद शर्मिंदा हुये और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गये।
मनुष्यता के समर्थक
रविदास जी जाति व्यवस्था के बड़े विरोधी थे। उनका मानना था की मनुष्यों द्वारा जातिपांति के चलते मनुष्य मनुष्य से दूर होता जा रहा है और जिस जाति से मनुष्य मनुष्य में बँटवारा हो जाये तो फिर जाति का क्या लाभ ? जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।। रविदास जी के समय में जातिगत भेदभाव अपने चरम अवस्था पर था। जब रविदास जी के पिता की मृत्यु हुई तो उनके दाहसंस्कार के लिए लोगों से मदद माँगने पर भी नही मिलती है। लोगों का मानना था कि वे शुद्र जाति के हैं और जब उनका अंतिम संस्कार गंगा में होगा तो इस प्रकार गंगा भी प्रदूषित हो जायेगी। जिसके कारण कोई भी उनके पिता के दाह संस्कार के लिए नही आता है तो फिर रविदास जी ईश्वर से प्रार्थना करते है। ईश कृपा से गंगा में तूफान आ जाने से उनको पिता का मृत शरीर गंगा में विलीन हो जाता है और तभी से माना जाता है काशी में गंगा उलटी दिशा में बहती है
महानता की जाँच
कई बड़े राजा-रानियों और दूसरे समृद्ध लोग संत रविदास के अनुयायी थे, लेकिन वो किसी से भी किसी प्रकार का धन या उपहार नहीं स्वीकारते थे। एक दिन भगवान के द्वारा उनके अंदर एक आम इंसान के लालच को परखा गया। एक दर्शनशास्त्री गुरु रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और उसके बारे में आश्चर्यजनक बात बतायी कि ये किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता है। उस दर्शनशास्त्री ने गुरु रविदास को उस पत्थर को लेने के लिये दबाव दिया और साधारण झोपड़े की जगह बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने को कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। उस दर्शनशास्त्री ने फिर से उस पत्थर को रखने के लिये गुरुजी पर दबाव डाला और कहा कि मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा साथ ही इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रखने को कहा। गुरु जी ने उसकी ये बात मान ली। वो दर्शनशास्त्री कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है। गुरुजी के इस अटलता और धन के प्रति इस विकर्षणता से वो बहुत खुश हुए। उन्होंने वो कीमती पत्थर लिया और वहाँ से गायब हो गये। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयाइयों को सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका केलिये कड़ी मेहनत करो। आस्था का चमत्कार एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश के द्वारा उनके दरबार में पंडित पुजारी की शिकायत पर बुलाया गया। संत रविदास को राजा के दरबार में प्रस्तुत किया गया।
जहाँ गुरुजी और पंडित पुजारी से फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया। राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा। दोनों गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे। पुजारी ने हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लाया था, वहीं संत रविदास ने 40 कि.ग्रा. की चाकोर आकार की मूर्ति बनवाई थी। राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये बहुत बड़ी भीड़ उमड़ी थी। पहला मौका पुजारी को दिया गया, पुजारी जी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ति को गंगा जी में प्रवाहित किया, लेकिन वो गहरे पानी में डूब गयी। उसी तरह दूसरा मौका संत रविदास का आया, गुरु जी ने मूर्ति को अपने कंधों पर लिया और शिष्टता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगी। इस प्रकिया के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि पंडित पुजारी झूठा था और गुरु रविदास सच्चे भक्त थे। दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग उनके पाँव को स्पर्श करने लगे। तब से, काशी नरेश और दूसरे लोग उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे।
माँ गंगा ने स्वीकारी भेंट एक बार पंडित गंगा राम गुरु जी से मिले और उनका सम्मान किया। वो हरिद्वार में कुंभ उत्सव में जा रहे थे गुरु जी ने उनसे कहा कि ये सिक्का आप गंगा माता को दे दीजियेगा, अगर वो इसे आपके हाथों से स्वीकार करें तो। पंडित जी ने बड़ी सहजता से इसे ले लिया और वहाँ से हरिद्वार चले गये। वो वहाँ पर नहाये और वापस अपने घर लौटने लगे वो भी गुरु जी का सिक्का गंगा माता को दिये बिना। वो अपने रास्ते में थोड़ा कमजोर होकर बैठ गये और महसूस किया कि वो कुछ भूल रहे हैं, वो दुबारा से नदी के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए – माता, रविदास की भेंट स्वीकार करो। गंगा माँ पानी से बाहर निकली और उनके अपने हाथ से सिक्के को स्वीकार किया। माँ गंगा ने उपहार में संत रविदास के लिये सोने के कँगन भेजे। पंडित गंगा राम घर वापस आये और वो कँगन गुरु जी के बजाय अपनी पत्नी को दे दिया। एक दिन पंडित जी की पत्नी उस कँगन को बाजार में बेचने के लिये गयी। सुनार चालाक था, सो उसने कँगन को राजा और राजा ने रानी को दिखाने का फैसला किया। रानी ने उस कँगन को बहुत पसंद किया और दूसरे हाँथ के कंगन को लाने के लिए कहा। पंडितजी कंगन कहाँ से लाते, वे अपने किये पर बहुत शर्मिंदा थे क्योंकि उसने गुरुजी को धोखा दिया था। राजा के क्रोध के भय से वो रविदास जी से मिले। और अपनी गलती स्वीकार करते हुए माफी के लिये निवेदन किया। गुरु जी ने उससे कहा कि ‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’’ ये लो दूसरा कँगन, और गुरूजी ने पानी से भरे मिट्टी के बर्तन में माँ गंगा का स्मरण कर कंगन निकाल कर पंडित जी को दे दिया। गुरु जी की इस दैवीय शक्ति को देखकर वो गुरु जी का भक्त बन गया।
मीरा बाई से जुड़ाव संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना जाता है, जो कि राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास की आध्यात्मिकता से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के सम्मान में मीरा बाई ने कुछ पंक्तियाँ लिखी है-
“गुरु मिलीया रविदास जी” वो अपने माता-पिता की एक मात्र संतान थी। जो बाद में चितौड़ की रानी बनी। मीरा बाई ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया जिसके बाद वो अपने दादा जी के संरक्षण में आ गयी जो कि रविदास जी के अनुयायी थे। वो अपने दादा जी के साथ कई बार गुरु रविदास से मिली और उनसे काफी प्रभावित हुयी। अपने विवाह के बाद, उन्हें और उनके पति को गुरु जी से आशीर्वाद प्राप्त हुआ। बाद में मीराबाई ने अपने पति और ससुराल पक्ष के लोगों की सहमति से गुरु जी को अपने वास्तविक गुरु के रुप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने गुरु जी के उपदेशों को सुनना शुरु कर दिया जिसने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा और वो प्रभु भक्ति की ओर आकर्षित हो गयी। कृष्ण प्रेम में डूबी मीराबाई भक्ति गीत गाने लगी और दैवीय शक्ति का गुणगान करने लगी। अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थीः- ‘‘गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी’’। दिनों-दिन वो ध्यान की ओर आकर्षित हो रही थी और वो अब संतों के साथ भी रहने लगी थी। उनके पति की मृत्यु के बाद उनके देवर और ससुराल के लोग उन्हें वापस लेने आये लेकिन वो उन लोगों के सामने बिल्कुल भी व्यग्र और नरम नहीं पड़ी। बल्कि एक किंवदंती के अनुसार उन्हें तो आधी रात को उन लोगों के द्वारा गंभीरी नदी में फेंक दिया गया था लेकिन गुरु रविदास जी के आशीर्वाद से वो बच गयी। एक बार अपने देवर के द्वारा दिये गये जहरीले दूध को गुरु जी द्वारा अमृत मान कर पी गयी और खुद को धन्य समझा।
उन्होंने कहा किः ‘‘विष को प्याला राना जी मिलाय द्यो मेरथानी ने पाये कर चरणामित् पी गयी रे, गुण गोविन्द गाये’’। सिक्ख मत के लिये गुरु जी का योगदान सिक्ख धर्मग्रंथ में गुरू रविदासजी के पद, भक्ति गीत, और दूसरे लेखन (41 पद) आदि संकलित किए गये थे, गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यतः रविदास जी के अनुयायियों को रविदासीया कहा जाता है। गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखे गए 41 पवित्र लेख हैं जो इस प्रकार है; ‘‘रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)’’। रविदास जी के जीवन में ऐसे अनेक घटनाएं हैं जो आज भी हमें जातिपांति की भावना से ऊपर उठकर सच्चे मार्ग पर चलते हुए समाज कल्याण का मार्ग दिखाती हैं। भले ही महान संत गुरु रविदास जी आज हमारे बीच नही हैं, लेकिन उनके द्वारा बताये गये उपदेश और भक्ति की भावना हमें समाज कल्याण का मार्ग दिखाती हैं। महान संत गुरु रविदास ने अपने जीवन के व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया था कि इन्सान चाहे किसी भी कुल या जाति में जन्म ले ले लेकिन वह अपने जाति और जन्म के आधार पर कभी भी महान नही बनता है। जब इन्सान दूसरों के प्रति श्रद्धा और भक्ति का भाव रखते हुए लोगों के प्रति अपना जीवन न्यौछावर कर दे वहीं इन्सान सच्चे अर्थो में महान होता है। ऐसे ही लोग युगों युगों तक लोगों के दिलों में जिन्दा रहते है।
तरूण शर्मा