घृणा और प्रेम मानव मन की दो ऐसी भिन्न अवस्थाएं हैं, जिसके हम सभी अनुभवी हैं। एक ओर जहां प्रेम दूसरों को आकर्षित करता है, वहीं दूसरी और घृणा विकर्षित करती है। वातावरण में कटुता, क्रोध, गंदगी फैलाती है, मानसिक रोग उत्पन्न करती है और आत्म-भाव में संकोच उत्पन्न करती है। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि हमारी किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति घृणा का प्रमुख कारण हमारे ही अंदर है।
घृणा की मनोवृत्ति का मूल कारण हमारे मन में
प्रायः देखा जाता है कि जो व्यक्ति जिस प्रकार के लोगों से घृणा करता है, वह स्वयं भी कुछ काल के अनंतर उन्हीं घृणित गुणों को अपना लेता है। घृणा एक ऐसी अग्नि है, जिसमें मनुष्य का अपना ही रक्त और मस्तिष्क ईंधन की तरह जलने लगते हैं। उसका खून खौलता रहता है, वह डाह एवं रोष के मारे जलता है, उसका विवेक नष्ट हो जाता है और उसका शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य भी बिगडने लगता है। घृणा की मनोवृत्ति किसी विशेष विचार को हमारे मस्तिष्क में बैठा देती है। संवेगों के उत्तेजित होने पर कभी-कभी यही बाह्य विचार का रूप धारण कर लेते हैं और जितना ही अधिक हम उनको भूलना चाहते हैं, उतने ही वे हमारे मन को जकड़ते जाते हैं और अंत में मानसिक रोग का रूप धारण कर लेते हैं। घृणा की मनोवृत्ति का मूल कारण हमारे मन में स्थित कोई ग्रंथि होती है, जिसको पहचानकर सुलझाने की कोशिश हमें करनी चाहिए।
छुटकारा पाना नहीं है आसान
ग्रंथि के सुलझते ही घृणा की मनोवृत्ति भी अपने आप नष्ट हो जाएगी। साधारणतः हम अपनी बुराइयों को स्वीकार नहीं करना चाहते, किंतु आध्यात्मिक नियमानुसार हमें एक न एक दिन अपनी बुराइयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है। तत्पश्चात् हमारी प्रकृति धीरे-धीरे हमें आत्म-स्वीकृति की ओर ले जाना आरंभ करती है। पहले हम अपने इन दुर्गुणों को दूसरों में देखने लगते हैं और धीरे-धीरे उन्हीं पर विचार करते-करते स्वयं उनके शिकार बन जाते हैं।
वास्तव में दुर्गुण कहीं बाहर से नहीं आते। वे तो पहले ही हमारे भीतर मौजूद रहते हैं। हम ही उनकी उपस्थिति स्वीकार नहीं करते इसीलिए प्रकृति टेढ़े-मेढ़े रास्ते से उनकी आत्म-स्वीकृति कराती है। अगर प्रारंभ में ही हम इन दुर्गुणों को मान लें, तो उनसे छुटकारा पा जायें किंतु जब प्रकृति जबरदस्ती इन्हें स्वीकार कराती है तो वे हमें जकड़ लेते हैं। फिर इनसे छुटकारा पाना उतना सरल नहीं होता। कैसा बनाना चाहते हैं अपना चरित्र हम यह कहकर घृणा की उत्पत्ति का औचित्य नहीं ठहरा सकते कि अमुक व्यक्ति ने ऐसा किया और उसके परिणामस्वरूप हमारे मन में उसके प्रति घृणा पैदा होना स्वाभाविक था या यदि हममें घृणा न हो तो दूसरों के गलत कार्यों के विरुद्ध आवाज कैसे उठा सकेंगे और घृणा के अभाव में तो हम उनके गलत कार्यों को बर्दाश्त करके झुकते जाएंगे। नहीं! हमें यह समझना चाहिए कि मन में किसी तरह भी घृणा की उपस्थिति अनुचित है क्योंकि दूसरे की बुराई को बुराई बताते हुए हम अपनी बुराई को अनुचित नहीं कह सकते। स्मरण रहे! हमारे मन पर दूसरों के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः हमारा चरित्र उसी प्रकार बनता जाता है।
घृणा की भावना हर प्रकार से घातक है
मान लीजिये यदि हमारे आस-पास हमसे प्रेम करने वाले व्यक्ति होते हैं, तो हमारे अंदर भी प्रेम की भावना का उदय होना स्वाभाविक होता है। जब हम किसी व्यक्ति के गुणों अथवा दुर्गुणों पर बार-बार विचार करते हैं, तो हमारे विचार उसके लिए निर्देश बन जाते हैं और इन निर्देशों का गहरा प्रभाव उसके ऊपर पड़ता है। उसके भीतर वही गुण अथवा बुराइयाँ स्थान पा लेती हैं। इस तरह दोनों प्रकार से घृणा की भावना घातक होती है।
राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंज जी