यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
व्यक्ति से परिवार,परिवार से समाज और समाज से एक राष्ट्र का निर्माण होता है। अतः देश को मज़बूत और शक्तिशाली बनाने के लिए स्वस्थ समाज का होना नितांत आवश्यक है। समाज से आदर्शों का विलुप्त होना, सदाचारों का खण्डित होना या नष्ट हो जाना व्यक्तिगत जीवन मूल्यों का भी विनाश है और नैतिकताओं पर व्यक्तिगत अनास्था, सामाजिक चरित्र का पतन है। इसलिए सुधार व्यक्तिगत और समाज, दोनो स्तर पर समानांतर और समान रूप से होना बहुत ही जरूरी है।
‘‘समाज के बदलने से पहले खुद को बदलना ज़रूरी है, दुनिया को बदलने से पहले खुद को ठीक करना ज़रूरी है। यह बिल्कुल ऐसा ही है कि हमें जब ट्रैफिक पुलिस वाला पकड़ता है और चालान करने लगता है तो हम सौ रुपए देकर अपनी जान छुड़ाते हैं। ऐसे में हम क्या करते हैं? चूंकि चालान पांच सौ रुपए का होता, इसलिए हमने चार सौ रुपए बचा लिए। ज़ाहिर है हम उस ट्रैफिक वाले से चार गुणा ज्यादा बड़े चोर हैं। ऐसे में हम किस समाज के बदलाव के बात सोच सकते हैं।’’
“पहले स्वयं सुधरो, फिर दुनिया को सुधारना“ एवं “क्या करें दुनिया ही ऐसी है“ – वस्तुतः यह दोनों कथन विरोधाभासी हैं। या यूँ कहें कि ये दोनो कथन मायावी बहाने मात्र है। स्वयं से सुधार इसलिए नहीं हो सकता कि दुनिया में अनाचार फैला है, स्वयं के सदाचारी बनने से सारे कार्य सिद्ध नहीं हो सकते और दुनिया इसलिए सदाचारी नहीं बन पा रही कि लोग व्यक्तिगत रूप से सदाचारी नहीं है। व्यक्ति और समाज दोनों परस्पर सापेक्ष है। व्यक्ति के बिना समाज नहीं बन सकता और समाज के बिना व्यक्ति का चरित्र उभर नहीं सकता। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत सुधार के लिए सुधरे हुए समाज की अपेक्षा रहती है और समाज सुधार के लिए व्यक्ति का सुधार एक अपरिहार्य आवश्यकता है।
मनुष्य होने का एक अर्थ है कि वह मननशील बने। जब वो मननशील होगा तो अवश्य ही वह केवल अपनी उन्नति से सन्तुष्ट नहीं होगा अपितु सबकी उन्नति में सहायक व सहयोगी होगा और दूसरों की उन्नति से सन्तुष्ट होगा।
यूँ तो सेवा का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है, यथादृदेश-सेवा, समाज-सेवा, गौ-सेवा, गुरु-सेवा, असहाय-सेवा आदि। इन सेवाओं में समाज सेवा का प्रमुख स्थान है। सेवा करने से दूसरों के ऊपर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके द्वारा उनके हृदय पर विजय प्राप्त की जा सकती है। सेवा का सीधा संबंध हृदय से है। जो कार्य हृदय से जुड़ जाता है वह अमिट हो जाता है। भूखे को पहले भोजन चाहिए ज्ञान नहीं। प्यासे को पहले पानी चाहिए, ध्यान नहीं। रोग पीड़ित को पहले दवा चाहिए, उपदेश नहीं। बेघर-बार को पहले घर चाहिए, संदेश नहीं। असहाय को पहले सहायता चाहिए, आदर्शवादी बातें नहीं। ठिठुरते को पहले वस्त्र चाहिए,
लच्छेदार भाषण नहीं। यदि हम इन कार्यों से अपने को जोड़ लें तो अपना वैदिक संदेश आसानी से जन-जन तक पहुंचा सकते हैं। किया गया कार्य स्वयं में बहुत बड़ा उपदेश है। आचारण की भाषा मौन होती है। सदाचारी का हर क्रियाकलाप पल-पल मौन उपदेश देता है।
अभिवादनशीलस्यै नित्यं वृद्धोप सेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
अर्थात् सेवा करने से आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-सेवा काम कठिन जग जाना। अर्थात् सेवा बहुत कठिन कार्य होता हैं। अतः सेवा का बड़ा महत्व है। सेवा करके हम स्थूल एवं सूक्ष्म जगत से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
व्यास मुनि ने लोक-संग्रह को अनासक्त कर्म बताया। लोक-संग्रह यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जनदृउपार्जन। ‘निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के निमित्त होते हैं।’ इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है।’ व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे। यह कोई पहेली नहीं, सीधीदृसी व्यवस्था थी। त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की। सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली। ऐसी व्यवस्था जिसमें ‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें।’ जिसमें आर्थिक-सामाजिक- राजनीतिक यानी हर स्तर पर समानता हो। गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं। हर व्यक्ति यथासंभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथासंभव भोग कर सकें। संदेश साफ है – लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र, व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों।
समाज के अपने बंधुओं की पीड़ा और वेदना को समझने के लिए मन संवेदनशील होना चाहिए। सेवा के द्वारा उठी हुई सूक्ष्म तरंगे आपके जीवन को सुखद अनुभूतियों से अभिभूत कर देंगी। आप सच्चे अर्थों में मानव कहलाने के अधिकारी होंगे। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियों सार्थक हो जाएंगी-
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।