अण्डमान में बन्दी-जीवन काल में उन्हें वांछित एकांत मिल गया, जहां उन्होंनें राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की समस्या पर गहन विचार किया। उन्होंने अनुभव किया कि देश में चलने वाला स्वतंत्रता संग्राम इस पुरातन राष्ट्र का बन्धन तोड़ने का प्रयास है, जो 1000 वर्षों से गुलामी में पड़ा है और जो अपने अधिकार का दावा करने को उद्यत है। उन्होंने यह भी समझा कि उनके पूर्ववर्ती अरविन्द, तिलक आदि स्वातंत्र्य सेनानी भी अनजाने ही भारत राष्ट्र के स्वतंत्र होने की कामना व्यक्त करते रहे थे। उन्होंने समझा कि यह राष्ट्र सदियों से इसी भावना और आस्था का स्वामी रहा है और इसी कारण आपत्तिकाल में वह निरन्तर अपने पैरों पर खड़ा रहा है। उन्हीं दिनों उन्हें भारतमाता के अस्तित्व की भी अनुभूति हुई और उनके सामने आंदोलन का स्पष्ट स्वरूप उभर कर आया।
भारत को एक ‘निर्माणाधीन संश्लिष्ट राष्ट्र’ बताने की ब्रितानी साजिश भी उन्होंने समझी। उन्होंने यह अनुभव भी किया कि अहिन्दू वर्ग देश के राजनीतिक तंत्र में एकरस नहीं हो सका है, वह अब भी अपने हित भारतेत्तर देशों में देखता पहिचानता है और कि यह वर्ग कुछ दिनों पहले ब्रिटेन द्वारा विजित अपना राज्य पुनः स्थापित करने के सपने भी देख रहा है। उन्होंने देखा कि अण्डमान में जो दो चार मुसलमान बन्दी हैं, वे भी युवा क्रान्तिकारियों को धर्म परिवर्तन के हेतु फुसलाने का प्रयास करते हैं। अतः धीरे-धीरे सावरकर की क्रान्तिकारी प्रवृत्ति ठण्डी होने लगी और उन्होंने वह माध्यम प्राप्त किया जो आगे चलकर उनके जीवन का ध्येय बना। ‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दूपद पादशाही’ पुस्तकें जो अण्डमान काल के उपरान्त लिखी गई हैं, स्पष्टतया उनके विचारों में आ गये परिवर्तन को उजागर करती हैं।