‘महाभारत’ के वन पर्व में सावित्री और यमराज के वार्तालाप का प्रसंग आता हैः जब यमराज सत्यवान (सावित्री के पति) के प्राणों को अपने पाश में बाँध ले चले, तब सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। उसे अपने पीछे आते देखकर यमराज ने उसे वापस लौट जाने के लिए कई बार कहा, किंतु सावित्री चलती ही रही एवं अन्ततोगत्वा अपनी धर्मचर्चा से उसने यमराज को प्रसन्न कर लिया।
सावित्री बोलीः ‘‘सत्पुरुषों का संग एक बार भी मिल जाये तो वह अभीष्ट की पूर्ति कराने वाला होता है और यदि उनसे प्रेम हो जाये तो फिर कहना ही क्या? संत-समागम कभी निष्फल नहीं जाता। अतः सदा सत्पुरुषों के साथ ही रहना चाहिए।
देव! आप सारी प्रजा का नियमन करने वाले हैं, अतः ‘यम’ कहलाते हैं। मैंने सुना है कि मन, वचन और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति द्रोह न करके सब पर समान रूप से दया करना और दान देना श्रेष्ठ पुरुषों का सनातन धर्म है। यों तो संसार के सभी लोग सामान्यतः कोमलता का बर्ताव करते हैं किंतु जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे अपने पास आये हुए शत्रु पर भी दया ही करते हैं।”
यमराजः ‘‘कल्याणी! जैसे प्यासे को पानी मिलने से तृप्ति होती है, उसी प्रकार तेरी धर्मानुकूल बातें सुनकर मुझे प्रसन्नता होती है।’’
सावित्री ने आगे कहाः “विवस्वान (सूर्यदेव) के पुत्र होने के नाते आपको ‘वैवस्वत’ कहते हैं। आप शत्रु-मित्र आदि के भेद को भुलाकर सबके प्रति समान रूप से न्याय करते हैं और आप ‘धर्मराज’ कहलाते हैं। अच्छे मनुष्यों को सत्य पर जैसा विश्वास होता है, वैसा अपने पर भी नहीं होता। अतएव वे सत्य में ही अधिक अनुराग रखते हैं विश्वास ही सौहार्द का कारण है तथा सौहार्द ही विश्वास का। सत्पुरुषों का भाव सबसे अधिक होता है, इसलिए उन पर सभी विश्वास करते हैं।”
यमराजः “सावित्री! तूने जो बातें कही हैं वैसी बातें मैंने और किसी के मुँह से नहीं सुनी हैं। अतः मेरी प्रसन्नता और भी बढ़ गयी है। अच्छा, अब तू बहुत दूर चली आयी है। जा, लौट जा।”
फिर भी सावित्री ने अपनी धार्मिक चर्चा बंद नहीं की। वह कहती गयीः ‘‘सत्पुरुषों का मन सदा धर्म में ही लगा रहता है। सत्पुरुषों का समागम कभी व्यर्थ नहीं जाता। संतों से कभी किसी को भय नहीं होता। सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य को भी अपने समीप बुला लेते हैं। वे ही अपने प्रभाव से पृथ्वी को धारण करते हैं। भूत भविष्य का आधार भी वे ही हैं। उनके बीच में रहकर श्रेष्ठ पुरुषों को कभी खेद नहीं होता। दूसरों की भलाई करना सनातन सदाचार है, ऐसा मानकर सत्पुरुष प्रत्युपकार की आशा न रखते हुए सदा परोपकार में ही लगे रहते हैं।’’
सावित्री की बातें सुनकर यमराज द्रवीभूत हो गये और बोलेः “पतिव्रते! तेरी ये धर्मानुकूल बातें गंभीर अर्थ से युक्त एवं मेरे मन को लुभाने वाली हैं। तू ज्यों-ज्यों ऐसी बातें सुनाती जाती है, त्यों-त्यों तेरे प्रति मेरा स्नेह बढ़ता जाता है। अतः तू मुझसे कोई अनुपम वरदान माँग ले।”
सावित्रीः “भगवन्! अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिए। इससे आपके ही सत्य और धर्म की रक्षा होगी। पति के बिना तो मैं सुख, स्वर्ग, लक्ष्मी तथा जीवन की भी इच्छा नहीं रखती।”
धर्मराज वचनबद्ध हो चुके थे। उन्होंने सत्यवान को मृत्युपाश से मुक्त कर दिया और उसे चार सौ वर्षों की नवीन आयु प्रदान की। सत्यवान के पिता द्युमत्सेन की नेत्रज्योति लौट आयी एवं उन्हें अपना खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया। सावित्री के पिता को भी समय पाकर सौ संतानें हुईं एवं सावित्री ने भी अपने पति सत्यवान के साथ धर्मपूर्वक जीवन-यापन करते हुए राज्य-सुख भोगा।
इस प्रकार सती सावित्री ने अपने पातिव्रत्य के प्रताप से पति को तो मृत्यु के मुख से लौटाया ही, साथ ही पति के एवं अपने पिता के कुल, दोनों की अभिवृद्धि में भी वह सहायक बनी।
जिस दिन सती सावित्री ने अपने तप के प्रभाव से यमराज के हाथ में पड़े हुए पति सत्यवान को छुड़ाया था, वही दिन ‘वट सावित्री पूर्णिमा’ के रूप में आज भी मनाया जाता है। इस दिन सौभाग्यशाली स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए वट वृक्ष की पूजा करती हैं एवं व्रत-उपवास आदि रखती हैं। कैसी रहीं हैं भारत की आदर्श नारियाँ! अपने पति को मृत्यु के मुख से लौटाने में यमराज से भी धर्मचर्चा करने का सामर्थ्य रहा है भारत की देवियों में। सावित्री की दिव्य गाथा यही संदेश देती है कि हे भारत की देवियों! तुममें अथाह सामर्थ्य है, अथाह शक्ति है। संतों-महापुरुषों के सत्संग में जाकर तुम अपनी छुपी हुई शक्ति को जाग्रत करके अवश्य महनीय बन सकती हो।