मन्त्र की महिमा
एक बार परमहंसजी से एक जिज्ञासु ने पूछा – ‘‘क्या मन्त्र जप सबको समान लाभ देते हैं?’’ उन्होंने कहा – ‘‘नहीं!’’ तो जिज्ञासु ने पूछा – ‘‘क्यों ?’’ परमहंसजी के समझाने के तरीके भी अनोखे हैं। उन्होंने एक उस जिज्ञासु को एक कथा सुनाई। एक था राजा। उसका मंत्री प्रतिदिन जप करता था। एक दिन उस राजा ने भी मंत्री से यही प्रश्न पूछा कि ‘‘क्या मन्त्र जप सबको समान लाभदायक होता है?’’ तब मंत्री ने कहा- ‘‘जी नहीं महाराज! सबको समान लाभदायक नहीं होता।’’ तब राजा ने भी ‘क्यों’ करके कारण पूछा। कुछ दिन तो मंत्री टालता रहा लेकिन जब राजा रोज आग्रह करने लगा तो मंत्री ने एक दिन इसका समाधान करने का निश्चय किया। वह राजा को एकांत में ले गया और एक अजनबी बालक को बुला भेजा। मंत्री ने बच्चे से कहा – ‘‘बेटा! जाओ और इस राजा के गाल पर दो चार झापड़ जड़ दो तो, ये रोज – रोज मुझसे प्रश्न पूछता है।’’ उस बालक ने मंत्री की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और चुपचाप खड़ा रहा। तभी राजा को गुस्सा आया। वहाँ कोई सेवक और सैनिक तो था नहीं अतः राजा ने उसी बच्चे को आदेश दे डाला – ‘‘बालक! जा और दो चार चांटे इस मंत्री को ही लगा ताकि इसे भी महाराज का अपमान करने का अहसास हो जाये।’’ बच्चे ने तुरंत महाराज के आदेश का पालन किया और तड़ातड़ मंत्री के झापड़ लगा दिए। मंत्री शांतचित खड़ा रहा और बोला – ‘‘महाराज! मन्त्र शक्ति भी इस बालक की तरह ही है, जो केवल अधिकारी व्यक्ति के आदेश का पालन करती है। जिसे इतना विवेक होता है कि किसे लाभ देना चाहिए और किसे नहीं। किस पर कृपा बरसानी चाहिए और किस पर नहीं।’’
सहज भाव…
रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में पुजारी की नौकरी मिली। उनका 20 रुपए वेतन तय किया गया, जो उस जमाने के समय के लिए पर्याप्त था। लेकिन 15 दिन ही बीते थे कि मंदिर कमेटी के सामने उनकी पेशी हो गई और उन्हें सफाई देने के लिए कहा गया। दरअसल एक के बाद एक अनेक शिकायतें उनके विरुद्ध कमेटी तक जा पहुंची थीं। किसी ने कहा कि- यह कैसा पुजारी है, जो खुद चखकर भगवान को भोग लगाता है, तो किसी ने कहा- फूल सूंघ कर भगवान के चरणों में अर्पित करता है। उनके पूजा के इस ढंग पर कमेटी के सदस्यों को बहुत आश्चर्य हुआ था। जब रामकृष्ण कमेटी के सदस्य के सामने पहुंचे तो एक सदस्य ने पूछा- यह कहां तक सच है कि तुम फूल सूंघ कर देवता पर चढ़ाते हो? इस पर रामकृष्ण परमहंस ने सहज भाव से कहा- मैं बिना सूंघे फूल भगवान पर क्यों चढ़ाऊं? मैं पहले देख लेता हूं कि उस फूल से कुछ सुगंध भी आ रही है या नहीं? तत्पश्चात दूसरी शिकायत रखी गई- हमने सुना है कि तुम भगवान को भोग लगाने से पहले खुद अपना भोग लगा लेते हो? रामकृष्ण ने पुनः सहज भाव से जवाब देते हुए कहा- जी, मैं अपना भोग तो नहीं लगाता पर मुझे अपनी मां की बात याद है कि वे भी ऐसा ही करती थी। जब कोई चीज बनाती थी तो चखकर देख लेती थी और फिर मुझे खाने को देती थी। उन्होंने फिर कहा- मैं भी चख कर देखता हूं। पता नहीं जो चीज किसी भक्त ने भोग के लिए लाकर रखी है या मैंने बनाई है वह भगवान को देने योग्य है या नहीं। उनका सीधे-सादे शब्दों में यह जवाब सुनकर कमेटी के सदस्य निरुत्तर हो गए।
भगवान को किस चीज का लोभ
रामकृष्ण परमहंस के मथुरा बाबू नाम के एक शिष्य थे। एक बार उन्होंने एक सुन्दर मंदिर बनवाया और उसमें भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना करवाई। मूर्ति को विभिन्न प्रकार के बेशकीमती वस्त्राभूषणों से सजाया गया। दूर – दूर से लोग इस अनोखे मंदिर और मूर्ति के दर्शनार्थ आने लगे। तभी एक रात कुछ चोर मंदिर में घुसे और मूर्ति के सभी बेशकीमती आभूषणों को चुरा ले गये। सुबह जब लोगों ने देखा तो चारों ओर खबर आग की तरह फैल गई। जब यह बात मथुरा बाबू को पता चली तो वह दौड़े – दौड़े मंदिर चले आये। भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने खड़े दुखी होकर बोले – ‘‘भगवान ! आपके पास तो गदा और चक्र जैसे भयंकर हथियार है, जिनसे आपने कितने ही दुष्ट राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया। फिर भी चोर आपके वस्त्राभूषण चोरी कर गये और आपने कुछ नहीं किया। आपसे तो हम मनुष्य अच्छे जो कम से कम थोड़ा बहुत विरोध तो कर ही लेते है।
रामकृष्ण परमहंस उस समय वही पास ही खड़े सब सुन रहे थे। वह मुस्कुराते हुए बोले – ‘‘मथुरा बाबू ! भगवान को तुम्हारी तरह वस्त्राभूषणों का कोई लोभ – मोह नहीं, जो दिन रात अपनी नींद खराब करके उनकी चौकीदारी करें और भगवान को कमी किस बात की है, जो उन तुच्छ गहनों के अपने अमोघ अस्त्रों का प्रयोग करें।’’ मथुरा बाबू ने शर्म से सिर झुका लिया।
अहंकार की जड
एक बार रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्य इस बात पर झगड़ रहे थे कि ‘‘हम दोनों में से कौन अधिक श्रेष्ठ है?’’ लड़ते – झगड़ते बात गुरुदेव तक जा पहुँची। उन्होंने परमहंसजी से जाकर पूछा – ‘‘गुरुदेव ! आप ही बताइए, हम दोनों में से कौन अधिक श्रेष्ठ है?’’ जब परमहंसदेव ने यह बात सुनी तो बोले – ‘‘तुम इतनी सी बात पर झगड़ रहे थे। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तो बहुत ही सरल है। जो दूसरे को अपने से बड़ा और श्रेष्ठ समझता है, वही श्रेष्ठ है।’’ यह सुनकर दोनों शिष्य बोलने लगे – ‘‘तू श्रेष्ठ, नहीं तू श्रेष्ठ।’’ परमहंस जी मुस्कुराने लगे।
छुआछूत
एक समय की बात है रामकृष्ण परमहंस तोतापुरी नामक एक संत के साथ ईश्वर व आध्यात्म पर चर्चा कर रहे थे। शाम हो चली थी और ठण्ड का मौसम होने के कारण वे एक जलती हुई धुनी के समीप बैठे हुए थे।
बगीचे का माली भी वहीं काम कर रहा था और उसे भी आग जलाने की जरुरत महसूस हुई। वह फौरन उठा और तोतापुरी जी ने जो धुनी जलाई थी उसमे से लकड़ी का एक जलता हुआ टुकड़ा उठा लिया।
“धूनी छूने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?”, तोतापुरी जी चीखने लगे” पता नहीं ये कितनी पवित्र है” और ऐसा कहते हुए वे माली की तरफ बढ़े और उसे दो-चार थप्पड़ जड़ दिया।
रामकृष्ण यह सब देख कर मुस्कुराने लगे। उनकी मुस्कराहट ने तोतापुरी जी को और भी खिन्न कर दिया। तोतापुरी जी बोले, ”आप हँस रहे हैं। यह आदमी कभी पूजा-पाठ नहीं करता है, भगवान का भजन नहीं गाता है। फिर भी इसने मेरे द्वारा प्रज्वलित की गयी पवित्र धूनी को स्पर्श करने की चेष्टा की। अपने गंदे हाथों से उसे छुआ। इसीलिए मैंने उसे ये दंड दिया।”
रामकृष्ण परमहंस शांतिपूर्वक उनकी बात सुनते रहे और फिर बोले, ”मुझे तो पता ही नहीं था की कोई चीज छूने मात्र से अपवित्र हो जाती है। अभी कुछ ही क्षण पहले आप ही तो हमें – “एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति” का पाठ पढ़ा रहे थे। आप ही तो समझा रहे थे कि ये सारा संसार ब्रह्म के प्रकाश-प्रतिबिम्ब के अलावा और कुछ भी नहीं है और अभी आप अपने माली के धूनी स्पर्श कर देने मात्र से अपना सारा ज्ञान भूल गए और उसे मारने तक लगे। भला मुझे इस पर हँसी नहीं आएगी तो और क्या होगा!” परमहंस गंभीरता से बोले, ”इसमें आपका कोई दोष नहीं है, आप जिससे हारे हैं वो कोई मामूली शत्रु नहीं है। वो आपके अन्दर का अहंकार है, जिसे जीत पाना सरल नहीं है।‘‘ तोतापुरी जी अब अपनी गलती समझ चुके थे। उन्होंने सौगंध खायी कि अब वो अपने अहंकार का त्याग देंगे और कभी भी छुआछूत और ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं करेंगे।
मुक्त आत्माओं की स्थिति
एक बार रामकृष्ण परमहंस अपने कुछ शिष्यों के साथ टहलते हुए नदी किनारे पहुंचे। वहाँ उन्होंने देखा कि कुछ मछुआरे मछलियाँ पकड़ रहे थे। अपने शिष्यों को नदी के निकट ले जाकर परमहंस जी बोले ‘‘देख रहे हो, जाल में फंसी इन मछलियों को!’’ वहाँ जाल में कई मछलियाँ फंसी हुई थी। जिनमें से कुछ तो निश्चेष्ट पड़ी थी। निकलने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी। उन्हीं में से कुछ मछलियाँ निकलने का प्रयास तो कर रही थी लेकिन निकल नहीं पा रही थी। उन्हीं में से कुछ ऐसी थी, जो अपने प्रयास में कामयाब हो गई और वापस जल में तैरने लगी। परमहंसदेव अपने शिष्यों से बोले – ‘‘जिस तरह इस जाल में तीन प्रकार की मछलियाँ है, उसी तरह मनुष्य भी तीन प्रकार के होते है। पहले वो जिन्होंने संसारिकता के बंधन को स्वीकार कर लिया है और इसी में मरने खपने को तैयार है। ऐसे लोग इस मायाजाल से निकलने की कोशिश तक नहीं करते है। दूसरे वो जो कोशिश तो करते है, लेकिन मुक्तिबोध तक नहीं पहुँच पाते। तीसरे वो जो कोशिश भी करते है और अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब हो जाते है।’’ तभी एक शिष्य बोला – ‘‘गुरुदेव! एक और प्रकार के लोग होते है जिनके बारे में आपने नहीं बताया?’’ परमहंस जी बोले – ‘‘हाँ, चौथे प्रकार के लोग वे महान् आत्माएं होती हैं जो इस मायाजाल के निकट ही नहीं आते है। फिर उनके फँसने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।’’
पूर्ण समर्पण ही सच्ची भक्ति है।
एक बार परमहंसदेव अपने शिष्यों को कुछ उपदेश दे रहे थे। वे शिष्यों को अवसर की महत्ता बता रहे थे। वे कह रहे थे कि मनुष्य अक्सर अपने जीवन में आये सुअवसरों को ज्ञान और साहस की कमी के कारण खो देता है। अज्ञान के कारण मनुष्य या तो अवसर को समझ ही नहीं पाता और कोई समझ भी जाये तो उसका लाभ उठाने के अनुरूप उसमें साहस नहीं होता। जब उन्होंने देखा कि बात शिष्यों को समझ नहीं आ रही है तो उन्होंने सामने ही बैठे नरेंद्र से कहा – ‘‘नरेंद्र! मान ले अगर तू एक मक्खी है और तेरे सामने अमृत का एक कटोरा भरा पड़ा है। अब बता तू उसमें कूद पड़ेगा या किनारे बैठकर उसे छूने की कोशिश करेगा ?’’ नरेंद्र बोला – ‘‘किनारे बैठकर छूने की कोशिश करूँगा। बीच में कूद पड़ा तो प्राण संकट में आ सकते हैं। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि किनारे बैठकर खाने की कोशिश की जाये।’’ पास में बैठे दूसरे शिष्यों ने विवेकानंद के तर्क की खूब सराहना की। किन्तु परमहंसजी हँसे और बोले – ‘‘मूर्ख ! जिस अमृत को पीकर तू अमर होने की कल्पना करता है, उसमें भी डूबने से डरता है। जब अमृत में डूबने का सुअवसर मिल रहा है तो फिर मृत्यु का भय क्यों ?’’ तब शिष्यों को बात समझ में आई। चाहे आध्यात्मिक उन्नति हो या भौतिक, जब तक पूर्ण समर्पण नहीं होता, सफलता संदिग्ध है।
तरुण शर्मा