बहुमुखी प्रतिभा के धनी छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती महाराष्ट्र में वैसे तो 19 फरवरी को मनाई जाती है लेकिन कई संगठन शिवाजी का जन्मदिवस हिन्दू कैलेंडर में आने वाली तिथि के अनुसार मनाते हैं। देश के अनेक महापुरुषों ने वैशाख मास में जन्म लिया, उसी में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। वे कूटनीतिज्ञ बहादुर, बुद्धिमान, शूरवीर और दयालु शासक थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1627 को मराठा परिवार में शिवनेरी (महाराष्ट्र) में हुआ। शिवाजी के पिता शाहजी और माता जीजाबाई थीं। भारत में एक सार्वभौम स्वतंत्र शासन स्थापित करने का सफल प्रयत्न स्वतंत्रता के अनन्य पुजारी वीर प्रवर शिवाजी ने भी किया था। वे एक भारतीय शासक थे जिन्होंने अपने बल-पौरुष से मराठा साम्राज्य खड़ा किया था, इसीलिए उन्हें एक अग्रगण्य वीर एवं अमर स्वतंत्रता-सेनानी स्वीकार किया जाता है।
यूं तो शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे तथा अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था, नहीं तो वीर शिवाजी राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतीक एवं परिचायक थे। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है।
माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरांगना नारी थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियाँ सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में राष्ट्र संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।
बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले जीतने की हकीकत बन गया। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुँची। अत्याचारी किस्म के यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के बगले झाँकने लगे।
शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आग बबूला हो गए। उन्होंने धैर्य, नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खाँ को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बाहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनख का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएँ अपने सेनापति को मरा पाकर वहाँ से दुम दबाकर भाग गईं।
शिवाजी के राज्य की सीमा :
शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर नासिक एवं पूना जिलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के जिले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। पश्चिमी कर्नाटक के क्षेत्र बाद में सम्मिलित हुए। शिवाजी के स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित थाः-
1. पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, पेशवा मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
2. उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
3. दक्षिणी देश के जिले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ और मौजे आते थे।
उज्ज्वल चरित्र के धनी
छत्रपति शिवाजी महाराज जितने तलवार के धनी थे उतने ही चरित्र के भी धनी थे। एक बार शिवाजी के एक वीर सेनापति ने कल्याण का किला जीता। हथियारों के जखीरे के साथ उनके हाथ अकूत संपत्ति भी लगी। एक सैनिक ने मुगल किलेदार की बहू को, जो दिखने में काफी सुंदर थी, बंदी बनाकर उसके सामने पेश किया।वह सेनापति उस नवयौवना के सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। सेनापति ने शिवाजी महाराज को बतौर नजराना वह महिला भेंट करने की ठानी। सेनापति उस नवयौवना को पालकी में बिठाकर शिवाजी महाराज के दरबार में पहुँचा।
शिवाजी उस समय अपने सेनापतियों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे। युद्ध में जीतकर आए सेनापति ने शिवाजी को प्रणाम किया और बोला कि वह कल्याण से जीतकर लाई गई एक चीज महाराज को भेंट करना चाहता है। यह कहकर उसने एक पालकी की ओर इंगित किया। शिवाजी ने ज्यों ही पालकी का पर्दा उठाया तो देखा कि उसमें एक सुंदर मुगल नवयौवना बैठी हुई है। शिवाजी महाराज का शीश लज्जा से झुक गया वह बोले, ‘काश! हमारी माता भी इतनी खूबसूरत होती तो मैं भी खूबसूरत होता।’
इसके बाद अपने सेनापति के कारण बेगम को हुए कष्ट के लिए क्षुब्ध होतें हुए सेनापति को डाँटा और कहा कि ‘अभी इनको ससम्मान इनके शिविर में छोड़कर आओ।’ ऐसे धवल चरित्र के धनी थे छत्रपति शिवाजी।
शिवाजी को संस्कृत का ज्ञान अच्छा था और संस्कृत भाषा को बढ़ावा दिया गया था। शिवाजी ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने किलों के नाम संस्कृत में रखे जैसे कि- सिंधुदुर्ग, प्रचंडगढ़, तथा सुवर्णदुर्ग। उनके राजपुरोहित केशव पंडित स्वयं एक संस्कृत के कवि तथा शास्त्री थे। उन्होंने दरबार के कई पुराने कायदों को पुनर्जीवित किया एवं शासकीय कार्यों में मराठी तथा संस्कृत भाषा के प्रयोग को बढ़ावा दिया। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के कुछ दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। शिवाजी ने अपने गुरु की चरण पादुका रखकर शासन किया और अपने गुरु के नाम पर ही सिक्के बनवाये। उनकी इस वीरता एवं विनयशीलता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है।
शिवाजी महाराज में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, वक्त की कदर और अनुशासन जैसे विलक्षण गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं और इसी नेतृत्व में मुट्ठी भर सैनिक हजारों की फौज से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे। एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था। उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है। आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही याद किया जाता है।
गोपाल लाल माली