रक्षाबंधन सामाजिक समरसता का पर्व है। जिसे हम मर्यादाओं के बंधन में बंधने का पर्व भी कहते है । व्यक्ति की रक्षा, समाज की रक्षा, और अंततः राष्ट्र की रक्षा के लिए श्रावणी पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व हमें अपने कर्तव्य का बोध कराता है। मर्यादित आचरण में रहते हुए जब सभी लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते है तो सामाजिक जीवन व्यवस्थित रहता है और राष्ट्र शक्ति सम्पन्न बनता है।
हमारे सामाजिक जीवन में कुछ ऐसे दिन आते हैं जिनसे मात्र एक व्यक्ति या परिवार ही नहीं वरन् पूरा समाज आनंदित और उल्लासित होता है। भारत को यदि पर्व-त्योहारों का देश कहा जाए तो समीचीन ही होगा। क्योंकि यहाँ लगभग प्रतिदिन कोई न कोई पर्व आता ही रहता है। वस्तुतः ये पर्व विभिन्न जन समुदायों की सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। सभी त्योहारों की अपनी परंपराएं, रीति-रिवाज होते हैं। ये त्यौहार मानव जीवन में करुणा, दया, सरलता, आतिथ्य सत्कार, पारस्परिक प्रेम, सद्भावना, परोपकार जैसे नैतिक गुणों का विकास कर मनुष्य को चारित्रिक एवं भावनात्मक बल प्रदान करते हैं। भारतीय संस्कृति के गौरव एवं पहचान ये पर्व, त्योहार सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं।
रक्षाबंधन के पर्व की उत्पत्ति धार्मिक कारणों से मानी जाती है, जिसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में कहानियों में मिलता है। इस कारण पौराणिक काल से इस त्यौहार को मनाने की यह परंपरा निरंतरता में चलती आ रही है। चूंकि देवराज इंद्र ने रक्षासूत्र के दम पर ही असुरों को पराजित किया था। रक्षासूत्र के कारण ही माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को राजा बली के बंधन से मुक्त करवाया, महाभारत काल की भी कुछ कहानियों का उल्लेख रक्षाबंधन पर किया जाता है। अतः इसका त्योहार को हिंदू धर्म की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
भारतीय परंपरा एवं जीवनशैली में विश्वास ही मूल बंधन है। ‘सर्वेः भवन्तुः सुखिनः’ का उद्घोष करने वाली उत्सव-पर्वों की विस्तृत परंपरा राष्ट्र को गौरवान्वित करती है। रक्षाबंधन के त्योहार में राष्ट्र की सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एवं अतीत से जुड़े रहने का सुखद अहसास है। रक्षा-सूत्र का कलाई पर बंधना सिर्फ रक्षा का वचन ही नहीं, अपितु प्रेम, संपूर्ण निष्ठा व संकल्प के द्वारा हृदय को बांधने का एक अद्भुत प्रयास है।
श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षाबंधन के दिन ही प्राचीन समय में ऋषि-मुनि अपने शिष्यों का उपाकर्म कराकर उन्हें विद्या-अध्ययन कराना प्रारंभ करते थे। उपाकर्म के दौरान पंचगव्य का पान करवाया जाता है तथा हवन किया जाता है। उपाकर्म संस्कार के बाद जब जातक घर लौटते हैं तो बहनें उनका स्वागत करती हैं और उनके दाएं हाथ पर राखी बांधती हैं। इसलिये भी इसका धार्मिक महत्व माना जाता है। इसके अलावा इस दिन सूर्य देव को जल चढ़ाकर सूर्य की स्तुति एवं अरुंधती सहित सप्त ऋषियों की पूजा भी की जाती है इसमें दही-सत्तू की आहूतियां दी जाती हैं। इस पूरी क्रिया को उत्सर्ज कहा जाता है।
रक्षाबंधन का महत्व
यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता का एक बड़ा पवित्र कवित्त है। रक्षा का अर्थ है बचाव, और मध्यकालीन भारत में जहां कुछ स्थानों पर, महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थी, वे पुरुषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थी। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मज़बूत बनाती है, तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुनः धर्मग्रन्थों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं।
पौराणिक संस्मरणों में राजा बली द्वारा 100 यज्ञ पूरे करने के पश्चात स्वर्ग को हथियाने की लालसा को जब विष्णु रूप वामन भगवान ने विफल कर दिया एवं 3 पग में पूरे ब्रह्मांड को नाप कर राजा बली को रसातल में भेजकर स्वयं हमेशा उनके साथ रहने के लिए चले गए तब लक्ष्मीजी ने राजा बली को भाई बनाकर रक्षा-सूत्र बांधा एवं उपहारस्वरूप अपने पति को वापस पाया। तब से ही हर ब्राह्मण यह श्लोक कहकर यजमान को संकल्पित करता है-
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।।’
इसका अर्थ यह है कि रक्षा-सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षा-सूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बली धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गए थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा-सूत्र से कहता है कि ‘हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना।’
पुराणों में इस बात का उल्लेख किया गया है कि जब देवताओं पर दानवों ने आक्रमण किया और युद्ध में दानव देवताओं पर हावी हो गए थे। यह सब कुछ देख देवराज इंद्र की पत्नी शचि अत्यधिक घबरा गई जिसके बाद उन्होंने अपने पति इंद्र के प्राणों की रक्षा करने के लिए तप करना शुरु कर दिया और तप से उन्हें रक्षासूत्र का फल प्राप्त हुआ और इस रक्षा सूत्र को शचि ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इंद्र की कलाई पर बांध दिया। रक्षासूत्र के बांधते ही देवताओं की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने दानवों पर विजय प्राप्त की।
महाभारत पर्व में जब द्रौपदी ने कृष्ण की कलाई में से रक्त बहते देख अपनी साड़ी का किनारा फाड़कर बांधा तब कृष्ण और द्रौपदी का भाई-बहन का उत्कृष्ट संबंध बना।
रक्षाबन्धन पर्व के निहितार्थ :
रक्षाबंधन के पर्व को किसी जाति, धर्म या परंपरा से जोड़ना उसके निहित अर्थों को लघुता प्रदान करना है। यह पर्व मानव से मानव एवं मानव से प्रकृति के संबंधों को उच्चता प्रदान करने वाला है। राष्ट्रीय अस्मिता को पहचान देने वाला एवं भाषायी एवं क्षेत्रीय सीमाओं को लांघकर परस्पर स्नेह के बंधनों को बांधने वाला पर्व है।
रक्षाबंधन पर्व का स्पष्ट संदेश है कि, ‘‘प्राचीनकाल से ही अपने देश के उत्सव एवं सामाजिक समरसता एवं सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ाने वाले हैं। रक्षाबंधन उत्सव इसी परम्परा की एक कड़ी है।’’ राखी के इन पवित्र धागों से जन-जन के हृदय जोड़ने का नाम ही रक्षाबंधन है। समाज में अभी भी ऊंच-नीच, छूत-अछूत के भाव विद्यमान हैं। हम अपने सामने भगवान श्रीराम के आदर्श को सामने रखें। जिन्होंने निषादराज का आतिथ्य, भीलनी शबरी के बेर आदर और स्नेह के साथ ग्रहण किये। रक्षाबंधन के पर्व पर हम सभी को संकल्प लेना चाहिए कि हम भेदभाव, छूआछूत की दीवारें ढ़हा दें। संकल्प लेना चाहिए कि हम सब भारतमाता की संतानें हैं एक हैं। हम सब इस विशाल हिंदू समाज के अंग हैं।
इस दिन राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझने और पूरा करने हेतु ‘राष्ट्र ध्वज’ को भी रक्षासूत्र बांध कर उसकी रक्षा का प्रण करना चाहिए, कहा भी गया है कि- ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’।
इस दिन वृक्ष की रक्षा हेतु पेड़ों पर भी रक्षासूत्र बांध कर उनकी रक्षा का संकल्प लिया जाता है।
रक्षाबंधन नारी अस्मिता व उसकी रक्षा का पर्व तो है ही साथ ही सामाजिक समरसता को बढ़ाने का भी पर्व है। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि आज भी नारी उत्पीड़न तेजी से बढ़ रहा है। रक्षासूत्र बंधवाने का काम तभी सफल होगा जब देश का युवा नारी को सम्मान दे तथा साथ में बढ़ रही अपराधिक वृत्तियों के रोकथाम में सहायक बनें। आज बहनें अपने घर परिवार में ही सुरक्षित नहीं रह गयी हैं। अतः रक्षाबंधन का पर्व तभी सार्थक माना जायेगा जब
हमारी बहनें व नारी शक्ति हर जगह अपने आपको पूर्ण रूप से सुरक्षित महसूस कर सकें।
कलाई पर बंधा हुआ सूत्र एक बहन के विश्वास एवं भाई के संकल्प का प्रतिरूप है। हमारी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय अस्मिता को एक सूत्र में पिरोने का अवसर यह पर्व है। इस पर्व में समता, ममता व समरसता रची बसी है, जो कि हमारे जीवन का मूल आधार है एवं हमारे राष्ट्र के अविच्छिन्न होने के संकल्प को प्रतिपादित करता है।
आईये समाज में वर्ण, जाति, पंथ, प्रान्त, ऊँच-नीच आदि भेदों का नाश कर एक समरस समाज का निर्माण करे। समाज के प्रत्येक नागरिक को स्नेह सूत्र में बांध कर राष्ट्र रक्षा का संकल्प करें।
तरुण शर्मा