बाजी प्रभु का जन्म चंद्रसेनीय प्रभु वंश के एक परिवार में वर्तमान पुणे क्षेत्र के भोर तालुक में मावळ प्रांत में हुआ था। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में भारतववर्ष से बाहरी मुगल हमलावरों को नेस्तनाबूत कर बाहर का रास्ता दिखा देने का जज्बा था और शिवाजी की सेना में एक अभिन्न हिस्सा बनकर कार्य करना उनके इसी स्वप्न को वास्तविकता में बदलने वाला था।
यही नहीं, स्वयं शिवाजी ने भी बाजी प्रभु के अभूतपूर्व उत्साह और सामरिक सूझ-बूझ को देखते हुए उन्हें अपनी सेना के दक्षिणी कमान को सौंपा जो कि आधुनिक कोल्हापुर के इर्द गिर्द उपस्थित था। बाजी प्रभु ने आदिलशाही नामक राजा के सेनापति अफजल खान को शिकस्त देने में एक अत्यंत ही अहम् भूमिका अदा की थी। हुआ कुछ यूँ की छत्रपति शिवाजी अफजल खान से अपने होने वाले द्वंद्व युद्ध के अभ्यास के लिए एक अति बलवान और अफजल जितने ही लम्बे चौड़े प्रतिद्वंदी को ढूँढ रहे थे और यहीं पर बाजी प्रभु अपने साथ, सूरमा मराठा योद्धाओं की एक खेप लेकर आये, जिनमें विसजी मुरामबाक भी था जो अपनी कद काठी में अफजल खान जितना ही विशालकाय था।
बस फिर क्या था, शिवाजी और बाजी प्रभु के नेतृत्व में मराठा सेनाओं ने अपनी कूटनीतिक और सामरिक चातुर्य से अफजल खान को मृत्यु और इस प्रबल जोड़ी ने आदिल शाह की अति विशाल सेनाओं तक के नाक में दम कर दिया। वस्तुतः मराठा सेनाएं अपनी छापामार और घात लगाकर वार करने की क्षमता के कारण युद्धभूमि में इस्लामी हमलावरों के खिलाफ बेहद ही सफल रहे। उन दिनों शिवाजी ने अपनी सेना को पन्हाला किले के इर्द गिर्द इकठ्ठा कर लिया था। आदिल शाह को किसी तरह खबर मिल गई, उसने तुरंत अपनी एक विशाल सेना के द्वारा पन्हाला किले के समीप एक तीव्र हमला बोल दिया। हमला इतना भीषण था की मराठा सेनाओं को भारी नुकसानों का सामना करना पड़ा। वहां से निकलकर बचना शिवाजी के लिए अति महत्वपूर्ण हो गया था।
युद्ध कई माह तक चलता रहा। आदिल शाह का प्रबल सेनापति सिद्दी जोहर अपनी जेहादी सेनाओं के द्वारा खूब कहर बरपा रहा था। और उससे काफी सफलता भी हासिल हुई जब उसने मराठा सेनाओं की रसद और संपत्ति को नष्ट कर दिया। हमले को नाकाम करने के सभी उपाय विफल हुए जा रहे थे। शिवाजी के कुशल सेनापति नेताजी पालकर ने भी हरसंभव प्रयास किया। अंततः शिवाजी ने एक अति गोपनीय विकल्प चुना। उन्होंने अपने एक वकील को सिद्दी जोहर के पास इस करार को लेकर भेजा की हम एक समझौता करने के लिए तैयार हैं। यह सुनते ही आदिल शाह की सेनाओं ने कुछ हल्का रुख इख्तियार करा और महीनों से चल रहे संग्राम में एक अल्प विराम तो लग ही गया।
बाजी प्रभु देशपांडे छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना को अभूतपूर्व योद्धा थे, जिन्होंने आदिलशाह के चंगुल में लगभग फंस चुके शिवाजी को अपने प्राणों की बलि देकर निकाला था। पन्हाला गढ़ में चार महीनों तक आदिलशाह की विशाल सेना से युद्ध करने के बाद शिवाजी महाराज अपने किले में ही घिर गए। वहाँ से बाहर निकलने के लिए उन्होंने बाजी प्रभु के साथ मिलकर एक योजना बनाई। योजना तो सफल रही लेकिन बाजी प्रभु को अपने प्राण गंवाने पड़े।
दरअसल यह शिवाजी की पन्हाला किले से अपनी सेनाओं को सुरक्षित बचा लाने की रणनीति का हिस्सा था। आदिल शाह की 10000 सैनिकों की जेहादी सेना से बचना एक जटिल कार्य था। इसी योजना के अंतर्गत गुरु पूर्णिमा या आषाढ पूर्णिमा की एक रात्रि को 600 बेहद ही चुनिंदा और सक्षम योद्धाओं की टोली को लेकर शिवाजी और बाजी प्रभु इस योजना को अंजाम देने के लिए निकल चले। वे दो गुटों में बंटे। एक छद्म गुट की अगुवाई शिवाजी के हमशक्ल शिवा नाई कर रहे थे और दूसरे की खुद शिवाजी महाराज जिसमें बाजी भी थे। मुगल सेना ने शिवा नाई की सेना पर आक्रमण कर अपनी सारी क्षमता और ऊर्जा उस दिशा में ही लगा दी।
आदिल शाह की जेहादी सेनाओं ने शिवा नाई को अगुवा कर लिया, और उनका शीर्ष मर्दन कर दिया। शिवा नाई के इस महान् बलिदान के कारण शिवाजी महाराज और बाजी प्रभु द्वारा संचालित टोलियों को अपनी मुहीम के लिए और अधिक समय मिल गया। इस छद्मावरण का पता चलते ही मुगल सेनाएं छटपटा कर अपने बाल नोचने लगी और असली शिवाजी की तलाश में निकल पड़ी।
परन्तु तब तक शिवाजी और उनकी सेनाएं पुरजोर लगाकर वहाँ से जितनी दूर हो सके निकल चुकी थी। मुगलों की 4000 सैनिकों की फौज को चकमा देते हुए सेना के अश्वों का जब सारा बल समाप्त होने की कगार पर ही था, तभी वे घोड खिंड दर्रे के पार पहुँच गए, जिसे बाद में शिवाजी ने पावन खिंड का नाम दिया। और यही वह ऐतिहासिक पल था जब बाजी प्रभु ने अपने ऊपर मुगलों को धूल चटाने की जिम्मेदारी ली। उन्होंने अपने साथ कुछ 300 मराठा सैनिकों को लिया और शिवाजी महाराज से आगे बढ़ने के लिए कहा। (इस प्रकार वे मुगलों से लड़कर शिवाजी और उनकी बची हुई सेना को सकुशल विशालगढ़ किले तक पहुँचने में मददगार रहे।) शिवाजी यह सुनकर, बाजी प्रभु की वीरता से स्तब्ध रह गए और अनमने भाव से अपनी सेना के साथ विशालगढ़ की ओर चल दिए। और फिर घोड खिंड में मराठा सूरमाओं ने अपने जौहर का वह सैलाब बरपाया जिसका इतिहास ही साक्षी है। हर हर महादेव की प्रचंड हुंकारों के साथ ही मराठा सेना भूखे शेरों की तरह मुगलों पर टूट पड़ी।
बाजी प्रभु की सेना की संख्या बहुत ही अल्प थी या यो कहिये की मुगल सेना का सिर्फ एक सौवां हिस्सा। हर तरफ भीषण नरसंहार का मंजर फैल चुका था। जिहादी अपने आक्रमणों में बर्बरता का उपयोग करे जा रहे थे। पर बाजी प्रभु उस वीरता की परम गाथा का नाम है जो शत्रु की राह में एक भीमकाय चट्टान की तरह खड़े रहे। उन्होंने दोनों हाथों में एक तलवार ली और वे बस अपनी पूर्ण शक्ति से मुगलों को मौत के घाट उतारते रहे।
शीघ्र ही उनके तन पर चोटों और घावों की संख्या इतनी बढ़ गयी थी कि ऐसा लगने लगा मानो कभी भी उनके प्राण तन को त्याग सकते हैं, परन्तु अपने मनो मस्तिष्क की असीम गहराइयों में समाये उस विश्वास और शक्ति के चलते वे अपनी अंतिम सांस तक डटे रहे और जिहादी मुगलों को छठी का दूध याद दिला दिया। उनका शरीर लहू से लथ-पथ और तलवारों और भालों के घावों से छलनी हो गया था। वे डटे रहे तब तक जब तक उन्होंने उन तीन तोपों के दागे जाने की ध्वनि नहीं सुन ली जो शिवाजी के विशालगढ़ किले सुरक्षित पहुँच जाने के चिœ के रूप में पूर्व निर्धारित किया गया था।
उधर शिवाजी महाराज की सेना को भी विशालगढ़ में पहले से मौजूद एक और मुगल सरदार, सुर्वे की सेना का सामना करना पड़ा। उन से जूझते हुए लगभग सुबह ही हो चली थी और सूर्योदय तक आखिरकार शिवाजी ने उन तीन तोपों को दाग दिया जो बाजी प्रभु को एक इशारा थी, बाजी प्रभु यद्यपि तब तक जीवित तो थे परन्तु लगभग मरणासन्न हो चुके थे। उनके सभी साथी सैनिक हर हर महादेव का उद्घोष करते हुए बाजी को उठा कर दर्रे के पार पहुँच गए। परन्तु तभी, एक वीर की भांति विजयी मुस्कान के साथ बाजी ने अपनी अंतिम सांस ली और परमात्मा में लीन हो गए और इसी के साथ, भारतीय इतिहास के पन्नों पर वीर बाजी प्रभु देशपांडे का नाम एक कभी न मिट सकने वाली स्याही से अंकित हो गया। उनका स्वर्णिम बलिदान भारतीय स्वराज की ओर उठे सबसे पहले कदमों में से एक था। देशभक्ति ही नहीं, यह सम्पूर्ण मानव जाति के लिए परिस्थितियों के समक्ष न झुकने वाले जज्बे का एक दिल दहला देने वाला प्रमाण था।
समाचार सुनकर शिवाजी महाराज का हृदय भर आया। बाजी प्रभु को एक भाव भीनी श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने घोर खिंड दर्रे का नाम पावन खिंड रखा जो दर्शाता था कि बाजी प्रभु के लहू से वह पावन हो चुका था। भविष्य में शिवाजी ने बाजी के बच्चों की देख रेख तक करी। आज के युग में जब हम अपनी मातृभूमि में जन्मे असंख्य गुमनाम शेरों को भुला चुके हैं, वीर बाजी प्रभु देशपांडे के सर्वोपरि बलिदान की कल्पना से रूह काँप उठती है और उनके प्रति हृदय भाव उमड़ पड़ता है। आइये आप और हम इस मराठा वीरगाथा का स्मरण करते हुए जांबाजी का पर्याय बन चुके बाजी प्रभु को एक विचारमग्न श्रद्धांजलि दें और उनके जीवन से जुड़े शौर्य के हर अनमोल पहलू को अपने जीवन में उकेरित करने का तत्पर प्रयास करें।
हरिदत्त शर्मा