बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के एक महान वनवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा वनवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को जन्म दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।
तत्कालीन बिहार के संथाल परगना में वनवासी दम्पति सुगना और करमीहातू के घर 15 नवंबर 1875 को उलीहातू गाँव में जन्मे बिरसा मुंडा ने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने आए। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने वन बंधुओं को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया।
समाज कि पीड़ा को समझा:
उन्होंने हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वनवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही हिन्दू धर्म भी ठीक से न तो समझ पा रहा है, न ग्रहण कर पा रहा है। बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर वनवासी समाज अंधविश्वासों की आँधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने वनवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। धर्म के बिंदु पर वनवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं। भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में वनवासी
समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने वनवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा। पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि वनवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने वनवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सहकार का रास्ता दिखाया।
मुंडा विद्रोह का नेतृत्व:
सामाजिक स्तर पर वनवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूँक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। ये सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने की काली करतूतें प्रारंभ की। यह तो था सामाजिक स्तर पर बिरसा का प्रभाव।
दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि वनवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे वनवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली।
वनवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया।
तीसरा था राजनीतिक स्तर पर वनवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वनवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए।
1994 में मानसून के छोटानागपुर में वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
संघर्ष का सूत्रपात:
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। उन्हें उस इलाके के लोगों द्वारा “धरती आबा”यानी “धरती पिता” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
ब्रिटिश हुकूमत इसे खतरे का संकेत समझकर उनके पीछे पड़ गई। संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा
लिया। रांची और उसके आसपास के
इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते?
लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। अंग्रेज जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए। लेकिन जहाँ बंदूकें और तोपें काम नहीं आईं वहाँ पांच सौ रुपये ने काम कर दिया। 3 फरवरी 1900 को बिरसा चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिये गये। बिरसा की ही जाति के लोगों ने रुपयों के लालच में उन्हें पकड़वा दिया!
बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। वहाँ अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए।
भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वनवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा के शौर्य, पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर किए संघर्षों के कारण ही बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के वनवासी क्षेत्रों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
जसवन्त राय