‘सभ महि जोति-जोति है सोई,
तिस दै चानणि सभ मंहि चानणु होई।’
‘‘गुरु नानक देव का इस देश की सामाजिक क्रांति में महत्वपूर्ण स्थान है। राजनीतिक पराभव के कारण उस समय समाज में अनेक प्रकार के अंधविश्वासों, भ्रांतियों और निराशाओं ने जन्म ले लिया था। इसके लिए गुरु नानक ने सदाचार और एक ही ईश्वर उपासना पर बल दिया। वे जीवन भर लोगों को यही बताते रहे कि पूरी मानव जाति एक ही है। इसे रंग, भाषा, नस्ल, धर्म, जाति एवं प्रदेश के साथ जोड़ना ठीक नहीं है।’’
गुरु नानक देव जी द्वारा मानवता को दिखाया गया मार्ग, धर्म और आध्यात्म, लौकिक तथा पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक् नियोजन की प्रेरणा देता है। आपका न केवल बाहरी व्यक्तित्व बल्कि आंतरिक व्यक्तित्व भी विलक्षण एवं अलौकिक था। गुरु नानक देव इस देश के ऐसे क्रांतिद्रष्टा धर्मगुरु हैं, जिन्होंने देश की नैतिक आत्मा को जाग्रत करने का भगीरथ प्रयत्न किया। सामाजिक कुरीतियों को बदलने के साथ-साथ समाज के साथ उन्होंने राष्ट्र की भावात्मक एकता को सुदृढ़ करने के लिए तत्कालीन विषम परिस्थितियों में अनेक उल्लेखनीय प्रयत्न किये।
क्या कभी हमारा ध्यान इस और जाता है कि क्यों सिख बन्धुओं की शादी बिना किसी मुहूर्त या कोई शुभ दिन निकाले और प्रायः सप्ताहांत और छुट्टियों पर ही होती हैं? क्यों कोई सिख कभी सड़कों पर भीख मांगता हुआ नहीं दिखता? पंजाब के बारे में ऐसी क्या खास बात है जो एक छोटा राज्य होने के बावजूद भारत जैसे बड़े देश का सबसे उपजाऊ राज्य है? क्यों पंजाब में ही केवल हरित क्रांति हुई? भारत के ५०ः से अधिक एनआरआई भारतीय पंजाब से ही क्यों आते हैं? गुरूद्वारों के सामुदायिक रसोई घर लंगर और उसके सार्वभौमिक समतावादी दृष्टिकोण को आज भी अन्य भारतीय मत-पंथों में क्यों स्थान नहीं मिल पाया है ?
जितना अधिक हम गुरु नानक देव के उपदेशों का, उनके सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त का अवगाहन करेंगे, उतना ही गुरु नानक देव के सामाजिक दर्शन और शिक्षाओं की गहराई के प्रति हमारा श्रद्धापूर्ण आदर और विश्वास बढ़ता चला जाता है। उनके समय का भारतीय समाज सामंती, आर्थिक विषयों सहित कई सामाजिक समस्याओं के साथ अभिभूत था। जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता अपनी विद्रूपता के साथ प्रचलित थी और भारतीय जनसंख्या के महत्वपूर्ण वर्ग को सम्मानित जीवन देने में नाकाम थी। कर्मकाण्ड़ी शक्तिशाली थे और ईश्वर और साधारण लोगों के बीच मध्यवर्ती थे। कर्म का मतलब सामान्यतः केवल अनुष्ठानों का पालन करना था। धार्मिक होने का मतलब था कि समुदाय से अलग हो जाना, ‘‘अन्य सांसारिकता’’ और स्लाव भक्ति।
एक पथदृष्टा के रूप में गुरु नानक देव ने लोगों के लिए इन सबसे बाहर निकलने का एक रास्ता दिखाया। उनके लिए कर्म का मतलब अनुष्ठान करने के बजाए अच्छी क्रियाशीलता थी। उन्होंने कहा धार्मिक अनुष्ठानों और अंधविश्वासों का कोई मूल्य नहीं है। उन्होंने समाज के निचले तबके के लोगों को गरिमा की पेशकश करके जोर दिया कि हर कोई बराबर है। लंगर या सामुदायिक रसोई की समतावादी प्रथाओं ने अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था को सीधे चुनौती दी। कर्मकाण्ड़ी पुजारी अप्रासंगिक होने लगे क्योंकि अब हर कोई भगवान के साथ सीधे जुड़ सकता था। उन्होंने कहा धार्मिक होने का मतलब यह नहीं कि समाज से अलग हो जाना और साधु बन जाना बल्कि इसके बजाय समुदाय का एक हिस्सा बने रहना और एक अच्छा जीवन व्यतीत करना है। उन्होंने जड़ उपासना एवं अंध क्रियाकाण्ड़ तक सीमित मृतप्रायः धर्म को जीवित और जाग्रत करके धर्म के शुद्ध, मौलिक और वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई।
गुरु नानक देव ने मानव जाति के भाईचारे और भगवान के पितृत्व का दृढ़ता से प्रचार किया। उनका सार्वभौमिक संदेश शांति, प्रेम, एकता, आपसी सम्मान, मानव जाति के लिए सेवा और समर्पण है। उसने लोगों को हिंसा से शांति की ओर मोड़ दिया, अत्याचारी प्राणियों का दयालु प्राणियों में परिवर्तन कर असभ्य समाजों को आनंदित समुदायों में बदल दिया। सभी मतावलंबियों ने आपके दिव्य संदेश को सुना और अपने अपने सामर्थ्य और बुद्धिमता से उस पर चलने का प्रयत्न किया।
आपका उपदेश है – सभ महि जोति-जोति है सोई, तिस दै चानणि सभ मंहि चानणु होई।’ यानी सभी मनुष्य एक ही परमात्मा के अंश हैं और सभी को समान भाव से देखना ही आत्मज्ञान है। लेकिन अपने भीतर समता की भावना विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए।
आपका कहना था कि उन दीवारों को तोड़ दो, जिनकी बुनियाद झूठे भ्रमों पर आधारित है और ऐसे पुलों का निर्माण करो जो एक इंसान को दूसरे इंसान से जोड़ते हैं। गुरु नानक कहा करते थे कि सिर्फ जात-पांत ही नहीं, स्त्री-पुरुष में भी भेद करना मानव समानता में बाधक है। उन्होंने समाज में नारी के महती स्थान व रचनात्मकता की पुरजोर वकालत की। वे नारी के प्रति असीम आदर प्रकट करते हुए कहते हैं ‘सोइकिउ मंदा आखिए, जितु जनमहि राजान।’ जिसने राजाओं और महापुरुषों को जन्म दिया, उस स्त्री को छोटा (हीन) कैसे कह सकते हो?
गुरु नानक देव जी ने समता की भावना पर सर्वाधिक जोर दिया और कहा कि सभी एक ही ईश्वर के अंश हैं। उनके लिए अच्छे मनुष्य की पहचान भी यही थी। अच्छा आदमी वह है, जिसमें समता की भावना हो- ‘ऐसे जन विरले जग अंदहि, परख खजाने पाइया। जाति वरन ते भए अतीता, ममता लोभ चुकाया।।’ इसके अलावा गुरु नानक देव जी निजी सदाचार पर सर्वाधिक जोर देते थे। ‘नानक अवगुण जे टरै तेते गल जंजीर। जो गुण होनि ता कटी, अनि से भाई से वीर।।’ उनका मानना था कि बुराई को छोड़ने पर ही हम अच्छाई ग्रहण कर सकते हैं।
भगवान के करीब आने के लिए, किसी को सामान्य जीवन से दूर नहीं जाना चाहिए। इसके बजाय, भगवान के करीब आने के लिए हर किसी को सामान्य जीवन का उपयोग एवम् सभी के साथ एक समान बर्ताव करना चाहिए। एक अच्छा जीवन जीने का तरीका ईमानदारी से जीना और कड़ी मेहनत करना है।
गुरु नानक देव जी ने जात-पांत को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए ‘लंगर’ की प्रथा शुरू की थी। लंगर में छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी गुरुद्वारों में उसी लंगर की व्यवस्था चल रही है, जहाँ हर समय हर किसी को भोजन उपलब्ध होता है। इसमें सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है।
इस प्रकार गुरु नानक देव ने अपने अनुयायियों की मूल्य प्रणाली के सार में ‘समानता, अच्छी कार्यशीलता, ईमानदारी और कड़ी मेहनत’ को प्रस्थापित किया। भारत के धार्मिक इतिहास में यह पहली बार था कि ‘‘कड़ी मेहनत’’ को मूल्य प्रणाली में केंद्रीय स्थान मिला, जिसका शायद अनुयायियों के आर्थिक कल्याण पर प्रत्यक्ष परिणाम था। इससे बहुत महत्वपूर्ण प्रतिमान बदलाव आया क्योंकि ये मूल्य आवश्यक शर्तें हैं और उद्यमशीलता और आर्थिक समृद्धि के प्रमुख निर्धारक हैं।
समाज में व्याप्त इन्हीं बुराइयों को दूर करने के लिए गुरु नानक देव ने उन अच्छाइयों पर जोर दिया, जिससे समाज को ऊंचा उठाने में मदद मिले। एक तरह से उनकी शिक्षाएं केवल दर्शन नहीं, एक आचार शास्त्र हैं। निम्नलिखित आचरण पर उन्होंने सर्वाधिक जोर दिया- आत्मनिर्भरता, बांट के खाना, दया, विवेक-विचार, विद्या और नम्रता।
पाखंड, मिथ्याचार एवं जातिवाद के घोर विरोधी, कुरीति उन्मूलक गुरु नानक देव जी ने अपने यायावरी जीवन क्रम में दूरस्थ देशों में भी जाकर एक परमात्मा एवं मानव एकता पर जोर दिया। यहां तक कि मक्का में भी उन्होंने काबा के पुजारियों को यह शिक्षा दी कि ईश्वर सर्वत्र है। भारत के प्राचीन वेदांत दर्शन के आलोक में गुरु नानक देव ने भी आत्मा को परमात्मा का ही अंश माना और मनुष्य जीवन की प्राप्ति को एक दुर्लभ संयोग बताया। आपने मनुष्य को न केवल मनुष्य अपितु अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशील बनाने का प्रयत्न किया।
आज जो हमारे देश की स्थिति है, उसमें गुरु नानक देव जी के उपदेश अधिक प्रासंगिक हैं। यदि सभी धर्मावलंबी उनके उपदेशों को हृदय से स्वीकार करें तो अनेक जटिल समस्याएं सहज ही दूर हो जाएंगी। गुरु जी की अमृत वाणी आज भी गुरु ग्रंथ साहब के पाठों में उपलब्ध है। आवश्यकता है गुरु नानक देव जी के इन उपदेशों को आचरण में उतारने की। जिन पर चलकर देश के सभी मत-संप्रदाय देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा में अपनी अप्रतिम भूमिका निभा सकें।