दामोदर विनायक सावरकर की गिनती देश के महान् स्वतन्त्रता सेनानियों में की जाती है। वे बड़े साहसी और वीर थे। उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। अनेक कष्ट सहे, यातनाएँ झेली, कालेपानी की काल कोठरी में भी रहे। फिर भी , कभी अपने मार्ग से डिगे नहीं, झुके नहीं। उनमें देश भक्ति कूट कूटकर भरी थी। उनकी वीरता, निर्भीकता और साहस से प्रभावित होकर देश के लोगों ने उन्हें ‘वीर’ की उपाधि प्रदान की। वह वीर सावरकर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
वीर सावरकर भारतीय स्वांतत्र्य समर के महान् सेनानी, राजनीतिज्ञ और साथ ही एक कवि और लेखक भी थे। सावरकर के लिये हिंदुत्व का मतलब ही एक हिंदू प्रधान देश का निर्माण करना था। उनके राजनैतिक तत्वों में उपयोगितावाद, यथार्थवाद और सच शामिल है। बाद में कुछ इतिहासकारों ने सावरकर के राजनैतिक तत्वों को दूसरे शब्दों में बताया है मानो वे भारत में सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म चाहते थे। जबकि उनका ऐसा मानना था की भारत हिंदू प्रधान देश हो। और देश में सभी लोग भले ही अलग-अलग जाति के रहते हो लेकिन विश्व में भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में ही पहचान मिलनी चाहिये। इसके लिये उन्होंने अपने जीवन में काफी प्रयत्न भी किये।
वीर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर नामक गाँव में 28 मई, 1883 को हुआ था। उनके पिता श्री दामोदर पंत सावरकर विद्या-प्रेमी थे। उनके घर में उनका अपना पुस्तकालय था। वह श्री बाल गंगाधर तिलक के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘‘केसरी’’ को मंगाते थे। उसे पढ़कर परिवार के सभी लोगों को सुनाया करते थे। बालक विनायक सावरकर भी अपने पिता से केसरी में छपे समाचार सुना करते थे। उनके बाल मन पर देश-विदेश के समाचारों का गहरा प्रभाव पड़ता था। उनकी माता राधा बाई दयालु, धर्मात्मा और परोपकारी महिला थी। वह भजन और प्रभाती मधुर स्वर में गाकर बालक विनायक को सुनाया करती थी। विनायक इन भजनों और प्रभातियों को कंठस्थ कर लेते थे। माता-पिता दोनों की छाप विनायक पर पड़ी।
चापेकर बंधुओं की शहादत :
अभी विनायक किशोर ही थे कि सन् 1896 और 97 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा। अन्न और चारे के बिना मनुष्य और पशु मरने लगे। इसी समय पूना नगर प्लेग की भयंकर चपेट में आ गया। सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए बाल्टर चार्ल्स रैंड को कमिश्नर नियुक्त किया था। रैंड बड़े अत्याचारी स्वभाव का था। प्लेग की रोकथाम के नाम पर उसने गोरे सिपाहियों को खुली छूट द दी। वे जूते पहने लोगों के घरों के पूजाघरों में घुस जाते। घरों के अंदर का कीमती समान उठा ले जाते। यहाँ तक कि महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने से भी बाज नहीं आते थे। इससे चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। लोकमान्य तिलक और गोखले ने सरकार को सावधान भी किया, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
तब तक गौरवमयी माँ के तीन बेटों ने इन अत्याचारों का बदला लेने का निश्चय किया। गवर्नर के किशोर यहाँ विक्टोरिया के जन्मदिन की दावत थी। कमिश्नर रैंड और उसका साथी आयर्स्ट वहाँ से लौट रहे थे। दामोदर चापेकर और बालकृष्ण चापेकर ने रास्ते में ही अपनी गोलियों से उनका काम तमाम कर दिया। मुकदमा चला और वासुदेव सहित तीनों भाइयों को फाँसी दे दी गई।
चापेकर बंधुओ की फाँसी से देशवासी दुःखी और क्रोधित हुए। सबसे अधिक प्रभाव विनायक के किशोर मन पर पड़ा। वह भी दुःखी हुए। उस दिन उन्होंने उपवास रखा। रात में उन्हें नींद नहीं आयी।आधी रात को घर में स्थापित दुर्गा जी की मूर्ति के सामने प्रतिज्ञा की कि मैं देश को अंग्रेजां की दासता से मुक्त कराने के लिए जीवन भर संघर्ष करता रहूँगा। वह चापेकर बंधुओं पर एक कविता लिखने बैठ गए। उनके पिता वहाँ आये तो देखा कि विनायक कुछ लिखने में तल्लीन है। उन्होंने पूछा ‘क्या लिख रहे हो विनायक ?’ विनायक ने वह कविता पिता को थमा दी। पिता ने उस कविता को पढ़ा तो पाया कि उस कविता में क्रांति की आग भरी थी।
राष्ट्रभक्त संस्था का गठन :
बाल्यावस्था में विनायक की माता का देहांत हो गया था। किशोरावस्था में पिता भी चल बसे। बड़ी ही कठिनाइयों के बीच वह नासिक में पढ़ने लगे। एक कमरा लेकर स्वयं भोजन बनाते, परिश्रम से पढ़ते और खाली समय में कविताएँ लिखते थे। उनकी कविताएँ देशभक्ति से भरी हुई ओजस्वी होती थी। इसी समय उन्होंने राष्ट्रभक्त समूह नाम की एक गुप्त संस्था बनायी।
विनायक के रहने और विचारों का प्रभाव उनके युवा साथियों पर बहुत अधिक पड़ा। वे सब उन्हीं की भाँति परिश्रमी, परोपकारी और देशभक्त बन गये। इस प्रकार ऐसे युवकों का एक बहुत बड़ा संगठन बन गया।
नासिक से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर विनायक राव पूना गए जहाँ सन 1902 ई. में फर्गुसन कॉलेज में भर्ती हो गए।अब तक व अपने उग्र विचारों और निपुण वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। बहुत से छात्र उनके अनुयायी बन गए। सबने मिलकर ‘आर्थन वीकली’ नाम का साप्ताहिक पत्र निकाला। इसमें विनायक के लेख छपा करते थे। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह कानून की पढ़ाई के लिए बम्बई गये। यहाँ उन्हें पता चला कि लन्दन में रह रहे प्रसिद्ध क्रन्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा देशभक्त भारतीय छात्रों को छात्रवृति देना चाहते है तो उन्होंने भी आवेदन पत्र भेज दिया जो स्वीकार कर लिया गया। अंत 9 जून 1906 को सावरकर लन्दन रवाना हो गये।
विदेश में क्रांतिकारियों से संपर्क :
लन्दन में रहकर श्यामजीकृष्ण वर्मा के अलावा प्रसिद्ध क्रांतिकारी लाला हरदयाल , मदाम भिखा जी कामा , वीरेंदर चट्टोपध्याय , सेनापति बापट ज्ञानचन्द वर्मा आदि के सम्पर्क में आये। यहाँ उन्होंने ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ नामक संस्था बनाई। इस संस्था द्वारा भाषणों, सभाओं और समारोहों के आयोजन किये जाते थे। लन्दन में रहते उन्होंने इटली के महान देशभक्त मेजिली की जीवनी लिखी। यह पूना में छपी। परन्तु अंग्रेज शासकों ने उसे जब्त कर लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘सिखों का इतिहास’ और ‘1857 का स्वांतत्र्य समर’ नाम की दो अन्य पुस्तकें भी लिखी
लिखीं। ‘फ्री इण्डिया सोसाइटी’ की ओर से शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, गुरु नानक आदि की जयन्तियाँ मनायी जाती थी। बाहर से देखने में तो नौजवान जयन्तियाँ मनाने के लिए इकठ्ठे होते थे किन्तु उनमें से साहसी और देशभक्त युवकों को चुनकर उन्हें बम बनाने और हथियार चलाने की शिक्षा दी जाती थी ताकि वे देश को स्वतन्त्र कराने में अपना भरपूर सहयोग दे सकें।
जहाज से समुद्र में छलाँग :
लन्दन में वीर सावरकर के कार्यों में अंग्रेज शासकों को क्रान्ति की गन्ध आ रही थी। उन पर कड़ी निगरानी की जाने लगी। आखिकार 13 मार्च 1910 ई. को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरी ओर पेरिस में रुकी मेडम कामा आदि क्रन्तिकारी उन्हें यूरोप में रोक लेना चाहते थे। जुलाई 1910 को मोरिया नामक पानी के जहाज से वह कड़े पहरे में भारत के लिए रवाना किये गये। दो अंग्रेज अधिकारी और दस सिपाही उनकी चौकसी में उनके साथ थे। सवेरे का समय था। वह शौचालय गये। उनके आगे -पीछे दो सिपाही चले। उन्होंने शौचालय को अंदर से बंद कर लिया। ऊपर एक सकरा जंगला था। उसी से निकलकर वह समुद्र में कूद पड़े। पहरे के सिपाही ने देख लिया। वह चिल्लाया – ‘ कैदी भाग निकला’ जहाज में भगदड़ मच गयी। वीर सावरकर समुद्र में कभी लम्बी डुबकी लगाते कभी पानी की सतह पर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ने लगे। जहाज से उन पर पिस्तौल से गोलियाँ दागी गयी , परन्तु वह बचकर फ्रांस की भूमि पर पँहुच गये। अंग्रेज सिपाही उनका पीछा कर रहे थे। एक फ्रांसीसी सिपाही ने उन्हें पकड़कर अंग्रेज सिपाही को सौंप दिया। क्रान्तिकारियों की योजना सफल न हो सकी। वह पुनः जहाज पर लाये गये। यह घटना वीर सावरकर के जीवन की रोमांचकारी और साहसिक घटना मानी जाती है। ऐसे जान की बाजी वीर सावरकर ही लगा सकते थे।
दो जन्मों का कारावास :
भारत में लाकर वीर सावरकर पर कई जुर्म थोपकर मुकदमा चलाया गया। अदालत ने उन्हें दो आजन्म कारावास यानी पचास वर्ष के कालेपानी की सजा दे दी। इतनी लम्बी सजा आज तक किसी को नहीं दी गयी थी। इस समय उनकी आयु सत्ताईस वर्ष की थी।
4 जुलाई 1911 ई. को प्रातः वीर सावरकर अण्डमान लाये गए। पचास वर्ष के कठोर कारावास दण्ड से वह विचलित नहीं हुए।जेलर ने व्यंग्य में कहा दो आजीवन कारावास झेल पाओगे मि. सावरकर? सावरकर ने मुस्कराते हुए जेलर से कहा कि मेरी सजा तो ठीक है पर क्या तब तक अंग्रेज हुकूमत भारत में टिक पाएगी? दिन में उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती। उनसे नारियल का छिलका कूटने, रस्सी बटने का काम लेने के अलावा तेल की धानी में जोता जाता और कोड़ां से पीटा जाता था। रात में उनका कविताएँ लिखने का मन करता। कागज कलम तो था नहीं, जब भी कोई विचार मन में उठता तो कोयले से काल कोठरी की दीवारां पर लिख लेते थे।
वीर सावरकर की रिहाई के लिए भारत में कुछ बड़े लोग प्रयास कर रहे थे। वे चाहते थे कि उन्हें अण्डमान से लाकर भारत की किसी जेल में रखा जाए। 2 मई 1921 को अण्डमान से लाकर अलीपुर की जेल में उन्हें रखा गया। 6 जनवरी 1924 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। परन्तु शर्त यह लगा दी गयी की वह रत्नागिरी को छोड़ कर कहीं जायेंगे नहीं। जाने पर उन्हें जिला अधिकारी की अनुमति लेनी होगी। रत्नागिरी में रहकर वीर सावरकर ने कई ग्रंथों की रचना की जिनके नाम है – ‘हिन्दू पद -पाद शाही’, ‘मेरा आजन्म कारावास’ आदि। उन्होंने नाटक भी लिखे जिनके नाम हैं – ‘सन्यस्त खड्ग’, ‘उत्तर क्रिया’, ‘बोधिवृक्ष’ आदि।
10 मई 1937 को वीर सावरकर पर लगा प्रतिबन्ध हटा दिया गया। अब वह रत्नागिरी से देश में कहीं भी जा सकते थे। रत्नागिरी, पूना, बम्बई आदि नगरी में उनका भव्य स्वागत किया गया। उनका सन्देश था -हमें भारत को स्वतन्त्र कराना है, हमें स्वराज्य प्राप्त करना है।
वीर सावरकर भारत को स्वतंत्र कराना चाहते थे परन्तु उसे खण्डित भी नहीं देखना चाहते थे। अतः उन्होंने देश के विभाजन का विरोध किया।15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ , परन्तु खंडित भी हो गया। वीर सावरकर बहुत दुःखी हुए तो भी उन्हें प्रसन्नता थी कि जिस आजादी के लिए उन्होंने कष्ट झेले, उसे वह देख सके। 26 फरवरी 1966 को 83 वर्ष की आयु में वीर सावरकर का देहवसान हो गया।
वैद्य रामेश्वर प्रसाद शर्मा