भारतीय दर्शन की जितनी शाखाएँ हैं, सबका निचोड़ उपनिषदों में मिलता है। उपनिषदों में सबसे प्राचीन तथा आकार में सबसे बड़ा उपनिषद बृहदारण्यक है। इस उपनिषद के दार्शनिक याज्ञवल्क्य हैं। उन्होंने राजा जनक के दरबार में तत्कालीन समस्त महान दार्शनिकों से शास्त्रार्थ करके अपने दर्शन को सर्वोच्च सिद्ध किया था। अद्वैत वेदांत का शास्त्रीय रूप उन्हीं से आरंभ होता है। विष्णुपुराण के अनुसार, याज्ञवल्क्य ने शुक्ल यजुर्वेद को सूर्य से प्राप्त किया था और शुक्ल यजुर्वेद की समस्त शाखाएँ याज्ञवल्क्य द्वारा ही प्रवर्तित की गई हैं।
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को याज्ञिक सम्राट, शुल्क यजुर्वेद प्रवर्तक, महान दार्शनिक एवं विधिवेत्ता, ‘महर्षि याज्ञवल्क्य’ की जयंती मनाई जाती है। महर्षि याज्ञवल्क्य, भारतीय ऋषि-परंपरा के अग्रणी ऋषियों में से थे। वैदिक मन्त्रद्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्यों में ऋषि याज्ञवल्क्य का प्रमुख स्थान रहा है। महर्षि याज्ञवल्क्य को पुराणों में ब्रह्मा जी का अवतार माना गया है, इसी कारण इन्हें ब्रह्मर्षि भी कहा जाता है। वे महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, उनका अपने गुरु महर्षि वैशंपायन से कुछ विवाद हो गया। गुरुजी ने नाराज होकर कहा- मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मंत्रों का उपदेश दिया है, उनका वमन कर दो। इस पर याज्ञवल्क्य ने सारी शिक्षा उगल दी, जिन्हें वैशंपायन के दूसरे शिष्यों ने तित्तिर (तीतर) बनकर ग्रहण कर लिया। यजुर्वेद की उस शाखा को तैत्तिरीय शाखा के नाम से जाना गया। वेदों के ज्ञान से शून्य हो जाने के बाद उन्होंने सूर्य से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। सूर्य से प्राप्त शुक्ल यजुर्वेद संहिता के मुख्य आचार्य याज्ञवल्क्य हैं। इस संहिता में चालीस अध्याय हैं। आज रुद्राष्टाध्यायी नाम से जिन मंत्रों से रुद्र (भगवान शिव) की आराधना होती है, वे इसी संहिता में हैं। इस संहिता में शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यकोपनिषद भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा प्राप्त है।
महर्षि याज्ञवल्क्य यज्ञ सम्पन्न कराने में इतने निपुण थे कि उनको ‘याज्ञिक सम्राट’ कहा जाता है। यज्ञ सम्पादन में सिद्धहस्त होने के कारण ही उनका नाम ‘याज्ञवल्क्य’ पड़ा। कहते हैं कि उनके लिए यज्ञ सम्पादन कराना वस्त्र बदलने के समान ही सहज और सरल कार्य था। भगवान् सूर्य देव के वरदान स्वरूप ऋषि याज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी संहिता के आचार्य बने, जिस कारण उन्हें ‘वाजसनेय’ के नाम से भी जाना जाता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य के पिता ब्रह्मरथ, जिन्हें ‘वाजसनी’ और ‘देवरथ’ नाम से भी जाना जाता है, वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता थे। इनकी माता का नाम देवी सुनन्दा था, वे ऋषि सकल की पुत्री थीं। महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं, मैत्रेयी और कात्यायनी। मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थीं। महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के मध्य अनश्वरता पर हुए प्रसिद्ध संवाद का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् में मिलता है। महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी कात्यायनी ऋषि भारद्वाज की पुत्री थीं। मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी और जिज्ञासु थी तथा कात्यायनी घर-गृहस्थी में ही रुचि लेने वाली साधारण महिला थी। मैत्रेयी का यह वाक्य आज भी दार्शनिकों के लिए प्रेरणादायी है-
‘येनाहं नामृता स्याम किमहं तेन कुर्याम्’
अर्थात् ‘जिससे मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करूँगी’? यह बात मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य के इस कथन के प्रति कही थी कि ‘अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन’, अर्थात् वित्त से अमरत्व को नहीं प्राप्त किया जा सकता। फिर अमरतत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। एक शब्द में उत्तर है- त्याग से।
एक बार राजा जनक ने एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया, जिसमें यह शर्त रखी गयी कि जो भी ब्रह्मविद्या का परम ज्ञाता होगा उसे पारितोषिक स्वरुप स्वर्ण मण्डित सींगों वाली एक हजार गायें दी जायेंगी। महर्षि याज्ञवल्क्य के अलावा कोई सामान्य मनुष्य तो दूर कोई ऋषि भी इस शास्त्रार्थ में भाग लेने का साहस नहीं जुटा पाया। जब महर्षि याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ करने पहुँचे तो वहाँ उनसे ब्रह्मविद्या विषयक अनेकों जटिल प्रश्न पूछे गये, जिनका उन्होंने बड़ी ही सहजता और सटीकता के साथ उत्तर दिया। अन्ततः महर्षि याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ में विजयी हुए और राजा जनक के कार्यों में उनके गुरू एवं सलाहकार के रूप में उनके साथ रहे।
महर्षि याज्ञवल्क्य को ‘योगीश्वर याज्ञवल्क्य’ के नाम से भी जाना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरितमानस में उल्लिखित है कि महर्षि याज्ञवल्क्य ने ही प्रयाग में ऋषि भारद्वाज को श्री राम के पावन चरित्र का श्रवण कराया था।
महर्षि याज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेदकार रहे हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा रचित शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद्, ईशोपनिषद, प्रतिज्ञासूत्र, याज्ञवल्क्य स्मृति, योग याज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थ हिन्दू धर्म एवं संस्कृत की अमूल्य निधि हैं।
डॉ. वर्षा दाँत्या