चिड़ियाँ नाल मैं बाज लड़ावाँ, गिदरां नुं मैं शेर बनावाँ!
सवा लाख से एक लड़ावाँ, ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ !!
सिख परम्परा के दशम् गुरु श्री गोविंद सिंह द्वारा 17वीं शताब्दी में कहे गए ये शब्द आज भी सुनने या पढ़ने वाले की आत्मा को चीरते हुए उसके शरीर में एक अद्भुत शक्ति का संचार करते हैं। ये केवल शब्द नहीं हैं, शक्ति का पुंज है। एक आग है अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, भय के विरुद्ध, शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध, निहत्थे और बेबसों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध। कल्पना कीजिए उस आत्मविश्वास की जो एक चिड़िया को बाज से लड़ा सकता है, उस विश्वास की जो गीदड़ को शेर बना सकता है, उस भरोसे की जिसमें एक अकेला सवा लाख से जीत सकता है और हम सभी जानते हैं कि उन्होंने जो कहा वो करके भी दिखाया।
गुरु गोविन्द सिंह जी एक महान् योद्धा होने के साथ-साथ महान् विद्वान् भी थे। वे ब्रज भाषा, पंजाबी, संस्कृत और फारसी भी जानते थे। वे इन सभी भाषाओं में काव्य भी लिख सकते थे। जब औरंगजेब के अत्याचार सीमा से बढ़ गए तो गुरूजी ने मार्च 1705 को एक पत्र भाई दयाल सिंह के हाथों औरंगजेब को भेजा। इसमें उसे सुधरने की नसीहत दी गयी थी। यह पत्र फारसी भाषा के छंद शेरों के रूप में लिखा गया था। इसमें कुल 134 शेर हैं। इस पत्र को ‘‘जफरनामा“ कहा जाता है। यद्यपि यह पत्र औरंगजेब के लिए था लेकिन इसमें जो उपदेश दिए गए है वो आज हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इसमें कट्टर इस्लामी धर्मां औरंगजेब के बारे में जो लिखा गया है, वह हमारी आँखें खोलने के लिए काफी हैं। इसीलिए जफरनामा को धार्मिक महत्त्व को स्वीकार करते हुए दशम् ग्रन्थ में शामिल किया गया है।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा यानि खालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। खालसा होने का अर्थ है खालिस अर्थात् विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति होना। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि खालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर जुल्म और जालिम से लोहा भी लेता है। गुरु जी द्वारा खालसा का पहला धर्म यह सुनिश्चित किया है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह खालिस है, वही सच्चा खालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने खालसा पंथ को स्वीकार किया था। गुरु गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है।
मुगलों के जुल्म और अत्याचारों से टूट चुके भारत में एक नई शक्ति का संचार करने के लिए उन्होंने 1699 में बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में एक सभा का आयोजन किया। हजारों की इस सभा में हाथ में नंगी तलवार लिए भीड़ को ललकारा, ‘इस सभा में कौन है जो मुझे अपना शीश देगा?’ गुरुजी के ये शब्द सुनकर पूरी सभा में से जो पांच लोग अपने भीतर हौसला लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए आगे आए। इन्हें गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘पंज प्यारे’ का नाम देकर खालसा पंथ की स्थापना की और नारा दिया ‘वाहे गुरुजी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फतेह’। ‘खालसा’ यानी की ‘शुद्ध, खालिस, पवित्र’। हर खालसा को गुरु गोविंद सिंह जी ने केश व पगड़ी के साथ एक ऐसी पहचान दी कि कोई भी व्यक्ति सहायता के लिए खालसा को दूर से पहचान कर उससे मदद माँग सके और इतिहास गवाह है कि इसी भारतीय समाज में से ‘खालसा’ वो बनकर निकला कि आज भी पूरा देश न सिर्फ उनका सम्मान करता है बल्कि भारत भूमि के अनेक युद्धों में उनके द्वारा दिए गए बलिदानों का ऋणी है।
उन्हें याद किया जाता है उनकी वीरता के लिए, उनके शौर्य के लिए, उस संघर्ष के लिए जो उन्होंने किया इस समाज में व्याप्त ऊँच नीच और जातिवाद को खत्म करने के लिए। धर्म की रक्षा के लिए जो बलिदान उन्होंने दिए, उसकी मिसाल इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती। मात्र नौ वर्ष की आयु में जब औरंगजेब के जुल्म से घबराए कश्मीरी पंडित इनके पिता गुरु श्री तेगबहादुर जी के पास मदद मांगने आए तो वो गुरु गोविन्द सिंह जी ही थे जिन्होंने अपने पिता को उस महान बलिदान के लिए प्रेरित किया था। इतना ही नहीं इनके दो बड़े पुत्र चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए और दो छोटे पुत्र मात्र 8 और 5 वर्ष की आयु में हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए दीवार में जिंदा चिनवा दिए गए थे।
वो आपकी दी हुई शिक्षा थी जो उस अबोध आयु के बालक मुसलमान सूबेदार वजीर खान की कैद में होते हुए भी डरे नहीं और धर्म परिवर्तन के नाम पर अपने दादा की कुर्बानी याद करते हुए बोले कि जिन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की परवाह भी नहीं की तुम उनके पोतों को मुसलमान बनाने की सोच भी कैसे सकते हो? इन कुर्बानियों ने गुरु गोविंद सिंह जी को और मजबूत बना दिया और 1705 में उन्होंने औरंगजेब को चंद शेरों के रूप में फारसी भाषा में एक पत्र लिखा जिसे ‘जफरनामा’ कहा जाता है। यह पत्र औरंगजेब के लिए था और इसमें उन्होंने औरंगजेब को उसका साम्राज्य नष्ट करने की चेतावनी दी थी।
भारत अनादि काल से हिन्दू देश रहा है। इस देश में जितने भी धर्म, संप्रदाय और मत उत्पन्न हुए हैं, उन सभी के अनुयायी, इस देश के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। लेकिन जब भारत पर इस्लामी हमलावरों का
शासन हुआ तो उन्होंने हिन्दू धर्म और हिन्दुओं को मिटाने के लिए हर तरह के यत्न किये। सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए उस काल में अनेकानेक प्रयत्न हुए इनमे गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है। क्योंकि गुरूजी ने धर्म के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादुर और अपने चार पुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतह सिंह को बलिदान कर दिया था। आज जो हिन्दू बचे हैं, उसके लिए हमें उन महापुरुषों का आभार मानना चाहिए जिन्होंने अपने त्याग और बलिदान से देश और हिन्दू धर्म को बचाया था।
गुरु गोविंद सिंह जी इतिहास के वो महापुरुष हैं जो किसी रियासत के राजा तो नहीं थे लेकिन अपनी शख्सियत के दम पर लोगों के दिलों पर राज करते थे। उन्होंने इस गुलाम देश के लोगों को सिर उठाकर जीना सिखाया, लोगों को विपत्तियों से लड़ना सिखाया, यह विश्वास दिलाया कि अगर देश आज गुलाम है तो इसका भाग्य हम ही बदल सकते हैं। वो गुरु गोविंद सिंह जी ही थे जिन्होंने अपने भक्तों को एक सैनिक बना दिया, उनकी श्रद्धा और भक्ति को शक्ति में बदल दिया। जिनके नेतृत्व में इस देश का हर नागरिक एक वीर योद्धा बन गया।
सिखों के दसवें एवं आखिरी गुरु की 352 साल पुरानी हर सीख आज भी प्रासंगिक है। उनके बताए पथ पर चलकर जिस देश ने अपना इतिहास बदला आज एक बार फिर से उन्हीं का अनुसरण करके हम अपने देश का भविष्य बदल सकते हैं। आवश्यकता है अपनी आने वाली पीढ़ी को गुरुजी द्वारा बताए संस्कारों से जोड़ने की।
संदीप आमेटा