घटना उन दिनों की है जब भारत पर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था और आचार्य चाणक्य यहाँ के महामंत्री थे और चन्द्रगुप्त के गुरु भी थे। उन्हीं के बदौलत चन्द्रगुप्त ने भारत की सत्ता हासिल की थी। चाणक्य अपनी योग्यता और कर्तव्यपालन के लिए देश विदेश में प्रसिद्ध थे। उन दिनों एक चीनी यात्री भारत आया और यहाँ वहां घूमता फिरता जब वह पाटलीपुत्र पहुंचा तो उसकी इच्छा चाणक्य से मिलने की हुई। उनसे मिले बिना उसे अपनी भारत यात्रा अधूरी महसूस हुई।
संध्या को चाणक्य किसी राजकीय विषय पर चिंतन करते हुये कुछ लिखने मे व्यस्त थे। सामने ही दीपक जल रहा था। चीनी यात्री ने चाणक्य को प्रणाम किया और एक ओर बिछे आसन पर बैठ गया।
चाणक्य ने अपनी लेखन सामग्री एक ओर रख दी और दीपक बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया।
इस के बाद चीनी यात्री को संबोधित करते हुए बोले, ‘‘महाशय, हमारे देश में आप काफी घूमे-फिरे हैं। कैसा लगा आप को यह देश?’’ चीनी यात्री ने नम्रता से बोला, ‘‘आचार्य, मैं इस देश के वातावरण और निवासियों से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। लेकिन यहाँ पर मैंने ऐसी अनेक विचित्रताएं भी देखीं हैं, जो मेरी समझ से परे है’’।
‘‘कौन सी विचित्रताएं, मित्र?’’ चाणक्य ने स्नेह से पूछा। ‘‘उदाहरण के लिए सादगी की ही बात ली जा सकती है। इतने बड़े राज्य के महामन्त्री का जीवन इतनी सादगी भरा होगा, इस की तो कल्पना भी हम विदेशी नहीं कर सकते,’’ कह कर चीनी यात्री ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘अभी अभी एक और विचित्रता मैंने देखी है आचार्य, आज्ञा हो तो कहूँ?’’ ‘‘अवश्य कहो मित्र, आपका संकेत कौन सी विचित्रता की ओर है?’’
‘‘अभी अभी मैं जब आया तो आप एक दीपक की रोशनी में काम कर रहे थे। मेरे आने के बाद उस दीपक को बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया। मुझे तो दोनों दीपक एक समान लग रहे है। फिर एक को बुझा कर दूसरे को जलाने का रहस्य मुझे समझ नहीं आया?’’
आचार्य चाणक्य मंद मंद मुस्कुरा कर बोले इसमे ना तो कोई रहस्य है और ना विचित्रता। इन दोनों दीपकों में से एक में राजकोष का तेल है और दूसरे में मेरे अपने परिश्रम से खरीदा गया तेल। जब आप यहाँ आए थे तो मैं राजकीय कार्य कर रहा था इसलिए उस समय राजकोष के तेल वाला दीपक जला हुआ था। इस समय मैं आपसे व्यक्तिगत बातें कर रहा हूँ, इसलिए राजकोष के तेल वाला दीपक जलना उचित और न्यायसंगत नहीं है। लिहाज मैंने वो वाला दीपक बुझा कर अपनी आमदनी वाला दीपक जला दिया’’।
चाणक्य की बात सुन कर यात्री दंग रह गया और बोला, ‘‘धन्य हो आचार्य, भारत की प्रगति और उसके विश्वगुरु बनने का रहस्य अब मुझे समझ मे आ गया है। जब तक यहाँ के लोगों का चरित्र इतना ही उन्नत और महान बना रहेगा, उस देश की तरक्की को संसार की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी। इस देश की यात्रा करके और आप जैसे महात्मा से मिल कर मैं खुद को गौरवशाली महसूस कर रहा हूँ।’’
केतन शर्मा