समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में ‘जीवन में गुरु का महत्त्व’ विषय 51 वीं मासिक विचार गोष्ठी का आयोजन फतह स्कूल में किया गया। गोष्ठी में अपने विचार रखते हुए वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक प्राणी के जीवन में गुरु का स्थान महत्वपूर्ण होता है।
विषय का प्रवर्तन करते हुए समुत्कर्ष के परामर्शद तरुण शर्मा ने बताया कि गुरु अपने शिष्य को आँख (दृष्टि), लाख (लक्ष्य), पाख (सामर्थ्य), साख (प्रतिष्ठा), राख (अहं का विगलन) की प्रेरणा देता है। गुरु शब्द का अर्थ है ‘अधंकार को दूर करने वाला’। गुरु अज्ञान को दूर करके हमें ज्ञान का प्रकाश देता है। वह ज्ञान जो हमें बतलाता है कि हम कौन हैं, विश्व से कैसे जुड़ें और कैसे सच्ची सफलता प्राप्त करें। सबसे अधिक महत्वपूर्ण कि कैसे विश्व से ऊपर उठ कर अनश्वर परमानंद के धाम पहुँचे।
डॉ. गोपी कृष्ण पुरोहित ने बताया कि भगवान दत्तात्रेय ने जीवन में 24 गुरु बनाए थे। अर्थात् जिससे प्रेरणा मिले वह गुरु। गुरु के प्रति शिष्य भगवान की भावना रखे, गुरुदेव के प्रति उसमें अचल भक्ति और श्रद्धा हो, और वह गुरु के वाक्यों को ईश्वर का आदेश समझे, तभी वह अपना समस्त जीवन सुख-शान्तिपूर्वक व्यतीत करके जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है।
शिवशंकर खंडेलवाल प्राध्यापक ने इस अवसर पर बताया कि मनुष्य जब से जन्म लेता है तभी से उसे गुरु की आवश्यकता होती है। उस समय माता-पिता उसके गुरु बन कर उसका पालन-पोषण करते है, उसे बोलना चलना, खाना-पीना सिखाते हैं, उसे नीति, धर्म, ज्ञान, विज्ञान की भी थोड़ी-बहुत शिक्षा देते हैं। जब मनुष्य किसी व्यवसाय में लगता है तब उसका स्वामी उसका गुरु बनता है। अथवा यदि वह कोई नौकरी करता है तो उसके ऊपर वाले अफसर उसके गुरु बनते हैं। इस प्रकार प्रत्येक सांसारिक और व्यवहारिक कामों में मनुष्य का कोई न कोई गुरु होता है।
कुशाल माली ने बताया कि गुरु हमें अपने ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा जैसे गुण विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं। ये सभी गुण विशेष अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी सांसारिक यात्रा में टिके रहने की दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं। यही गुरु का महत्त्व है।
संचालन करते हुए संदीप आमेटा ने कहा कि जिस प्रकार किसी सरकार के अंर्तगत शिक्षा विभाग होता है, जो पूरे देश में आधुनिक विज्ञान सिखाने में सहायता करता है, उसी प्रकार ईश्वर का वह अंग जो विश्व को आध्यात्मिक विकास तथा आध्यात्मिक शिक्षा की ओर ले जाता है, उसे गुरु कहते हैं। यह अप्रकट गुरु तत्त्व पूरे विश्व में विद्यमान है तथा जीवन में और मृत्यु के पश्चात भी हमारे साथ होता है। इस अप्रकट गुरु का महत्व यह है कि वह संपूर्ण जीवन हमारे साथ रहकर धीरे-धीरे हमें सांसारिक जीवन के विभ्रम से साधना पथ की ओर मोड़ता है।
विद्यासागर ने वर्तमान पीढ़ी के सन्दर्भ में गुरु की बढ़ती आवश्यकता को उल्लेखित करते हुए प्राचीन परम्परा को युगानुकूल परिवर्तित करने की आवश्यकता जताते हुए कहा कि भारत में गुरु-शिष्य-परंपरा सदियों नहीं, युगों पुरानी है, जो आज तक कायम है। गुरु हमेशा से सफल व्यक्तित्व, परिवार, समाज और राष्ट्र की नींव तथा रीढ़ रहे हैं। आज भले ही कुछ ढोंगी बाबाओं के चलते गुरु-संतों को शक की दृष्टि से देखा जा रहा है, परंतु इससे जीवन में गुरु के महत्त्व और उनके योगदान को कम नहीं किया जा सकता। समुत्कर्ष के सहसम्पादक गोविन्द शर्मा ने आभार व्यक्त किया।
इस अवसर पर दिनेश अग्रवाल, गणपत लाल, रुक्मणि काबरा, निरंजन पटवारी राहुल तिवारी, गिरीश चौबीसा, हेमन्त जोशी, राकेश शर्मा, नरेन्द्र टाक, गोपाल माली, प्रवीण, देवेन्द्र मेनारिया आदि उपस्थित थे।
लोकेश जोशी
(विचार गोष्ठी संयोजक)