भारतीय संत परंपरा सनातन संस्कृति की वाहक है। गुरु शिष्य परंपरा से ही भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की पहचान है। संतों के सान्निध्य में व्यक्ति के उत्तम चरित्र का निर्माण होता है। राष्ट्र की एकता अखंडता बनाए रखने में संतों की अहम भूमिका है। संतों का जीवन परमार्थ को समर्पित रहता है। संत महापुरुष केवल शरीर त्यागते हैं, उनका संतत्व सदैव जीवित रहता है।
भारत की संत परंपरा देश की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की अग्रदूत है। यहाँ जन्म लेने वाले संतों ने भारत की संत परंपरा को भारतीय राष्ट्रीयता का मंत्र दिया है, भारत जब उस मंत्र के आधार पर खड़ा होगा, तभी जगद्गुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। त्याग, तपस्या और लोक कल्याण के लिए भगवा धारण कर भारतभूमि ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में आनंद और शांति को स्थापित करने का संकल्प करने का नाम ‘संन्यासी’ है। इस परंपरा से प्रभावित बहुत से विदेशी नागरिकों को भी भारत की भूमि अपनी ओर खिंचती रही है। इसके आध्यात्मिक मोहपाश से जो बंधा, वह जीवन पर्यंत उससे बंधे रहने की कामना कर यही मांग करते रहे कि ‘‘अगला जनम मोहे भारत में ही दीजो।’’
भौतिकता से परिपूर्ण जीवन को त्याग, भारतभूमि की धूल फांकते जिस आनंद की अनुभूति संतों को होती है उस दिव्य आनंद को तो कोई संत ही बता सकता है। विश्व इतिहास के विभिन्न कालखंड इस बात के प्रमाण हैं कि संतों ने आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने के अलावा समाज को समय-समय पर सही दिशा दिखायी है। विशेष रुप से भारतीय इतिहास तो ऐसे अनगिनत उदाहरणों का साक्षी रहा है। राजशाही को लोकशाही की शक्ति का आभास भी इन्हीं संतों के द्वारा कराया गया।
राजसभा से दूर रहने वाले संतों को राजशाही को दिशा देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या सभा मद में चूर राजनीति की पवित्रता नष्ट नहीं हुई है। राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को कष्ट मुक्त करने की इच्छा से संतों ने तपोवन से निकलकर धर्मानुकूल समाज निर्माण का प्रयास किया है।
भारतीय संत-परंपरा का इतिहास काफी प्राचीन है। सदियों से हमारा यह देश संतों, महापुरुषों और अवतारी सभाओं की भूमि रहा है। ऐसे महापुरुषों की इतनी लंबी शृंखला है कि इनके नाम भर गिनाए जाएं, तो हजारों पन्नों की पोथी बन जाएगी। संतों ने न केवल अपने जीवन को सार्थक दिशा दी, बल्कि समाज व राष्ट्र के लिए भी उल्लेखनीय योगदान दिया। समय समय पर इन संतों ने ज्ञान विस्तार की पावन गंगा-धारा को न केवल अपने भगीरथ पुरुषार्थ के पुष्प अर्पित किए, वरन अपने अनुयायियों को भी उस पवित्र धारा में अवगाहन कराकर मुक्ति मार्ग में आगे बढऩे हेतु प्रेरित-प्रोत्साहित किया। संत तत्कालीन समाज में व्याप्त कई कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं और रूढिय़ों के खिलाफ आवाज बुलंद करने के साथ-साथ ऐसी अवांछनीयताओं को निरस्त करने में जन-जागरूकता लाने की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहे हैं।
संतों का जहाँ भी अवतरण हुआ है, वहाँ भारतीय संस्कृति के वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार होकर समाज में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। जब समाज में कई विकृतियाँ फैलने लगीं तब आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने अपने शिष्यों के साथ भारत के कोने-कोने में घूम-घूमकर सनातन धर्म व अद्वैत ज्ञान का प्रचार किया। यवनों के आक्रमण से जब सम्पूर्ण हिन्दू समाज त्रस्त था, तब योगी गोरखनाथ जी व नाथ-परंपरा के योगियों ने समाज में धर्मनिष्ठा व अध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया।
राजस्थान में राजर्षि संत पीपा जी ने काशी के स्वामी रामानंद जी से दीक्षा ले के प्रजा को धर्म-मार्ग पर लगाया तो भक्तिमती मीराबाई ने गुरु रैदास जी का शिष्य स्वीकार कर सारे राजस्थान और गुजरात में भगवद्भक्ति की गंगा बहायी।
तमिलनाडु के आलवारों (वैष्णव भक्त), नायनारों (शैव भक्त) तथा संत तिरुवल्लुवर जैसे संतों से बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित हुए। ११वीं-१२वीं शताब्दी में श्री रामानुजाचार्यजी ने ‘वेदांत भक्ति’ का भारतभर में प्रचार किया। आँध्र प्रदेश के संत वेमना के उपदेशों का समाज पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा।
गुजरात के संत नरसिंह मेहता जी, संत प्रीतमदास जी आदि ने भी प्रभुभक्ति का प्रचार किया और समाज को सही दिशा दी। संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस तथा अन्य कई ग्रंथों की प्रचलित भाषा में रचना करके सामान्य जनों को आदर्श जीवन जीने की रीति बतायी और उनके जीवन को भक्ति रस से सराबोर कर दिया।
महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वरजी, नामदेव जी, एकनाथ जी, तुकाराम जी, चोखामेला, राँका, बाँका, जनाबाई, नरहरि जी आदि ने और वारकरी सम्प्रदाय के अन्य संतों ने जब घूम-घूम के भगवन्नाम-संकीर्तन के माध्यम से समाज को जगाना शुरु किया तो लाखों लोग उनके अनुयायी बन भगवद्भक्ति के रास्ते चल पड़े।
सच्चे संतों का लक्षण यह है कि वे सदा दूसरों का हित ही सोचते हैं और उस दिशा में भरसक प्रयास करते हैं। वे सदा दूसरों को देते ही हैं। उनके पास जो कुछ भी रहता है, उसका उपयोग वे समाज को, मानवता को ऊंचा उठाने, आगे बढ़ाने में करते हैं। भारत में दूसरों के लिए जीने को ही परमार्थ कहा गया। ये माना गया कि जो केवल खुद के लिए जिये वो दानव, जो खुद के साथ दूसरों के लिए भी जिये वो मानव और जो अपना सुख-दुख भूलकर दूसरों के सुख-दुख को ही अपना मानकर सबके हित में सोचे, सबके लिए जिये वही संत है।