महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं लेकिन उससे भी पहले पूरा देश उनको जिस सम्मान की दृष्टि से देखता हैं, वैसा सम्मान ना कभी किसी और व्यक्तित्व को मिला हैं ना आने वाली कई शताब्दियों तक मिलने की सम्भावना है। वास्तव में ‘‘राष्ट्रपिता’’ के सम्मान से सुशोभित महात्मा गांधी देश की अमूल्य धरोहर में से एक हैं, क्योंकि उनका सम्मान और उनके विचारों का अनुगमन ना केवल हम भारतीय करते हैं, बल्कि भारत के बाहर भी बहुत बड़ी संख्या में लोग गांधी जी के विचारों और कार्यों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ कहावत के दो उदाहरण याद आते हैं। बचपन में श्रवण कुमार और सत्यवादी राजा हरिशचंद्र का नाटक बाइस्कोप में देखकर गांधी जी माता-पिता की आज्ञा पालन और सत्य बोलने की आदत का जीवन भर निर्वाह करते हैं। ये दो प्रसंग उनकी जीवन यात्रा के वे निर्धारण बिंदु हैं जिनसे उनका चरित्र और व्यक्तित्व आकार लेता है। गांधी के तीन बंदरों की छाप भारत के हर वर्ग पर अमिट है-बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो का आदर्श दूसरे की आलोचना न करने की सीख देता है। दूसरे के कार्यों में बुराई देखना, दूसरों की बुराई सुनना और जहाँ बुराई हो रही है वहाँ मन लगाकर सुनना मनुष्य मात्र की दुर्बलताएँ हैं। इन दुर्बलताओं पर विजय पाकर ही श्रेष्ठ मानव बना जा सकता है।
जन्म एवं बाल्यकाल
गुजरात का वह भाग जिसे सौराष्ट्र कहते हैं, उसका जिला मुख्यालय राजकोट है। इसी राजकोट के अन्तर्गत पोरबन्दर वहाँ के सौन्दर्य में वृद्धि करता हुआ निरन्तर अट्टहास करता रहता है। पोरबंदर उस समय बंबई प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत के तहत एक छोटी सी रियासत काठियावाड़ में कई छोटे राज्यों में से एक था। मोहनदास गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को भारत के पश्चिमी तट पर इसी तटीय शहर में हुआ था।
उनका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम करमचंद गांधी था। वे पोरबंदर शहर के दीवान थे। उनकी माँ का नाम पुतलीबाई था, जो कि उनके पिता की चैथी पत्नी थीं। करमचन्द गांधी की तीन पत्नियाँ काल-कवलित होती गईं और चैथी पत्नी पुतली बाई से उन्हें तीन पुत्र और एक पुत्री हुईं।
गांधी जी की मां पुतलीबाई एक निर्मल चरित्र, कोमल हृदय और भक्त महिला थी, जिन्होंने उनके मन पर एक गहरी छाप छोड़ी थी। वास्तव में वो परिवार को समर्पित आध्यात्मिक महिला थी। बीमार की सेवा करना, व्रत-उपवास करना जैसे काम उनके दैनिक जीवन में शामिल थे। इस तरह गांधी जी की परवरिश ऐसे माहौल में हुई जहां पर वैष्णवमयी माहौल और जैन धर्म के सिद्धान्त थे। इसी कारण वो शाकाहारी भोजन, अहिंसा, व्रत-उपवास की जीवन-शैली में विश्वास करते थे, जिससे मन को शुद्ध किया जा सके। इस प्रकार बचपन से ही उन्होंने सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ा।
वो सात वर्ष के थे जब उनका परिवार राजकोट (जो काठियावाड़ में एक अन्य राज्य था) चला गया जहां उनके पिता करमचंद गांधी दीवान बने। उनकी प्राथमिक शिक्षा राजकोट में हुई और बाद में उनका दाखिला हाई स्कूल में हुआ। हाई स्कूल से मैट्रिक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद गांधी जी ने शामलदास काॅलेज, भावनगर में दाखिला लिया।
सन 1883 में साढे 13 साल की उम्र में ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा से करा दिया गया। जब मोहनदास 15 वर्ष के थे, तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। उनके पिता करमचन्द गांधी भी इसी साल (1885) में चल बसे। बाद में मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं दृ हरीलाल गांधी (1888), मणिलाल गांधी (1892), रामदास गांधी (1897) और देवदास गांधी (1900)।
शिक्षा और वकालत
इस प्रकार गांधी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पोरबंदर में और हाई स्कूल की शिक्षा राजकोट में हुई। शैक्षणिक स्तर पर मोहनदास एक औसत छात्र ही रहे। सन 1887 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अहमदाबाद से उत्तीर्ण की। इसके बाद मोहनदास ने भावनगर के शामलदास काॅलेज में दाखिला लिया पर खराब स्वास्थ्य और गृह वियोग के कारण वह अप्रसन्न ही रहे और काॅलेज छोड़कर पोरबंदर वापस चले आ गए। गांधी जी ने एक वर्ष तक बाॅम्बे विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई की। उसके बाद वो 4 सितम्बर 1888 को वकालत की पढ़ाई करन के लिए यूनिवर्सिटी काॅलेज लन्दन चले गये। लन्दन जाते समय उन्होंने अपनी माता जी को वचन दिया की वो मांस शराब से दूर रहेंगे। लन्दन में बिताये समय ने मोहनदास को काफी प्रभावित किया। वहां उन्होंने अंग्रजों के रीति रिवाज को भी अनुभव किया। मांस और शराब से दूर उन्होंने वहां शाकाहारी समाज की सदस्यता भी ली थी। 1891 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से स्नातक किया उसके बाद इंग्लैण्ड वकील संघ में भर्ती हुए। डेविड थोरो के द्वारा लिखी हुई किताब ‘‘सिविल असहयोग’’ को पढ़कर वह बहुत प्रेरित हुए और उनके अन्दर अहिंसा के प्रति समर्पण की भावना जाग्रत हुई। उसके बाद वह मुंबई वापस आये और एक साल तक कानून का अभ्यास किया। इंग्लैण्ड में अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद गांधी जी ने राजकोट में कुछ समय बिताया लेकिन उन्होंने मुंबई में अपनी कानूनी प्रैक्टिस करने का निर्णय लिया। हालांकि मुंबई में खुद को स्थापित करने में विफल होने के बाद गांधी जी राजकोट लौट आए और पुनः वकालात शुरूआत की। अप्रैल 1893 में गांधी जी दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी से एक प्रस्ताव प्राप्त करने पर दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हुए।
सत्य और अहिंसा गांधी जी के जीवन दर्शन का सार है। सत्य के बिना किसी वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है। अतः सत्य ही ईश्वर है। भौतिक मोहजाल और संबंधों के कारण मनुष्य सत्य को स्पष्ट देख नहीं पाता। इस जाल को काटने के लिए और संवेगों को संयत करने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता होती है वह अहिंसा, अंतर्मन, वचन, कर्म और आत्मा से अहिंसा को स्थान मिलना चाहिए। अहिंसा का अर्थ मात्र हिंसा न करना नहीं है। इसके साथ ही बुरे तथा निरर्थक विचार मन में न लाना, द्वेष, घृणा और अहंकार से दूर रहना भी है।
गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में (1893-1914)
गांधी जी 24 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वे प्रिटोरिया स्थित कुछ भारतीय व्यापारियों के न्यायिक सलाहकार के तौर पर वहां गए थे। उन्होंने अपने जीवन के 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताये जहाँ उनके राजनैतिक विचार और नेतृत्व कौशल का विकास हुआ। यहाँ आगमन पर उन्होंनें पहली बात महसूस की वो गोरों का नस्लवाद पर दमनकारी माहौल था। भारतीयों जिनमें से बड़ी संख्या में दक्षिण अफ्रीका में व्यापारियों के रूप में, गिरमिटिया मजदूरों या उनके वंशज के रूप में बसे थे, गोरों द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता था और कुली या सामी बुलाया जाता था। इस प्रकार एक हिंदू डाॅक्टर को कुली डाॅक्टर बुलाया जाता था और गांधी जी खुद को कुली बैरिस्टर बुलाते थे। इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में उनको गंभीर नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ा। डरबन में एक दिन अदालत में मजिस्ट्रेट ने उनसे पगड़ी हटाने के लिए कहा जिसे गांधी जी ने इनकार कर दिया और अदालत से चले गए।
31 मई 1893 को गांधी जी प्रिटोरिया जा रहे थे, एक गोरे ने प्रथम श्रेणी गाड़ी में उनकी मौजूदगी पर आपत्ति जताई और उन्हें ट्रेन के अंतिम डिब्बे में स्थानांतरित करने के लिए आदेश दिया। गांधी जी, जिनके पास प्रथम श्रेणी का टिकट था, ने इंकार कर दिया, और इसलिए उन्हें पीटरमैरिट्सबर्ग में ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया।
स्टेशन के प्रतीक्षालय में सर्दी में रातभर कांपते रहे बापू ने दक्षिण अफ्रीका में ही रहने और भारतीयों एवं अन्य लोगों के खिलाफ नस्लीय भेदभाव से लड़ने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इसी संघर्ष से उनका अहिंसक प्रतिरोध अपने अद्वितीय संस्करण ‘सत्याग्रह’ के रूप में उभरा। आज गांधी जी की एक कांस्य प्रतिमा इस शहर के केंद्र में चर्च स्ट्रीट पर खड़ी है।
ये सारी घटनाएँ उनके के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ बन गईं और मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक अन्याय के प्रति जागरूकता का कारण बनीं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए उनके मन में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत भारतीयों के सम्मान तथा स्वयं अपनी पहचान से सम्बंधित प्रश्न उठने लगे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी ने भारतीयों को अपने राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।
1894 में गांधी जी ने नेटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की, उसके बाद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। 1897 में गांधी जी अपनी पत्नी और बच्चों को दक्षिण अफ्रीका लेकर गए। दक्षिण अफ्रीका में इस दूसरी अवधि के दौरान गांधी के जीने के तरीके में आमूल परिवर्तन आया। उन्होंने अपनी इच्छाओं और खर्चों में कमी शुरु की। वो स्वयं अपने धोबी बने, अपने कपड़े खुद इस्त्री की, अपने बालों को खुद काटना सीखा। स्वयं की मदद से संतुष्ट न होकर उन्होंने एक चेरिटेबल अस्पताल में दो घंटे के लिए एक कम्पाउंडर के तौर पर काम किया। उन्होंने नर्सिंग और दाई के काम पर भी किताबें पढ़ीं। 1899 में जब बोर युद्ध छिड़ा, तब उन्होंने डाॅक्टर बूथ की मदद से 1100 भारतीय स्वयंसेवकों का एक एंबुलेंस दल तैयार किया और इसकी सेवाएँ सरकार को प्रदान की। उनके नेतृत्व में इस दल नें महत्वपूर्ण सेवाएँ दीं। गांधी को सबसे खुशी इस बात से हुई कि भारतीयों नें भाइयों के रूप में काम किया और धर्म, जाति या संप्रदाय के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर एक साथ खतरों का सामना किया।
उन्होंने भारतीयों की नागरिकता संबंधी मुद्दे को भी दक्षिण अफ्रीकी सरकार के सामने उठाया और सन 1906 के जुलु युद्ध में भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनके अनुसार अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। 1906 में उन्होंने सरकार के पंजीकरण अधिनियम के खिलाफ पहली बार अहिंसा आन्दोलन का आयोजन किया। उन्होंने अपने साथी भारतीयों से कहा कि वे नये सिरे से अहिंसक तरीके से कानून की अवहेलना करें। कई अवसरों पर वह अपने कई हजार समर्थकों के साथ जेल गए।
शांतिपूर्ण भारतीय विरोध प्रदर्शन सार्वजनिक विरोध की वजह बना। दक्षिण अफ्रीकी जनरल जे. सी. स्मट्स को गांधी जी के साथ समझौते के लिए मजबूर किया। हालांकि गांधी जी ने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया। उन्होंने पूर्ण नागरिकता पाने के लिए ब्रिटिशों की रक्षा के लिए भारतीयों को सेना में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में आहुति:
गांधी जी 9 जनवरी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौट आये। एक महात्मा, जिसके पास कोई संपत्ति नहीं थी केवल अपने लोगों की सेवा करने की एक महत्वाकांक्षा के साथ। हालाकि बुद्धिजीवियों ने दक्षिण अफ्रीका में उनके कारनामों के बारे में सुना था, भारत में वे प्रसिद्ध नहीं थे और सामान्य भारतीय ‘‘भिखारी के वेश में महान आत्मा’’ जैसा टैगोर ने बाद में उन्हें बुलाया था, को नहीं जान पाये थे। पहले वर्ष में गांधी जी ने कान खोलकर और मुँह बंद कर अध्ययन करने के लिए पूरे देश की यात्रा करने का निर्णय किया। इस समय तक गांधी एक राष्ट्रवादी नेता और संयोजक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। वे उदारवादी कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर भारत आये थे। अपने राजनैतिक जीवन के शुरूआती दौर में गांधी जी के विचार बहुत हद तक गोखले के विचारों से प्रभावित थे। प्रारंभ में गांधी ने देश के विभिन्न भागों का दौरा किया और राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को समझने की कोशिश की। पूरे वर्ष घूमने के उपरांत गांधी अहमदाबाद के बाहरी किनारे पर साबरमती नदी के किनारे बस गये जहाँ मई 1915 में उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम का नाम उन्होंने सत्याग्रह आश्रम रखा।
चम्पारण और खेड़ा सत्याग्रह
उनका पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारण में 1917 में हुआ जहाँ वे सताये हुए नील की खेती करने वाले मजदूरों के अनुरोध पर पहुँचे थे। बिहार के चम्पारण और गुजरात के खेड़ा में हुए आंदोलनों ने गांधी को भारत में पहली राजनैतिक सफलता दिलाई। चंपारण में ब्रिटिश जमींदार किसानों को खाद्य फसलों की बजाए नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे और सस्ते मूल्य पर फसल खरीदते थे जिससे किसानों की स्थिति बदतर होती जा रही थी। इस कारण वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। एक विनाशकारी अकाल के बाद अंग्रेजी सरकार ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। कुल मिलाकर स्थिति बहुत निराशाजनक थी। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों का नेतृत्व किया जिसके बाद गरीब और किसानों की मांगों को माना गया।
सन् 1918 में गुजरात स्थित खेड़ा बाढ़ और सूखे की चपेट में आ गया था जिसके कारण किसान और गरीबों की स्थिति बदतर हो गयी और लोग कर माफी की मांग करने लगे। खेड़ा में गांधी जी के मार्गदर्शन में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ इस समस्या पर विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया। इसके बाद अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया। इस प्रकार चंपारण और खेड़ा के बाद गांधी जी की ख्याति देश भर में फैल गई और वह स्वतंत्रता आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण नेता बनकर उभरे।
खिलाफत आन्दोलन
अब गांधी जी को ऐसा लगने लगा था की कांग्रेस कहीं न कहीं हिन्दू व मुस्लिम समाज में एकता की कमी की वजह से कमजोर पड़ रही हैं जो की कांग्रेस के स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों की नैय्या डूबा भी सकती है। इस मनोभूमिका से गांधी जी दोनों समाजों हिन्दू व मुस्लिम समाज की एकता की ताकत के बल पर ब्रिटिश की सरकार को बाहर भगाने के प्रयास में जुट गए। कांग्रेस के अन्दर और मुस्लिमों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का मौका गांधी जी को खिलाफत आन्दोलन के जरिये मिला। खिलाफत एक विश्वव्यापी आन्दोलन था जिसके द्वारा खलीफा के गिरते प्रभुत्व का विरोध सारी दुनिया के मुसलमानों द्वारा किया जा रहा था। प्रथम विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद ओटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया था जिसके कारण मुसलमानों को अपने धर्म और धार्मिक स्थलों के सुरक्षा को लेकर चिंता बनी हुई थी। भारत में खिलाफत का नेतृत्व ‘आल इंडिया मुस्लिम कांफ्रेंस’ द्वारा किया जा रहा था। धीरे-धीरे गांधी इसके मुख्य प्रवक्ता बन गए। भारतीय मुसलमानों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए सम्मान और मैडल वापस कर दिया। इसके बाद गांधी न सिर्फ कांग्रेस बल्कि देश के एकमात्र ऐसे नेता बन गए जिसका प्रभाव विभिन्न समुदायों के लोगों पर था।
असहयोग आन्दोलन
गांधी जी का मानना था की भारत में अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों के सहयोग से ही संभव हो पाई थी और अगर हम सब मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ हर बात पर असहयोग करें तो आजादी संभव है। गांधी जी की बढती लोकप्रियता ने उन्हें कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता बना दिया था और अब वह इस स्थिति में थे कि अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार जैसे अस्त्रों का प्रयोग कर सकें। इसी बीच जलियांवाला नरसंहार ने देश को भारी आघात पहुंचाया, जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी थी।
गांधी जी ने स्वदेशी नीति का आह्नान किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। उनका कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। उन्होंने पुरुषों और महिलाओं को प्रतिदिन सूत कातने के लिए कहा। इसके अलावा महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं और अदालतों का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों को छोड़ने तथा अंग्रेजी सरकार से मिले तमगों और सम्मान को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
असहयोग आन्दोलन को अपार सफलता मिल रही थी जिससे समाज के सभी वर्गों में जोश और भागीदारी बढ़ गई लेकिन फरवरी 1922 में इसका अंत चैरी-चैरा कांड के साथ हो गया। इस हिंसक घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। उन्हें गिरफ्तार कर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाई गयी। खराब स्वास्थ्य के चलते उन्हें फरवरी 1924 में सरकार ने रिहा कर दिया।
स्वराज और नमक सत्याग्रह
असहयोग आन्दोलन के दौरान गिरफ्तारी के बाद गांधी जी फरवरी 1924 में रिहा हुए और सन 1928 तक सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे। इस दौरान वे स्वराज पार्टी और कांग्रेस के बीच मनमुटाव को कम करने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ भी लड़ते रहे।
इसी समय अंग्रेजी सरकार ने सर जाॅन साइमन के नेतृत्व में भारत के लिए एक नया संवैधानिक सुधार आयोग बनाया पर भारत का एक भी सदस्य भारतीय नहीं था जिसके कारण भारतीय राजनैतिक दलों ने इसका बहिष्कार किया। इसके पश्चात दिसम्बर 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में गांधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत को भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा और ऐसा न करने पर देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहने के लिए भी कहा। अंग्रेजों द्वारा कोई जवाब नहीं मिलने पर 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर में भारत का झंडा फहराया गया और कांग्रेस ने 26 जनवरी 1930 का दिन भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया। इसके पश्चात् गांधी जी ने सरकार द्वारा नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नमक सत्याग्रह चलाया जिसके अंतर्गत उन्होंने 12 मार्च से 6 अप्रेल तक अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक लगभग 388 किलोमीटर की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य स्वयं नमक उत्पन्न करना था। इस यात्रा में हजारों की संख्या में भारतीयों ने भाग लिया और अंग्रेजी सरकार को विचलित करने में सफल रहे। इस दौरान सरकार ने लगभग 60 हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा।
इसके बाद लार्ड इरविन के प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार-विमर्श करने का निर्णय लिया जिसके फलस्वरूप गांधी-इरविन संधि पर मार्च 1931 में हस्ताक्षर हुए। गांधी-इरविन संधि के तहत ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए सहमति दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया परन्तु यह सम्मेलन कांग्रेस और दूसरे राष्ट्रवादियों के लिए घोर निराशाजनक रहा। इसके बाद गांधी जी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने राष्ट्रवादी आन्दोलन को कुचलने की कोशिश की।
1934 में गांधी जी ने राजनीतिक गतिविधियों के स्थान पर अब ‘रचनात्मक कार्यक्रमों’ के माध्यम से ‘सबसे निचले स्तर से’ राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान लगाया। उन्होंने ग्रामीण भारत को शिक्षित करने, छुआछूत के खिलाफ आन्दोलन जारी रखने, कताई, बुनाई और अन्य कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने और लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया।
हरिजन आंदोलन
दलित नेता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की कोशिशों के परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने अछूतों के लिए एक नए संविधान के अंतर्गत पृथक निर्वाचन मंजूर कर दिया था। येरवडा जेल में बंद गांधी जी ने इसके विरोध में सितंबर 1932 में छः दिन का उपवास किया और सरकार को एक समान व्यवस्था (पूना पैक्ट) अपनाने पर मजबूर किया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए अभियान की यह शुरूआत थी। 8 मई 1933 को गांधी जी ने आत्म- शुद्धि के लिए 21 दिन का उपवास किया और हरिजन आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए एक-वर्षीय अभियान की शुरुआत की। कई दलित नेता इस आन्दोलन से प्रसन्न नहीं थे और उन्होंने गांधी जी द्वारा दलितों के लिए हरिजन शब्द का उपयोग करने की निंदा की।
द्वितीय विश्व युद्ध और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’
द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ में गांधी जी अंग्रेजों को ‘अहिंसात्मक नैतिक सहयोग’ देने के पक्षधर थे, परन्तु कांग्रेस के ही बहुत से नेता इस बात से नाखुश थे कि जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना ही सरकार ने देश को युद्ध में झोंक दिया था। गांधी जी ने घोषणा की कि एक तरफ भारत को आजादी देने से इंकार किया जा रहा था और दूसरी तरफ लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत के लिए भारत को युद्ध में शामिल किया जा रहा था। जैसे-जैसे युद्ध बढ़ता गया गांधी जी और कांग्रेस ने ‘‘भारत छोड़ो’’ आन्दोलन की मांग को तीव्र कर दिया।
‘भारत छोड़ो’ स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया, जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई। इस संघर्ष में हजारों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार भी कर लिए गए। गांधी जी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को समर्थन तब तक नहीं देंगे जब तक भारत को तत्काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने यह भी कह दिया था कि व्यक्तिगत हिंसा के बावजूद यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा। उनका मानना था की देश में व्याप्त सरकारी अराजकता असली अराजकता से भी खतरनाक है। गांधी जी ने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ ‘करो या मरो’ (डू आॅर डाय) के साथ अनुशासन बनाए रखने को कहा।
जैसा कि सबको अनुमान था अंग्रेजी सरकार ने गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को मुबंई में 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया और गांधी जी को पुणे के आगा खां महल ले जाया गया, जहाँ उन्हें दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। इसी दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत 22 फरवरी 1944 को हो गया। कुछ समय बाद गांधी जी भी मलेरिया से पीड़ित हो गए। अंग्रेज उन्हें इस हालत में जेल में नहीं रख सकते थे, इसलिए जरूरी उपचार के लिए 6 मई 1944 को उन्हें रिहा कर दिया गया। आशिंक सफलता के बावजूद भारत छोड़ो आंदोलन ने भारत को संगठित कर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि जल्द ही सत्ता भारतीयों के हाथ सौंप दी जाएगी। गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन समाप्त कर दिया और सरकार ने लगभग 1 लाख राजनैतिक कैदियों को रिहा कर दिया।
महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन
गांधी जी का शिक्षा के क्षेत्र में भी विशेष योगदान रहा है। उनका मूलमंत्र था – ‘शोषण-विहीन समाज की स्थापना करना।’ उसके लिए सभी को शिक्षित होना चाहिए। क्योंकि शिक्षा के अभाव में एक स्वस्थ समाज का निर्माण असंभव है। अतः गांधी जी ने जो शिक्षा के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों की व्याख्या की तथा प्रारंभिक शिक्षा योजना उनके शिक्षा दर्शन का मूर्त रूप है। अतएव उनका शिक्षादर्शन उनको एक शिक्षाशास्त्री के रूप में भी समाज के सामने प्रस्तुत करता है। उनका मानना था कि मेरे प्रिय भारत में बच्चों को 3भ् की शिक्षा अर्थात् ीमंक ींदक ीमंतज की शिक्षा दी जाए। शिक्षा उन्हें स्वावलंबी बनाये और वे देश को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दें। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्शवादी रहा है। उनका आचरण प्रयोजनवादी विचारधारा से ओतप्रोत था। उनका यह मानना था कि सामाजिक उन्नति हेतु शिक्षा का एक महत्वपूर्ण योगदान होता है।
देश का विभाजन और आजादी
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते ब्रिटिश सरकार ने देश को आजाद करने का संकेत दे दिया था। भारत की आजादी के आन्दोलन के साथ-साथ, जिन्ना के नेतृत्व में एक ‘अलग मुसलमान बाहुल्य देश’ (पाकिस्तान) की भी मांग तीव्र हो गयी थी और 40 के दशक में इन ताकतों ने एक अलग राष्ट्र ‘पाकिस्तान’ की मांग को वास्तविकता में बदल दिया था। गांधी जी देश का बंटवारा नहीं चाहते थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के सिद्धांत से बिलकुल अलग था पर ऐसा हो न पाया और अंग्रेजों ने देश को दो टुकड़ों-भारत और पाकिस्तान-में विभाजित कर दिया।
गांधी जी की हत्या
30 जनवरी 1948 की सुबह गांधी जी ने कांग्रेस को भंग कर उसे ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में परिवर्तित करने का एक मसौदा तैयार किया और अपने सेक्रेटरी प्यारे लाल के हाथ में दे दिया। मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था। उसी दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दिल्ली के ‘बिरला हाउस’ में प्रार्थना-सभा में जाते समय शाम 5.17 पर हत्या कर दी गई। गांधी जी जब प्रार्थना सभा को संबोधित करने जा रहे थे, तभी नाम के सिरफिरे नाथूराम गोडसे ने उनके सीने में 3 गोलियां दाग दी। ऐसा कहा जाता है कि नाथूराम गोडसे गांधीजी के भारत विभाजन पर रवैये और मुस्लिमों के प्रति सहिष्णुता से नाराज था। ‘हे राम’ उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे। एक युग का अन्त हो गया। महात्मा गांधी अब नहीं रहे थे। सारा देश शोकाकुल हो उठा। नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी पर मुकदमा चलाया गया और 1949 में उसे मौत की सजा सुनाई गयी।