एक बार सप्तर्षि गण बदरपाचन तीर्थ हिमालय पर्वत पर बारह वर्ष के लिए तपस्या करने चले गए। वे अरुंधति को जंगल में बने आश्रम में अकेला छोड़ गए। कहते हैं कि इस बीच भयंकर अकाल पड़ा, जो बारह साल तक चला।
आश्रम में अरुंधति के लिए खाने को कुछ भी नहीं था। इस कठिन समय में उन्होंने भूखे रहकर ही भगवान शिव की तपस्या करनी शुरू कर दी। शिवजी उनकी परीक्षा लेने के लिए एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण करके आ गए।आश्रम में आकर उन्होंने कहा कि हे माता! मुझे भूख लगी है। मुझे कुछ खाने को दो। अरुंधति ने कहा कि हे ब्राह्मण देव, घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, बस थोड़े बदरी (बैर)के बीज हैं, इन्हीं को खा लीजिए।
भगवान शिव ने कहा, ‘क्या तुम इन बीजों को पका सकती हो?’
अरुंधति अग्नि में बीजों को पकाने लगी। बीज पकाते हुए उसने धर्म-कर्म की बातें शुरू कर दी। अरुंधति बारह वर्षो तक लगातार धर्म की व्याख्या करती रही। अरुंधति ने भगवान शिव को 12 वर्ष तक धर्म की शिक्षा दी थी।प्रभु की माया के चलते समय कब और कैसे बीत गया उन्हें पता ही नहीं चला। बारह साल के अंत में अकाल समाप्त हो गया और सप्तर्षि भी हिमालय से लौट आए।
भगवान शिव अरुंधति की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना असली रूप दिखाया। उन्होंने ऋषियों से कहा कि अरुंधति की तपस्या आपके द्वारा हिमालय पर की गई तपस्या से अधिक उत्तम थी। फिर भोले शंकर ने अरुंधति के रहने के स्थान को पवित्र किया और चले गए।
सप्तर्षि मंडल में अरुंधति
सप्तर्षि तारामंडल आकाश में सात तारों के समूह के रूप में देखा जा सकता है। इन तारों के नाम प्राचीन काल के सात ऋषियों के नाम पर रखे गए हैं। ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वशिष्ठ तथा मारीचि हैं। इसमें वशिष्ठ नाम का जो तारा है, वो दरअसल दो तारे हैं। हमारे यहाँ बहुत पहले ही ऋषियों ने इनको वशिष्ठ और अरुंधति तारा कहा है। इनमें एक तारा (वशिष्ठ) स्थिर रहता है और दूसरा (अरुंधति) उसके चारों ओर घूमता है। सप्तर्षि तारामंडल में अन्य ऋषियों के साथ अरुंधति को एकमात्र स्त्री और पत्नी, जो पति के सदैव साथ रहती है, होने का गौरव प्राप्त है। अरुंधति पतिव्रता सन्नारियों में भी उज्ज्वल स्थान प्राप्त किए हुए है।