‘मुझे बेहद खुशी है कि सरकार ने मेरे काम को मान्यता दी है। लेकिन इससे ज्यादा प्रसन्नता तब होगी जब दूसरे लोग इससे प्रेरणा लेकर समाज की बेहतरी के लिए काम करने आगे आएंगे। मुझे तो अपना अवार्ड उसी दिन मिल गया था, जिस दिन अस्पताल शुरू हुआ था और पहले मरीज का सफलतापूर्वक इलाज हुआ था।’
78 साल की सुभाषिनी मिस्त्री के चेहरे पर ये कहते हुए संतोष के भाव उभर आते हैं।
लगभग तीन दशकों तक कभी आया तो कभी सब्ज़ी विक्रेता के तौर पर काम करने वाली सुभाषिनी ने पाई-पाई जोड़ कर दक्षिण 24-परगना जिले के ठाकुरपुकुर इलाके में एक ’ह्यूमैनिटी अस्पताल’ की स्थापना की है ताकि किसी ग़रीब मरीज़ को इलाज के अभाव में दम नहीं तोड़ना पड़े।
सुभाषिनी का अस्पताल
यहां मरीजों का लगभग मुफ़्त इलाज किया जाता है। इस काम के लिए मिस्त्री को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। हाल में उन्होंने सुंदरवन के दुर्गम इलाके पाथरप्रतिमा में भी अस्पताल की एक शाखा की स्थापना की है।
अब वह अपने डॉक्टर बेटे अजय कुमार के साथ इस अस्पताल का कामकाज देखती हैं।
उनके अस्पताल में मरीजों का मुफ़्त इलाज किया जाता है। अब तक चंदे और कुछ संगठनों से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बूते चलने वाले इस अस्पताल में फ़िलहाल 25 बिस्तर हैं। डाक्टरों और दूसरे जीवन रक्षक उपकरणों की भी कमी है।
सुभाषिनी को उम्मीद है कि अब पद्मश्री मिलने के बाद शायद केंद्र या राज्य सरकार और दूसरे संगठन उनके इस सामाजिक महायज्ञ में आहुति देने के लिए आगे आएं।
पति ने इलाज के अभाव में दम तोड़ा
बेहद गरीब परिवार में जन्मी सुभाषिनी की शादी महज 12 साल की उम्र में ही हो गई थी। लेकिन महज़ 12 साल बाद ही पति साधन चंद्र मिस्त्री की मौत के चलते उनको विधवा का लिबास पहनना पड़ा।
तब तक उनके चार बच्चे हो चुके थे। सुभाषिनि बताती हैं, ‘आंत्रशोथ की मामूली बीमारी ने ही मेरे पति को लील लिया. हमारे पास उनके इलाज के लिए पैसे नहीं थे। उसी समय मैंने संकल्प किया कि गरीबी की वजह से मेरे पति की तरह कोई मौत का शिकार नहीं होना चाहिए।’
सुभाषिनी कहती हैं, ‘मेरे पति को अस्पताल में दाखिल नहीं किया गया था। नतीजतन उनकी मौत हो गई।’
तब उनका सबसे बड़ा बेटा साढ़े चार साल का और सबसे छोटी बेटी महज डेढ़ साल की थी। पति की मौत के सदमे से उबरने के बाद सबसे बड़ी समस्या चार बच्चों का पेट पालने की थी। साक्षर नहीं होने की वजह से उन्होंने आया का काम शुरू किया।
उसी दौरान उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि चाहे जो हो जाए गरीबों के मुफ्त इलाज के लिए वह एक अस्पताल जरूर खोलेंगी।
बच्चे अनाथालय में रहे
वह कहती है कि घर का खर्च पूरा नहीं पड़ने की वजह से दो बच्चों को अनाथालय में रखना पड़ा। अपनी मेहनत और दृढ़ निश्यच के चलते उन्होंने अपने एक बेटे अजय को पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बनाया। वही आज मां के साथ मिल कर अस्पताल का तमाम कामकाज देखता है।
बच्चों का पेट पालने के साथ ही सुभाषिनी ने पाई-पाई जोड़ अस्पताल के लिए पैसे इकट्ठा किए। इसके लिए दिन भर मज़दूरी करने के बाद उन्होंने शाम को सब्जियां बेची और लोगों के घरों में बर्तन धोए। लगभग तीन दशक तक पेट काट-काट कर पैसे जुटाने के बाद उसने हांसपुकुर गांव में एक बीघा ज़मीन खरीदी। वर्ष 1993 में स्थानीय लोगों की सहायता से ‘ह्यूमैनिटी ट्रस्ट’ का गठन कर एक अस्थायी क्लीनिक की स्थापना की।
आसपास के कई गांवों के लोगों ने अस्पताल के निर्माण के काम में सुभाषिनी की सहायता की और वर्ष 1996 में बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल के.वी. रघुनाथ रेड्डी ने इस अस्पताल के पक्के भवन का उद्घाटन किया। उसके बाद से सुभाषिनी और उनकी टीम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। इस कर्मयज्ञ के लिए उनको प्रतिष्ठित ‘गाडफ्रे फिलिप्स ब्रेवरी अवार्ड’ समेत कई सम्मान मिल चुके हैं।
लेकिन इतना कुछ करने के बावजूद सुभाषिनी संतुष्ट नहीं हैं। वह कहती हैं कि उनका सपना उसी समय पूरा होगा जब यहां चौबीसों घंटे तमाम विशेषज्ञ डॉक्टर उपलब्ध होंगे और यहां एक आधुनिक अस्पताल जैसी तमाम सेवाएं मुहैया होंगी। वे कहती हैं, ‘‘मेरा मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। अस्पताल का विस्तार जरूरी है। इसमें आईसीयू समेत कई अन्य सुविधाओं और कर्मचारियों की जरूरत है। सरकार से आर्थिक मदद मिलने पर यह काम आसान हो जाएगा।“
तमाम दिक्कतों के बावजूद सुभाषिनी ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है।
सुभाषिनी मिस्त्री कहती हैं, ‘जब बिना किसी पूंजी के यहां तक पहुंच गई तो आगे भी कोई न कोई राह ज़रूर निकलेगी।’