प्रयागराज में कुम्भ का आयोजन देश की प्राचीन परम्पराओं में से एक है। विश्व भर में अपने तरह के अनूठे इस आयोजन सन्देश लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। भारतीय संस्कृति में मानवता का सबसे बड़ा आयोजन कुम्भ हजारों वर्षों से सामाजिक समरसता का संदेश देता आया है। सनातन समाज सदैव से समरस रहा है। सामाजिक समरसता के बिना समृद्ध राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता। समरसता का ऐसा संगम विश्व में कहीं नहीं देखने मिलता है। इस विविधता की एकता अब विश्व समुदाय भी स्वीकार करने लगा है।
‘कुम्भ’ को भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करने वाला समागम कहा जा सकता है। साथ ही, इसे एक ऐसा संगम कह सकते हैं, जहां पर किसी भी प्रकार का कोई भी भेदभाव किसी के साथ नहीं होता।
हजारों वर्षों पूर्व से वेदों में ‘कुम्भ’ शब्द का प्रयोग हुआ है। वेद इस धरती के सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ माने गए हैं और वेदों में जिस शब्द का प्रयोग हुआ हो, उसकी प्राचीनता स्वयं में सिद्ध है। दुनिया के सबसे बड़े आयोजन कुम्भ को यूनेस्को द्वारा मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की विश्व धरोहर के रूप में मान्यता भी दी गई है। प्रयाग कुम्भ में 12 से 16 करोड़ की संख्या में श्रद्धालुओं के आगमन की सम्भावना है। कुम्भ का आयोजन पूरे विश्व समुदाय के लिए समरसता का संदेश है। जिसमें बिना किसी भेदभाव के संत, समाज, धर्मावलम्बी एवं गृहस्थ एक होकर विश्व समुदाय को सांस्कृतिक एकता का संदेश देते हैं। राष्ट्र की सम्पन्न सनातन परम्परा में सामाजिक भेद-भाव के लिए कोई स्थान नहीं है। कुम्भ का आयोजन आदिकाल से देश में चार स्थानों पर होता आ रहा है। यह महज धार्मिक आयोजन न होकर हमारी समृद्ध परम्परा का एक हिस्सा है। विश्व समुदाय में राष्ट्रीय एकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम की संकल्पना का संदेश है। इस सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है। समरस समाज-समर्थ राष्ट्र का निर्माण तभी सम्भव है, जब हम अपनी इन समृद्ध धरोहरों के मूल स्वरूप को बनाए रखें।
हिन्दू समाज की रूढ़ियों को दूर करने वाले महापुरुषों में महर्षि दयानंद सरस्वती का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जहाँ विशेष आकर्षित करने वाला था, वहीं विशाल वैदिक वाङ्मय के गहन ज्ञान से सम्पन्न, चिंतनशील, तर्कशील, बहु-आयामी और दूरदर्शिता से भरा हुआ निर्भीक आंतरिक व्यक्तित्व विस्मित करने वाला था। संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी वे कूपमंडूकता से कोसों दूर थे। सबसे हटकर स्वामी दयानंद ने धार्मिक और सामाजिक के साथ ही दार्शनिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्य सांस्कृतिक समस्याओं का भी हल खोजने का प्रयास किया और एक वैज्ञानिक की भांति सभी धर्मों के अंधविश्वासों एवं तर्कहीन मान्यताओं को दूर करने की प्रेरणा दी।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है कि मेरा अभिप्राय कोई नवीन मत चलाने का नहीं है, मैं तो उन्हीं सिद्धांतों को मानता हूँ जो सर्वतंत्र सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग सदा से मानते आए हैं, और इसीलिए जिन्हें ‘‘सनातन नित्यधर्म कहते हैं। इसी दृष्टि से उन्होंने वेद आदि शास्त्रों के आधार पर 51 ऐसे सिद्धांतों का संक्षेप में वर्णन किया है, जिन्हें हमारे ऋषि-मुनि हमेशा से मानते आए हैं, पर जिनके वास्तविक अर्थ को आज हम भूल चुके हैं। जैसे ईश्वर, वेद, धर्म, जीव, ईश्वर और जीव का स्वरूप, अनादि पदार्थ, मुक्ति, मुक्ति के साधन, देवपूजा, पदार्थ, सृष्टि, सृष्टि का प्रयोजन, स्वर्ग, नरक, जन्म, मृत्यु, पुरुषार्थ, प्रारब्ध, आर्य, आर्यावर्त, प्रार्थना, स्तुति, उपासना आदि। इसी क्रम में उन्होंने यह अपेक्षा भी व्यक्त की है कि परमात्मा कृपा और विद्वानों के सहयोग से ये सिद्धांत सारे विश्व में पुनः प्रतिष्ठित हो जाएँ जिससे सभी लोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को सिद्ध करके सदा उन्नति करते रहें और आनंदित रहें।