( महात्मा गाँधी के १५० वें जन्म वर्ष के सन्दर्भ में )
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों को शब्दों में बांधना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। महात्मा गांधी के विचारों की सरलता और गहराइयों को समझने के लिए शब्दों का अभाव हो सकता है। भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में जहाँ शहरों की चकाचौंध बढ़ती जा रही है, वहीं गाँवों की सादगी धूमिल होती प्रतीत हो रही है। गांधीजी के विचार हमें दोबारा वहीं गांव की गलियों की सादगी और स्वच्छता में ले जाते हैं जहां गोधूलि बेला का आनंद मिलता है, जिसका अभाव आज की भागदौड़ वाली दुनिया में खलता है। महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं अनुकरणीय हैं जितने अपने वक्त में थे। गांधीजी का बचपन, उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचार, सर्वोदय, सत्याग्रह, खादी, ग्रामोद्योग, महिला शिक्षा, अस्पृश्यता, स्वावलंबन एवं अन्य सामाजिक चेतना के विषय आज के युवाओं के शोध एवं शिक्षण के प्रमुख क्षेत्र हैं।
महात्मा गांधी जिस भारत की कल्पना करते थे उस भारत में पंचायतों को स्वावलंबी बनाने पर जोर दिया गया था। गांधीजी का मानना था कि भारत कुछ चंद शहरों में नहीं बल्कि अपने 6 लाख गाँवों में बसता है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता निचले स्तर से आरंभ होनी चाहिए। महात्मा गांधी गाँवों को एक राष्ट्र में उत्पादन की सबसे छोटी इकाई के रूप में देखते थे। चूंकि महात्मा गांधी एक आध्यात्मिक पुरुष थे तो उन्होंने अध्यात्म में जिस गांव की संरचना देखी थी वह रामराज्य से प्रेरित थी।इसमें गाँवों को लोकतांत्रिक रूप से चलाया जाता था, जहां शासक लोगों के हित के लिए काम करता था। सभी को समान अवसर प्रदान किए जाते थे, हिंसा की कोई जगह नहीं थी और जहाँ सभी धर्म और मान्यताओं का आदर किया जाता था।
भारतीय युवा हमेशा से गांधीजी के चिंतन का केंद्र बिंदु रहा है। वर्तमान युवा पाश्चात्य प्रभावों से संचालित है। उसकी सोच निरकुंश है। वह अपने ऊपर किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहता है। ऐसी परिस्थितियों में गांधीजी के विचारों की सर्वाधिक जरूरत आज के युवाओं को है। गांधीजी हमेशा युवाओं से रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा रखते थे। गांधीजी ने उस पीढ़ी के युवाओं को भयरहित कर अंग्रेजों के दमन का सामना करने का अद्भुत साहस दिया था। वे हमेशा युवा ऊर्जा को सही दिशा देने की बात करते थे। आंदोलन के समय वे युवाओं को हमेशा सतर्क करते रहते थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय उन्होंने कहा था हमारा आंदोलन हिंसा का अग्रदूत न बन जाए इसके लिए मैं हर दंड सहने के लिए तैयार हूं, यहां तक कि मैं मृत्यु का वरण करने को भी तैयार हूं। उस समय के युवाओं से उनकी अपेक्षा थी कि वे अपनी ऊर्जा और उत्साह को स्वतंत्रता प्राप्ति में सार्थक योगदान की ओर मोड़ें।
गांधीजी ने हमेशा से युवाओं को वंचित समूहों के उत्थान के लिए प्रेरित किया है। वो व्यक्तिगत घृणा के हमेशा विरोधी रहे हैं। उनका कथन था- ‘शैतान से प्यार करते हुए शैतानी से घृणा करनी होगी।’ उन्होंने हमेशा युवाओं को आत्मप्रशंसा से बचने को कहा है। उनका कथन है कि जनता की विचारहीन प्रशंसा हमें अहंकार की बीमारी से ग्रसित कर देती है
वर्तमान आईटी प्रोफेशनल के लिए गांधीजी मैनेजमेंट गुरु हैं। वे हमेशा आर्थिक मजबूती के पक्षधर रहे हैं। गांधीजी ने हमेशा पूंजीवादी व समाजवादी विचारधारा का विरोध किया है। उनका मानना था कि देश की अर्थव्यवस्था कुछ पूंजीपतियों के पास गिरवी नहीं होनी चाहिए। उनकी अर्थव्यवस्था के केंद्रबिंदु गांव थे। उनके अनुसार जब तक गांव के युवाओं को गांव में ही रोजगार नहीं मिलता है, तब तक उनमें असंतोष एवं विक्षोभ रहेगा। ग्रामीण बेरोजगारों का शहर की ओर पलायन, जो कि भारत की ज्वलंत समस्या है, का निराकरण सिर्फ कुटीर उद्योग लगाकर ही किया जा सकता है।
सभी प्रकार की हिंसाओं के धुर विरोधी गांधीजी का मानना था कि भारत की सभी समस्याओं का समाधान ‘अहिंसा’ में छिपा है। गांधीजी पूंजीवाद के विरोधी थे। उनका कहना था कि “इस पृथ्वी पर मानव की आवश्यकता अनुसार प्रचुर मात्रा में संसाधन उपलब्ध है, परंतु मानव की लालसा के अनुरूप संसाधन नहीं हैं”। अगर मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उपयोग करें तो कोई भी इस दुनिया में भूखा नहीं मरेगा। गांधी जी उन सभी अहिंसक आजीविकाओं के समर्थन में थे जो घृणा और शोषण के विरुद्ध थे। गांधीजी विकेंद्रीकृत उद्योगों के पक्षधर थे। उनका मानना था कि औद्योगीकरण समस्त सामाजिक राक्षसों की जननी है। गांधीजी ने विकेंद्रीकृत उद्योगों का समर्थन किया क्योंकि उनका मानना था कि विकेंद्रीकृत उद्योगों में शोषण ना के बराबर होगा।
भारतीय साहित्य की युवा पीढ़ी हमेशा से गाँधी दर्शन से प्रभावित रही है। उस समय के साहित्य पर गांधी दर्शन का स्पष्ट प्रभाव था। मैथिलीशरण गुप्त की भारत भारती, प्रेमचंद की रंगभूमि, माखनलाल चतुर्वेदी की पुष्प की अभिलाषा, रामधारी सिंह दिनकर की मेरे नगपति मेरे विशाल, सुभद्रा कुमारी चौहान की झांसी की रानी आदि साहित्यिक रचनाएं गांधी दर्शन से ही प्रेरित रही हैं।
सत्य के प्रबल आग्रही गांधीजी का ईश्वर और प्रार्थना पर अटूट विश्वास था। उनकी व्यक्तिगत मान्यता थी कि प्रार्थना के द्वारा हम अपने जीवन में आने वाली सभी कठिनाइयां का दृढ़तापूर्वक सामना कर सकते हैं। क्योंकि सच्ची प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी की उपासना पद्धति भिन्न होने के बाद भी, वह है तो उसी परम सर्वशक्तिमान में श्रद्धा। मूर्ति पूजा में भी उनका यकीन था लेकिन वह अंध्विश्वास और पाखण्ड के खिलाफ थे। ईश्वर को गांधी जी ‘सत्चित्त आनन्द’ की संज्ञा देते थे, क्योंकि उसमें स्वयं सत्य का निवास है। गांधी जी ने जीवनपर्यन्त सत्य को सर्वोपरि माना। गांधी जी ने अपनी आत्म कथा में बताया है ‘‘जब मैं निराश होता हूं, तब मैं याद करता हूं कि इतिहास सत्य का मार्ग होता है, किन्तु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हत्यारे भी हुए हैं वह कुछ समय के लिए अपराजय लगते थे, किन्तु अंत में उनका पतन भी होता है- इसका सदैव विचार करें। मरने के लिए मेरे पास बहुत से कारण हैं, किन्तु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं हैं।’’ निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी ने राजनीति, समाज, अर्थ एवं धर्म के क्षेत्र में आदर्श स्थापित किये व उसी के अनुरूप लक्ष्य प्राप्ति के लिए स्वयं को समर्पित ही नहीं किया बल्कि देश की जनता को भी प्रेरित किया व आशानुरूप परिणाम भी प्राप्त किये। उनकी जीवन दृृष्टि भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही आदर्शवादी रहा है । उनका मानना था, ’ किसी भी देश और समाज की उन्नति और अवनति, उस देश के प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित, शिक्षा पर निर्भर करता है । गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य, महज साक्षर होना नहीं बल्कि शिक्षा का उद्देश्य, आर्थिक आवश्यकता की पूर्त्ति का जरिया होना चाहिये । यह तभी संभव है, जब शिक्षा प्रयोजनवादी विचारधारा पर आधारित होगी । गाँधीजी वर्तमान शिक्षा पद्धति से दुखी रहा करते थे । उनका मानना था, वर्तमान शिक्षा में अध्यापक, विद्यार्थी को योग्य बनाने के दायित्व से रहित हैं । आज के अध्यापक पर विद्यार्थी को योग्य बनाने का भार जितना होना चाहिये, उतना नहीं है । अध्यापक को प्रशिक्षण एवं चयन में हर विद्यार्थी के गुण, शील-चरित्र तथा शिक्षण कार्य के प्रति उसके समर्पण भाव का आंकलन करना चाहिये तथा उसके अनुसार उसकी शिक्षा का प्रबंध होना चाहिये । मानवीय चरित्र –निर्माण के लिये भी शिक्षा में आवश्यक पाठ्यक्रम का विकास होना चाहिये । वे चाहते थे, विद्यार्थी के मस्तिष्क पर किताबों का बोझ कम हो । स्कूल- कालेज़ के प्रवेश एवं नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप न हो । विद्यार्थी और शिक्षक, दोनों को ही राजनीति से अलग हो । उनके अनुसार वर्तमान शिक्षा में यदि आधारभूत शिक्षादर्शन का सिद्धान्त हो, तो विद्यार्थियों के भटकने से काफ़ी हद तक रोका जा सकता है क्योंकि एक चिंतामुक्त व्यक्ति ही देश का उत्तम नागरिक बनकर अपने परिवार को सुख, समाज को समृद्धि और राष्ट्र को शांति दे सकता है । उनके अनुसार सुंदर-स्वस्थ जीवन बिताने के लिये, शिक्षा में योग-शिक्षा का होना अति आवश्यक है । इससे शरीर, मन और हृदय का सामंजस्य बना रहता है जो किसी भी राष्ट्र के स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध रखता है । भारतीय चिंतकों, ऋषियों- मुनियों ने पृथ्वी के आरम्भकाल में ही इसकी नीव रख दी थी और कहा था,’ यह शिक्षा समाज की अलग- अलग परम्पराओं में रहकर भी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती हुई, देश की एक विशिष्ट पहचान के रूप में बनी रहेगी । दुख की बात कहिये, भारत का स्वर्णिम अतीत और भारतीयों की अद्भुत जीवंत अभिव्यक्ति का पर्याय, यह योगशिक्षा ,धीरे-धीरे हमारे समाज से बिल्कुल विलुप्त होती चली गई; कारण ,गरीबी,बेकारी जो भी हो ।
गाँधीजी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ,शिल्प जैसे करघे पर सूत कातना, बुनाई करना, लकड़ी-चमड़े-मिट्टी का काम, पुस्तक कला, मछली पालना, बागवानी, शारीरिक शिक्षा, बालिकाओं के लिये गृहविग्यान अनिवार्य रूप से आधारित किया । उनके अनुसार शिक्षा जब तक व्यवहारिक नहीं होगी, तब तक शिक्षा अधूरी रहेगी। गाँधीजी की यह आदर्शवादी शिक्षा जीवन – लक्ष्य की प्राप्ति की प्रेरणा देती है ।
मनुष्य प्रजाति की उत्पति से लेकर आज तक की सारी मानवता व्यक्तिगत, सामाजिक, जातीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति के लिए प्रयासरत रही है। गांधीजी का मानना था कि समाज में शांति की स्थापना तभी संभव है, जब व्यक्ति भावनात्मक समानता एवं आत्मसंतोष को प्राप्त कर लेगा। गांधीजी के अनुसार शांति की प्राप्ति प्रत्येक युवा का भावनात्मक एवं क्रियात्मक लक्ष्य होना चाहिए तभी उसकी ऊर्जा, गतिशीलता एवं उत्साह राष्ट्रीय हित में समर्पित होंगे।
ग्राम उद्योग को बढ़ावा देने की बात करते हुए गांधीजी का कहना था कि “खादी एक वस्त्र नहीं, खादी एक विचार है”। गांधी जी खादी को भारत की आर्थिक स्वतंत्रता तथा एकता का प्रतीक मानते थे। गांधीजी का खादी उद्योग को बढ़ावा देने के पीछे तर्क था कि खादी उद्योग भारत के सभी लोगों को रोजगार दिला सकता है तथा भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र राष्ट्र बना सकता है। इसीलिए गांधी जी ने चरखा को एक उपकरण के रूप में चुना जो सस्ता, कम पूंजी पर चलने वाला तथा सभी घरों में आसानी से इस्तेमाल हो सकता था। उत्पादन के किसी औजार का ऐसा समाजवादी तसव्वुर, किसी नेता नहीं किया जैसा गांधी जी ने चरखा का किया है। गांधी जी चरखे के जरिए हर तरह के विभेद को खत्म करने की बात करते हैं। वे एक जगह लिखते हैं, “काम ऐसा होना चाहिए जिसे अपढ़ और पढ़े-लिखे, भले और बुरे, बालक और बूढ़े, स्त्री और पुरुष, लड़के और लड़कियां, कमज़ोर और ताकतवर- फिर वे किसी जाति और धर्म के हों- कर सके। चरखा ही एक ऐसी वस्तु है, जिसमें ये सब गुण हैं। इसलिए जो कोई स्त्री या पुरुष रोज़ आधा घंटा चरखा कातता है, वह जन समाज की भरसक अच्छी से अच्छी सेवा करता है।” साथ ही साथ उन्होंने ‘कताई से स्वराज’ का नारा भी दिया। गांधीजी का मकसद भारत के हर एक घर को उत्पादन की एक इकाई में बदलना था। इससे भारत एक आत्मनिर्भर राष्ट्र के साथ-साथ पूरी दुनिया का एक विनिर्माण केंद्र बन सकता था।
गांधीजी युवाओं को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा औजार मानते थे। वे हमेशा चाहते थे कि सामाजिक परिवर्तनों, सामाजिक कुरीतियों, सती प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता, जाति व्यवस्था के उन्मूलन के विरुद्ध युवा आवाज उठाएं। उनका मानना था कि शोषणमुक्त, स्वावलंबी एवं परस्परपोषक समाज के निर्माण में युवाओं की अहम भूमिका है एवं भविष्य में भी होगी। वर्तमान युवा प्रजातांत्रिक मूल्यों एवं तथ्यपरक सिद्धांतों को मानता है।
गांधीजी हमेशा आत्मनिरीक्षण के पक्षधर रहे हैं। गांधीजी के सिद्धांत भी लोकतंत्र एवं सत्य की कसौटी पर कसे-खरे सिद्धांत हैं। गांधीजी की असहमति, उनका बोला गया सत्य आज के युवा को बेचैन कर देता है। उनकी आस्थाएं अडिग हैं। उन्होंने हर विश्वास को बड़ी जांच-परखकर व्रत की तरह धारण किया था। उन्होंने युवाओं के लिए स्वराज को सबसे बड़ा आत्मानुशासन, सत्याग्रह को सबसे बड़ा व्रत, अहिंसा को सबसे बड़ा अस्त्र एवं शिक्षा को सबसे बड़ी नैतिकता माना है।
आज भारत में युवाओं के सामने ऐसे आदर्श व्यक्तित्वों की कमी है जिसे वो अपना रोल मॉडल बना सकें। गांधीजी हर पीढ़ी के युवाओं के रोल मॉडल रहे हैं एवं होने चाहिए। आज हमारा समाज सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा है। इन सामाजिक परिवर्तनों को सही दिशा देने में गांधीजी के सिद्धांत एवं उनका दर्शन हमारे युवाओं के मार्गदर्शक होने चाहिए। गांधीजी के विचारों में मानवता सर्वोपरि स्थान ग्रहण करती है। गांधी जी एक राष्ट्र, एक युवा, एक नागरिक, एक किसान, एक छात्र को शून्यता की वरीयता से अवगत कराते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य मानवता की सभी परम सीमाओं को लांघकर एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करना है। आज हमारे युवाओं को मौका है कि वे गांधीजी को अपना आदर्श बनाकर सामाजिक परिवर्तन एवं राष्ट्र निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें। हमारे युवा उनके दर्शन को अपनाकर अपने व्यक्तित्व एवं राष्ट्र के विकास में पूर्ण ऊर्जा एवं उत्साह से समर्पित हों।