ष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ. मोहन राव भागवत जी ने ‘‘सामाजिक समरसता’’ विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा कि देश के विकास के लिए सामाजिक एकता की आवश्यकता होती है और समाज में एकता की पूर्व शर्त है सामाजिक समता। जब समता आएगी तो सामाजिक एकता अपने आप आएगी। इसके लिए हमें प्रयत्न करना होगा। अपने व्याख्यान के प्रारंभ में सरसंघचालक जी ने कहा कि सामाजिक समरसता के लिए समाज में जागरूकता लाने के लिए सद्भावना वर्द्धक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमारे समाज में विविधता है। स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक भी है। भाषा, खान – पान, देवी – देवता, पंथ – सम्प्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता
सरसंघचालक जी ने कहा कि हमारे देश में सभी विविधताओं में सबसे अधिक चर्चा जातिगत व्यवस्था की होती है। जातिभेद के कारण ही सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं और ये समस्याएँ विषमता को जन्म देती हैं, जिसके कारण संघर्ष होता है। इसलिए समाज से जातिभेद को दूर करना होगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि इसका एकमात्र उपाय है – सामाजिक समरसता। उन्होंने कहा कि सामाजिक समरसता के लिए जातिगत व्यवस्थाओं को सही दिशा में काम करना चाहिए। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक देश में आरक्षण जारी रहना चाहिए और संघ इसे खत्म किए जाने के पक्ष में नहीं है। उन्होंने कहा कि ‘‘सामाजिक भेदभाव जब तक है, तब तक सामाजिक आरक्षण चलेगा, ये संघ का कहना है और सामाजिक भेदभाव समाप्त हुआ, अब आरक्षण निकालो, ये उनको कहना पड़ेगा जो सामाजिक भेदभाव के शिकार हैं’’।
सरसंघचालक जी ने सामाजिक समरसता के लिए भारतीय जीवन मूल्यों को आचरणीय बनाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि समरसता की शुरुआत स्वयं से करनी होगी। ‘‘हजार भाषणों से ज्यादा असर एक कार्यकर्ता के व्यवहार का होता है।’’ इसलिए हमारा मन निर्मल हो, हमारा वचन दंशमुक्त हो, हमारे वचन से किसी को पीड़ा न हो। हम सबका व्यवहार सभी लोगों को अपना मित्र बनाने वाला होगा, तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
उन्होंने कहा कि अपने परिवार में ऐसा वातावरण बनाएँ, जिससे सामजिक समरसता को बल मिले। हमारे देश के किसी भी पंथ-संप्रदायों ने, तथा समाज सुधारकों और संतों ने मनुष्यों के बीच भेदभाव का समर्थन नहीं किया है। समानता प्रत्येक पंथ की उत्पत्ति का मूल तत्व रही है, लेकिन बाद में समाज को जातियों या संप्रदायों में विभाजित कर दिया गया। भेदभाव लोगों के व्यवहार से भी पैदा होने लगा। उन्होंने भेदभाव खत्म करने की आवश्यकता पर जोर दिया और उन परंपराओं को खारिज किया जो अनावश्यक हैं। उन्होंने कहा कि परम्परा के नाम पर इस भेदभाव को आगे और जारी रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन लोगों की भावनाओं को समझा जाना चाहिए जो हजारों वर्षों से पीड़ित रहे हैं। समाज के कई तबकों ने भेदभाव और अन्याय को लंबे समय तक सहा है। सरसंघचालक जी ने कहा कि अब हमें भी कुछ वर्षों तक समझना और सहन करना सीखना चाहिए और अपने स्वयं के व्यवहार में वांछित बदलाव लाना चाहिए। रूढ़ि- परम्पराओं को आधुनिक वैज्ञानिक मानकों पर परखा जाना चाहिए और जो परीक्षण में विफल साबित हों, उन्हें खारिज कर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से ये रूढ़ि-परम्पराएँ हजारों वर्षों से नहीं परखी गईं और इनका आँख मूँदकर पालन किया जा रहा है। परंपरागत कर्मकांड तो चलते आ रहा है, किन्तु जीवन मूल्यों की अनदेखी की गई। अपने व्यवहार में जब तक ये मूल्य प्रकट नहीं होंगे, तब तक समता का दर्शन समाज में नहीं हो सकता। हमें अपने जीवन में मूल्यों को मन, मस्तिष्क और व्यवहार में आचरणीय बनाना होगा। संबोधन के दौरान सरसंघचालक जी ने स्वामी विवेकानन्द, डाॅ. बाबासाहेब अम्बेडकर, पू. बालासाहेब देवरस तथा पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का भी उल्लेख किया।
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब देवरस की जन्मशती के उपलक्ष्य में नागपुर नागरिक सहकारी बैंक द्वारा आयोजित व्याख्यान समारोह में दिए व्याख्यान से संकलित ।)