” राष्ट्र का भविष्य हैं बालक “
उदयपुर,11 नवम्बर। समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में ” राष्ट्र का भविष्य हैं बालक “ विषयक 44 वीं मासिक विचार गोष्ठी का आयोजन फतह स्कूल में किया गया ।
विषय प्रवर्तन करते हुए समुत्कर्ष पत्रिका के सम्पादक रामेश्वर प्रसाद शर्मा ने कहा कि बाल्य काल में बीजारोपण किए गए संस्कार ही वटवृक्ष बनकर किसी भी राष्ट्र को यौवन प्रदान करते हैं । देश को वीर, साहसी, निर्भीक, ईमानदार, प्रामाणिक, सत्यनिष्ठ तथा देशभक्त नागरिक चाहिए तो देश के बचपन को संस्कारक्षम बनाने के उपक्रम करने होंगे।
प्राध्यापक तरुण शर्मा ने बाल मन की विशेषता का वर्णन करते हुए भगत सिंह के बचपन का बन्दूक बोने का वृत्तान्त सुनाते हुए बताया कि बचपन के संस्कारों का ही पश्चवर्ती जीवन में व्यापक प्राकट्य होता है। बालक में काम, क्रोध, ईर्ष्या और प्रवृत्तियों के साथ-साथ सहानुभूति, प्रेम और दया की प्रवृत्तियाँ गुप्त रूप से विद्यमान रहती हैं। इनको वह अपने माता-पिता से परम्परा से प्राप्त करता है और उसका चरित्र इसी पर बहुत कुछ अवलम्बित रहता है। उसकी इन प्रवृत्तियों का विकास उसके सहवास के अनुसार हुआ करता है। कामी, क्रोधी तथा द्रोही मनुष्यों के सहवास में आने से वह स्वयं भी वैसा ही बन जाता है क्योंकि ऐसे लोगों के मध्य में रहने से उसकी प्रवृत्तियां प्रबल हो जाती हैं। किन्तु इसके विपरीत यदि उसका सहवास ऐसे मनुष्यों से हो जो दयालु तथा सहानुभूति पूर्ण हों तो उसकी दया,प्रेम और सहानुभूति की प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं।
संचालन करते हुए संदीप आमेटा ने बताया कि आज के बालक हमारे भारत देश का भविष्य हैं। अतः हम सबको मिलकर भविष्य के कर्णधार की नींव को सुसंस्कारों से पल्लवित करना है। बाल्यकाल की गलतियों को बढावा देने की बजाय समय रहते ही उसे सुधारना हम सबकी नैतिक और आवश्यक जिम्मेदारी है।
प्रधानाध्यापक बालमुकुन्द मण्डोवरा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए वर्तमान पीढ़ी के कन्धों पर भावी पीढ़ी के निर्माण की महती जिम्मेदारी निभाने के लिये तैयार होने का आह्वान किया ।
वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त करते हुए उल्लेख किया कि बालक का जीवन दो नियमों के अनुसार विकसित होता है, एक सहज परिपक्वता का नियम और दूसरा सीखने का नियम। बालक के समुचित विकास के लिए हमें उसे जल्दी जल्दी कुछ भी न सिखाना चाहिए। सीखने का कार्य अच्छा तभी होता है जब वह सहज रूप से होता है। बालक जब सहज रूप से अपनी सभी मानसिक अवस्थाएँ पार करता है तभी वह स्वस्थ और योग्य नागरिक बनता है। कोई भी व्यक्ति न तो एकाएक बुद्धिमान होता है और न परोपकारी बनता है। उसकी बुद्धि अनुभव की वृद्धि के साथ विकसित होती है और उसमें परोपकार, दयालुता तथा बहादुरी के गुण धीरे धीरे ही आते हैं। उसकी इच्छाओं का विकास क्रमिक होता है। यह मानसिक परिपक्वता के नियम के अनुसार है। ऐसे ही व्यक्ति के चरित्र में स्थायी सद्गुणों का विकास होता है और ऐसा ही व्यक्ति अपने कार्यों से समाज को स्थायी लाभ पहुँचाता है।
पप्पू लाल कुम्हार ने गुरु शिष्य परम्परा की कहानी सुनाते हुए कहा कि अच्छी आदतें बहुमूल्य हैं ।हमारी शिक्षा व्यवस्था एवं परिवारों में मूल्यों के द्वारा ही बालक अच्छे आचरण सीखता है।
बाल साहित्यकार तरुण कुमार दाधीच ने कहा कि चरित्र निर्माण हेतु घर व पाठशाला दो का सामान दायित्व है औ र इस दायित्व को हमें भली भांति समझना होगा जिससे नए विद्यार्थियों में चरित्र का निर्माण हो सके ।
गोष्ठी में राकेश शर्मा, रघुवीर, मनोज्ञ जोशी, ईश्वर,हेमन्त जोशी, विद्यासागर , आदि उपस्थित थे ।
लोकेश जोशी
94147 32617
विचार गोष्ठी संयोजक
समुत्कर्ष समिति, उदयपुर